Sunday, 14 June 2020

“मार्क्‍सवादी अध्‍ययन चक्र” के नाम पर बाँटे जा रहे अज्ञान, मूर्खता और झूठ का आलोचनात्‍मक विवेचन - पांचवी किश्‍त


इस तरह आत्‍मग्रस्‍त मूढ़ता के रथ ने रौंद दिया बौद्ध दर्शन और इतिहास को
(अशोक कुमार पाण्‍डे द्वारा मार्क्‍सवादी अध्‍ययन चक्र में फैलायी जा धुन्‍ध का आलोचनात्‍मक विवेचन)
(पांचवी किश्‍त)
·        हण्‍ड्रेड फ्लावर्स मार्क्सिस्‍ट स्‍टडी ग्रुप, दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय, दिल्‍ली

अब हम पाण्‍डे जी के पांचवे वीडियो की आलोचनात्‍मक विवेचना पर आते हैं।
पाण्‍डे जी पांचवे वीडियो में थोड़ा 'कांशस' हो गये हैं। हालांकि इस सचेत होने और नरभसाने को उन्‍होंने आक्रामकता के पर्दे में छिपाने की काफी कोशिश की है। लगभग आधे घण्‍टे के वीडियो में पाण्‍डे जी ने कम-से-कम 15 मिनट हवाबाज़ी पर खर्च किये हैं। जैसा कि हमने पहले भी बताया है, पाण्‍डे जी के वीडियो चिप्‍स के पैकेट के समान होते हैं। उसमें सड़े चिप्‍स के अलावा आधी जगह बदबूदार गैस भरी होती है। यह वीडियो भी इस आम नियम का अपवाद नहीं है। पाण्‍डे जी काम की बात करने की बजाय बार-बार हमें याद दिलाते हैं कि उनसे गलती हो सकती है, उन्‍हें ठीक किया जाय, क्‍योंकि सीखना तो एक दो-तरफा प्रक्रिया होती है; कई लोग गुरू-घण्‍टालों के समान जटिल शब्‍दावली में बात करते हैं, मार्क्‍स व हेगेल वगैरह को कोट करते हैं, और अपने ज्ञान से लोगों को आतंकित करते हैं, यह तो कोई मार्क्‍सवादी तरीका नहीं है। पूंजीवादी राज्‍यसत्‍ता के एक चाकर के रूप में पाण्‍डे जी बिल्‍कुल पूंजीवादी राज्‍यसत्‍ता जैसी ही बातें कर रहे हैं! जब पूंजीवादी राज्‍यसत्‍ता किसी से आतंकित होती है, तो वह सबके लिए ही उस चीज़ को आतंककारी बता देती है! उसी प्रकार पाण्‍डे जी जिन आलोचनाओं से आतंकित हो गये हैं, उन्‍हें बौद्धिक आतंककारी करार देने की कोशिश कर रहे हैं! उनका कहना है कि इनको पढ़कर कुछ समझ नहीं आता है, बस आतंक पैदा होता है! अपने आतंकित होने को वह पूरे हिन्‍दी जगत पर ही आरोपित किये दे रहे हैं। कोई ताज्‍जुब की बात नहीं है, ज्‍यादातर मूर्खों को यह लगता ही है कि सभी मूर्ख हैं।

पाण्‍डे जी खुद तो अपना अज्ञान फैलाने की प्रक्रिया में कोई उद्धरण या सन्‍दर्भ बताते नहीं हैं, बस कुछ किताबों के नाम बताते हैं और वह भी गलत बताते हैं, जैसा कि हम इस बार भी देखेंगे। अब चूंकि पाण्‍डे जी अपनी बालकनी पर खड़े होकर अज्ञान का कूड़ा हिन्‍दी जगत के युवाओं, बुद्धिजीवियों आदि पर फेंक रहे हैं, तो हमें उद्धरणों, सन्‍दर्भों व पुस्‍तकों के सही नाम के साथ उनका खण्‍डन करना पड़ता है। वैसे भी, यदि कोई मार्क्‍सवाद या भारतीय दर्शन के बारे में बुनियादी ज्ञान को विकसित करने के लिए कोई स्‍टडी सर्किल लेता है, तो क्‍या उसे उद्धरण पेश नहीं करने चाहिए? क्‍या उसे सही सन्‍दर्भ नहीं बताना चाहिए? और अगर वह गलत-सलत सन्‍दर्भ और किताबों के नाम बताये, तो क्‍या सही सन्‍दर्भों, उद्धरणों व किताबों के नामों के साथ उसका खण्‍डन नहीं किया जाना चाहिए? लेकिन जब हम पाण्‍डे जी को इस तरह से दुरुस्‍त करते हैं, तो पाण्‍डे जी कहते हैं कि 'देखो, देखो! ये लोग मुझे ज्ञान से आतंकित कर रहे हैं!' वह कुत्‍साप्रचार करने लगते हैं, बीमार पड़ जाते हैं, सहानुभूति बटोरने का प्रयास करने लग जाते हैं। बड़ी हास्‍यास्‍पद स्थिति हो गयी है पाण्‍डे जी की।
इस पांचवे वीडियो में जो दूसरी मज़ेदार बात है, वह यह है कि पाण्‍डे जी जिस प्रकार कुछ लोगों के सवालों का शुरू में ही जवाब दिया करते थे, उन्‍होंने इस बार ऐसा कुछ नहीं किया। ऐसा इसलिए हुआ है कि पाण्‍डे जी अपने व्‍याख्‍यान का मूल हिस्‍सा तो टीप-टाप कर लेकर आते थे, लेकिन जो सवाल लोग पूछते थे, वह तो पाण्‍डे जी पहले से तैयार करके आते नहीं थे। इन्‍हीं सवालों का जवाब देने के चक्‍कर में पिछले चार वीडियो में इन महोदय ने अपनी काफी फजीहत कराई थी। वैसे तो जो मूल व्‍याख्‍यान पाण्‍डे जी देते हैं, वह भी वज्र मूर्खताओं से भरा होता है, जैसा कि हम पहले चार वीडियो की समालोचना में देख चुके हैं और इस बार भी देखेंगे, लेकिन स्‍वत:स्‍फूर्त रूप से मौके पर पूछे गये सवालों का जवाब देने के चक्‍कर में तो पाण्‍डे जी अपनी बुरी तरह से भद्द पिटवाते रहे हैं। इस बार एक अच्‍छे ''मार्क्‍सवादी'' के समान उन्‍होंने ''समाहार'' किया और तय किया कि ''बेटा पाण्‍डे, ये सवालों का जवाब देने में विद्वता झाड़ने के चक्‍कर में तो तेरे लग जा रहे हैं, तू इस फण्‍डे में पड़ ही मत! सीधे एकतरफा बोल दे उन खर्रों के आधार पर जो तू बनाकर लाया है!'' लेकिन तुर्रा यह कि पाण्‍डे जी अपने पांचवें व्‍याख्‍यान में ज्ञान-अर्जन की प्रक्रिया को दोतरफा बता रहे हैं!
तो पाण्‍डे जी ने दो नवोन्‍मेष किये हैं इस बार। एक तो उन्‍होंने आधा टाइम यह बताने और भूमिका बांधने में खर्च कर दिया कि किस प्रकार वह सरल शब्‍दों में ज्ञान देते हैं, दोतरफा तरीके से ''प्‍यार लो प्‍यार दो'' की तर्ज पर ज्ञान लेते-देते हैं, और किस प्रकार कुछ लोगों ने अपने उद्धरणों, सन्‍दर्भों व ''जटिल शब्‍दों'' से उनको आतंकित किया है, किस प्रकार उनसे गलती भी हो जाती है और किस प्रकार वह सीखने के लिए तैयार हैं, किस प्रकार वह शिक्षक-विद्याथीं के सम्‍बन्‍ध को नहीं मानते हैं, बल्कि साथियों द्वारा ''प्‍यार दो-प्‍यार लो'' की तर्ज पर ''ज्ञान लो-ज्ञान दो'' के सिद्धान्‍त पर चलते हैं, इत्‍यादि। इस हवाबाज़ी पर पाण्‍डे जी ने लगभग 15 मिनट खर्च कर दिये हैं अपने 30 मिनट से भी कम के वीडियो में! इसके पीछे पाण्‍डे के असली मकसद दो हैं: पहला, कि उनकी अब तक हमारे द्वारा पेश की गयी बेहद बोधगम्‍य और सरल आलोचना के बारे में लोगों को डरा दिया जाय, और वे उसे न पढ़ें, क्‍योंकि अगर लोग पढ़ेंगे तो उन्‍हें पता चलेगा कि पाण्‍डे को मार्क्‍सवाद और साथ ही भारतीय दर्शन व उसके इतिहास का 'क ख ग' भी नहीं पता है। लेकिन अफसोस की ऐसा हो नहीं पा रहा है। दूसरी चाल उन्‍होंने यह चली है कि वह थोड़ा सचेत हो गये हैं और इस बार उसी वक्‍त श्रोताओं की ओर से आने वाले सवालों पर उन्‍होंने कोई जवाब देने की कोशिश नहीं की। इसी चक्‍कर में उनकी सबसे ज्‍यादा मट्टी पलीद हो रही थी।
इन सबके बावजूद, पाण्‍डे जी ने 14 मिनट जो विषय पर बात की है, एक बार फिर से उसमें ही इतनी मूर्खताएं घुसेड़ी हैं कि हम अभी भी ताज्‍जुब में हैं कि इस व्‍यक्ति ने ग्रेजुएशन भी कैसे पास किया। लेकिन फिर हमें एडगर एलन पो की यह बात याद आई, ''गलत धारणाओं को विकसित करने के मामले में मूर्खता एक प्रतिभा होती है।'' मानना पड़ेगा कि इस विशिष्‍ट अर्थ में पाण्‍डे जी निस्‍सन्‍देह रूप से एक प्रतिभा हैं। आइये उदाहरणों समेत देखते हैं।
शुरू में ही पाण्‍डे जी आत्‍ममुग्‍धता का जोरदार प्रदर्शन करते हैं। वह कहते हैं कि मैं माफी मांगता हूं कि इस बार वीडियो बनाने में लम्‍बा गैप हो गया, अब से हफ्ते में एक बना ही दूंगा, शनिवार की रात को डाल दिया करूंगा। देरी के तीन कारण बताते हैं: झाडू-पोंछा, नौकरी, और गांधी पर उनकी आने वाली पुस्‍तक! फिर बोलते हैं कि गांधी की पुस्‍तक में बस वह गांधी की हत्‍या के बारे में लिखने वाले थे लेकिन चूंकि उन्‍हें कुछ ''आर्काइल'' (आर्काइवल क्‍या?) मिल गया है, इसलिए अब वह इस पर भी लिख रहे हैं कि कोई किसी के विचारों से इतना आतंकित कैसे हो जाता है कि उसकी हत्‍या कर देता है! फिर वह बोलते हैं कि इस पुस्‍तक का एक ''खण्‍ड'' उन्‍होंने पिछली रात ही पूरा किया और उसका एक हिस्‍सा फेसबुक पर पोस्‍ट भी किया था, जिसे बहुत से लोगों पढ़ा और शेयर किया!
इतने आत्‍म-प्रचार और आत्‍मअंगमर्दन के बाद, पाण्‍डे जी बोलते हैं कि उनके वीडियो में हफ्ते-दस दिन का फर्क पड़ना ठीक ही है क्‍योंकि ''मैं बहुत से किताबें बताता हूं''; तो इस गैप में लोग इन किताबों को देख सकते हैं। लेकिन हमने देखा कि पाण्‍डे जी किताबों का नाम बताने में कल्‍पनाशक्ति का ज्‍यादा प्रयोग करते हैं। इनके कहे पर पता नहीं कितने बेचारे युवा के. दामोदरन की ''भारतीय दर्शन परम्‍परा'' ढूंढ रहे होंगे; इनके पहले स्‍टडी सर्किल और तीसरे स्‍टडी सर्किल के बीच न जाने कितने श्रोता के. दामोदरन की 'भारतीय दर्शन में क्‍या जीवंत है और क्‍या मृत'' ढूंढ रहे होंगे (यह किताब देवी प्रसाद चट्टोपाध्‍याय की है; इस गलती को पाण्‍डे जी ने बाद में किसी के बताने पर ठीक किया), इसी प्रकार जो लोग पांचवा वीडियो देखेंगे, वे पाण्‍डे जी के बताने पर हावर्ड जिन की पुस्‍तक ''ए पीपल्‍स हिस्‍ट्री ऑफ दि वर्ल्‍ड'' ढूंढने लगेंगे और न जाने कितना परेशान होंगे (गौर करें, कि यह पुस्‍तक क्रिस हरमन की है, न कि हावर्ड जिन की; हावर्ड जिन की पुस्‍तक है 'ए पीपल्‍स हिस्‍ट्री ऑफ यूनाईटेड स्‍टेट्स') लेकिन इस मूर्ख आदमी की धृष्‍टता और बेशर्मी देखिये। यह शेखी बघार रहा है कि उसके वीडियो में 7-10 दिनों का गैप रहना ठीक ही है क्‍योंकि वह बहुत-सी पुस्‍तकों के नाम बताता है, जिन्‍हें इस गैप में तमाम युवा श्रोता ढूंढ और पढ़ सकते हैं!
आगे पाण्‍डे जी हम पर हमला करते हुए बोलते हैं कि मैं कोई परीक्षा तो दे नही रहा हूं और वैसे भी मेरा भारतीय दर्शन पर बात करने का एक विशेष उद्देश्‍य है, वह मेरी विशेषज्ञता का क्षेत्र नहीं है, उसके बारे में तो मैं सरल शब्‍दों में बता रहा हूं, एक-एक भारतीय दर्शन के बारे में नहीं बता रहा हूं; मेरा मकसद तो बस यह दिखलाना है कि भारतीय दर्शन में एक भौतिकवादी धारा रही है; मेरा मूल मकसद तो मार्क्‍सवाद के बुनियादी सिद्धान्‍त बताना है। लेकिन कुछ गुरूघण्‍टाल लोग (यानी हम लोग!) जटिल शब्‍दों में, मार्क्‍स व हेगेल के उद्धरणों के साथ अपने ज्ञान से आतंकित कर देते हैं, यह मार्क्‍सवादी तरीका नहीं है, जनता को शिक्षित करने का तरीका नहीं है, बस उसे आतंकित करने का तरीका है। मैंने जो कुछ जाना है वह पढ़कर और वरिष्‍ठ लोगों से सुनकर जिन्‍होंने पढ़ा है, उससे जाना है। मुझसे कोई गलती हो जाये तो आप लोग भी मुझे बताइये। आज बौद्ध दर्शन के बारे में कुछ छूट जाये या गलती हो जाये, तो प्रमोद शाह से मैं अपील करूंगा कि वह मुझे विस्‍तार से बताएं कि क्‍या गलती हुई है!
इतनी सी बात में इस शख्‍स ने कितने झूठ बोले हैं और कितनी लफ्फाजियां की हैं, आइये देखते हैं। पहली बात तो यह है कि यदि आपने मार्क्‍सवाद के बुनियादी सिद्धान्‍तों से हिन्‍दी जगत के श्रोताओं को परिचित कराने का उत्‍तरदायित्‍व उठाया है, तो आपको निश्चित तौर पर इसे एक परीक्षा के तौर पर लेना चाहिए। रोज आप रात्रि भोज करके खट्टी डकारों के साथ बकवास नहीं पेल सकते हैं; थोड़ा-पढ़ लिखकर और तैयारी करके यह कार्य करिये। जब तक आप अपने मन में मूर्खतापूर्ण बात सोचते हैं, तो वह आपका मानवाधिकार है। लेकिन आप फेसबुक पर अपना बीबीसी (बुड़बक ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन) चालू करके अज्ञान का अंधकार फैलाएंगे, तो आपकी असलियत तो लोगों के सामने लानी ही पड़ेगी। पाण्‍डे जी कहते हैं कि भारतीय दर्शन उनका क्षेत्र नहीं है और उसमें तो बस वह यह दिखलाना चाहते हैं कि इसमें भी एक भौतिकवादी परम्‍परा रही है, उसके एक-एक दर्शन के बारे में बताना मेरा उद्देश्‍य नहीं है। किसी ने एक-एक दर्शन के बारे में न बताने के लिए आपकी आलोचना की भी नहीं थी, पाण्‍डे जी! क्‍यों बातों को घुमा रहे हैं। आपको संक्षेप में यह बताने का पूरा अधिकार है कि भारतीय दर्शन में भौतिकवाद की एक धारा रही है। लेकिन सही तो बताइये! चार्वाक दर्शन को आपने गुप्‍त काल में पहुंचा दिया! बौद्ध दर्शन को भी सामन्‍तवाद के दौर में पहुंचा दिया! आपके अनुसार शूद्र इसलिए शूद्र बने क्‍योंकि वे बौद्धिक तौर पर अन्‍य तीन वर्णों से पीछे थे (हालांकि उनके शोषण-दमन पर आपको आपत्ति है!), अस्‍पृश्‍यता और दलित जातियों के उद्भव को आपने वर्ण व्‍यवस्‍था के उद्भव के काल में पहुंचा दिया, वर्ण व्‍यवस्‍था को ब्राह्मणों द्वारा रचा गया ''किस्‍सा'' बता दिया, कबीलाई गणराज्‍यों को आपने पहली सदी ईसवी में पहुंचा दिया, गुप्‍त साम्राज्‍य को भी पहली सदी ईसवी में पहुंचा दिया! इसलिए मूल बात आपके द्वारा भारतीय दर्शन के बारे में पर्याप्‍त विस्‍तार में जाने की नहीं थी; मूल बात यह थी कि आप संक्षेप में जो बता रहे हैं, वह चुगदपने और मूर्खता से भरा हुआ है और यह दिखलाता है कि आपकी इतनी भी औकात नहीं है कि आप संक्षेप में हिन्‍दी जगत के श्रोताओं को यह दिखला सकें कि भारतीय दर्शन में भौतिकवाद की एक परम्‍परा थी।
इसके बाद पाण्‍डे जी बोलते हैं कि उनका बुनियादी क्षेत्र तो मार्क्‍सवाद के सिद्धान्‍तों से लोगों को परिचित कराना है। इस पर हमारी हंसी ही छूट गयी। जिस आदमी को यह लगता है कि पूंजीवादी समाज में मज़दूर को ''मेहनत का पूरा मोल नहीं मिलता'' और यही पूंजीवादी शोषण का कारण है, जिस आदमी को यह नहीं पता कि श्रमशक्ति का क्रय-विक्रय होता है, श्रम का नहीं; जिस आदमी को यह न पता हो कि मज़दूरी किसे कहते हैं और वह दावा करता है कि चार्वाकों के दौर में वैश्‍य कारखाने लगाते थे और उसमें शूद्र मज़दूरों को ''कम मज़दूरी'' मिलती थी, जिस आदमी को यह न पता हो कि ऐतिहासिक भौतिकवादी सिद्धान्‍त को केवल वर्ग संघर्ष के सिद्धान्‍त में अपचयित नहीं किया जा सकता है, वह यह दावा कर रहा है कि मार्क्‍सवाद के बुनियादी सिद्धान्‍तों से परिचित कराना उसकी विशेषज्ञता का क्षेत्र है? मोदी जी को उद्धृत करके कहें तो हिप्‍पोक्रेसी की भी कोई सीमा होती है! विडम्‍बना ने अगर यह बातें सुन ली होतीं, तो निश्चित ही आत्‍महत्‍या कर लेती!
लेकिन इसके बावजूद पाण्‍डे जी इस बात पर नाराज़ हैं कि हमने उद्धरणों, सन्‍दर्भों व पुस्‍तकों का सही नाम पेश करते हुए उनकी आलोचना क्‍यों की! और चूंकि पाण्‍डे जी इससे आतंकित हैं, इसलिए वह हम पर आरोप लगाते हैं कि हम बौद्धिक आतंकवादी हैं! फिर वह कहते हैं कि मैं तो ज्ञान के ''प्‍यार दो-प्‍यार लो'' वाले सिद्धान्‍त में यकीन करता हूं, मुझसे गलती भी हो सकती है, तो मुझे ठीक कर दिया जाय, मैंने तो किताबों से और कुछ वरिष्‍ठ साथियों से सीखा है। इसी में तो हमारी दिलचस्‍पी है कि वे किताबें और वे वरिष्‍ठ लोग कौन हैं, जिन्‍हें पाण्‍डे जी अपना गुरू मानते हैं! ऐसी बेहूदा, सड़कछाप और मूर्खतापूर्ण शिक्षा कौन-सी पुस्‍तकें पढ़कर इस आदमी को मिली हैं, क्‍योंकि यह तो किताबों का नाम भी (एक-दो बार अपवादस्‍वरूप नहीं, बल्कि नियमत:) गलत बताता है?! जिन्‍होंने भी हमारे द्वारा पेश पाण्‍डे की आलोचना की पिछली चार किश्‍तों को पढ़ा है, वे जानते हैं कि न तो हमने जटिल शब्‍दों का इस्‍तेमाल किया है (वैसे जटिल और सरल बेहद सापेक्षिक शब्‍द हैं, जैसे पाण्‍डे के लिए क्‍या जटिल और क्‍या सरल है, यह बताना बहुत मुश्किल है) और न ही हमने आम पाठकों को आतंकित किया है, हां, पाण्‍डे जरूर आतंकित हो गया है, और उसे होना भी चाहिए। लेकिन पाण्‍डे जी यह भी झूठ बोल रहे हैं कि उनके श्रोता जब उनका दुरुस्‍त करते हैं तो वह अपनी गलती ठीक कर लेते हैं। वास्‍तव में, पाण्‍डे झूठ और कठदलीली पर उतर आता है। उसे सिर्फ मुरीदी चाहिए, कोई आलोचना करे तो उसके खिलाफ कुत्‍साप्रचार, झूठ की आंधी चला देता है। आलोचना तो छोड़ दीजिये यदि कोई तथ्‍यात्‍मक भूल भी इंगित कर दे, तो उसके सामने कठदलीली पर उतर आता है। आइये मिसाल देखते हैं। इसके यूट्यूब वीडियो संख्‍या पांच के नीचे एक श्रोता ने पाण्‍डे को दुरुस्‍त करते हुए बताया है कि बौद्ध दर्शन या चार्वाक दर्शन सामन्‍ती काल में नहीं पैदा हुए थे, सामन्‍ती काल से काफी पहले ही पैदा हो चुके थे। इस श्रोता ने स्‍वयं सामन्‍तवाद के पैदा होने का दौर थोड़ा अधिक आगे किया है, लेकिन उसकी टिप्‍पणी सही है। जब इस श्रोता को पाण्‍डे ने कहा कि उसने ऐसा नहीं बोला है, तो श्रोता ने तथ्‍य समेत दिखलाया कि पाण्‍डे ने वास्‍तव में ऐसा बोला है। फिर पाण्‍डे ने क्‍या जवाब दिया? ''असहमत''! यह है पाण्‍डे का तरीका। जब इसे कोई इसकी एकदम चुगदपने वाली गलती भी आंख में उंगली कोचकर बताता है, तो भी यह झूठ बोलता है कि उसने तो ऐसा कुछ कहा ही नहीं, फिर उसे यह साबित करके दिखलाया जाता है कि उसने कहा है, तो वह कहता है: ''असहमत''। यह है पाण्‍डे की विनम्रता की असलियत। इसी प्रकार इसके पहले वीडियो के नीचे ही एक अन्‍य श्रोता ने हमारे ही समान पाण्‍डे जी को गणना करके समझाया कि पूंजी के तीनों खण्‍ड 7 से 10 दिनों में पढ़ी नहीं जा सकती है, तो पाण्‍डे इस से ही मुकर गया कि उसने ऐसा बोला है। पाण्‍डे ने जवाब दिया है कि मैं तो यही कह रहा था कि एक हफ्ते में नहीं पढ़ी जा सकती है! जबकि सच यह है कि पाण्‍डे ने यही बोला था कि एक हफ्ते में उसने पहली बार पढ़ी थी, हालांकि समझी नहीं थी। श्रोता ने प्रश्‍न केवल पढ़ने पर उठाया था, समझने पर नहीं और उसका यही मूल तर्क था कि एक हफ्ते में नहीं पढ़ी जा सकती है। लेकिन पाण्‍डे यह मानने की बजाय कि उसने झूठ बोला था, गोलमाल कर रहा है।
लुब्‍बेलुबाब यह कि पाण्‍डे जी फिर से झूठ बोल रहे हैं कि वह बताने पर गलती ठीक कर लेते हैं। वह बताते पर गलदोदई और सीनाजोरी पर आमादा हो जाते हैं। इसलिए यह विनम्रता नकली है और इस वीडियो में अपने आपको विनम्र व गलतियां मानने के प्रति 'ओपेन' दिखाने का पाण्‍डे का मकसद यह है कि उसके द्वारा मार्क्‍सवाद के और भारतीय दर्शन के इतिहास के गुलगपाड़े की जो फजीहत पिछले कुछ दिनों में हुई है, उससे वह सचेत हो गया है और नौटंकी कर रहा है।
आखिरी बात, विवाद का मूल मुद्दा सरल और जटिल बात कभी थी ही नहीं। पाण्‍डे जी जानबूझकर यह 'फॉल्‍स बाइनरी' पैदा कर रहे हैं। मूल मुद्दा था सही और गलत का। पाण्‍डे इस पर चुप है कि पिछले चार वीडियोज़ में उसने उन विषयों पर कैसी-कैसी मूर्खतापूर्ण, गलत, अज्ञानतापूर्ण बातें कहीं हैं, किस प्रकार उसे उन विषयों के बारे में बुनियादी तथ्‍यों की भी कोई जानकारी नहीं है जिन पर स्‍टडी सर्किल लेने वह बैठा है, यानी मार्क्‍सवाद के बुनियादी सिद्धान्‍त और भारतीय दर्शन में भौतिकवादी परम्‍परा का एक संक्षिप्‍त परिचय। इनके संक्षिप्‍त या सरल होने पर कोई सवाल ही नहीं है। सवाल है इनके सही और गलत होने का। अगर ये परिचय गलत हैं, तो इसकी आलोचना सन्‍दर्भों और तथ्‍यों समेत पेश करना एक मार्क्‍सवादी समूह होने के नाते हमारा कर्तव्‍य था और हम उसी का निर्वाह कर रहे हैं।
आगे बढ़ते हैं।
पाण्‍डे जी बोलते हैं कि मैं ज्ञान अर्जन के दोरफा तरीके को सही मानता हूं। यह दिखलाता है कि पाण्‍डे जी आत्‍मविश्‍वास खो बैठे हैं और अब बस अहम्‍मन्‍यता में स्‍टडी सर्किल चलाये जा रहे हैं! पहले तो यह अपने स्‍टडी सर्किल को गलती से क्‍लास बोल गये थे, और अब अचानक इन्‍हें दो-तरफा ज्ञान अर्जन का बोधिज्ञान प्राप्‍त हो गया है! सच्‍चाई यह है कि सम्‍भवत: पाण्‍डे को भी अपने मस्तिष्‍क के आकार का आभास हो गया है और उसे पता है कि वह लाख मेहनत करके, तैयारी करके बोलने आये, कुछ न कुछ बेवकूफी की बात ज़रूर ही बोलेगा। इसीलिए यह भूमिका बनाई जा रही है कि ''भाइयों, ज्ञान लो-ज्ञान दो। अगर मैं गलत बोलूं तो आप मुझे ठीक कर दीजियेगा।'' यह बकवास पाण्‍डे के आत्‍ममुग्‍ध, अहम्‍मन्‍य और आत्‍मअंगमर्दन की पूरी शैली से मेल नहीं खाते, बस ये शब्‍द प्रतीत होते हैं, जो पाण्‍डे ने अपनी रगड़ाई बाद जोड़ने की आवश्‍यकता महसूस की है। सभी समझदार लोग यह पहले से ही समझ रहे हैं। दोतरफा चर्चा ही करनी है, तो ऑनलाइन चर्चा का आयोजन करो, अन्‍य मार्क्‍सवाद के जानकार व्‍यक्तियों को भी साथ में बिठा लो, ऐसा करोगे तो वे वहीं तुम्‍हारी मूर्खताओं का खण्‍डन कर देंगे। पहले तो पाण्‍डे जी ''मार्क्‍सवाद के अध्‍ययन का माहौल बनाऊंगा'', ''मार्क्‍सवाद मैंने काफी पढ़ा हुआ है'', ''पूंजी दो बार पढ़ रखी है'', ''रोज़ा लक्‍जेम्‍बर्ग की सम्‍पूर्ण रचनाएं अंग्रेजी में पढ़ी हैं'', आदि जैसे झूठे और घमण्‍ड भरे दावे कर रहे थे, लेकिन अब वह कह रहे हैं कि माहौल मैं नहीं बनाऊंगा, कुछ मैं बनाऊंगा, कुछ आप लोग बनाइये, जहां मैं बनाने में गलती कर दूं, वहां आप बना दीजिये। फिर पाण्‍डे जी बोलते हैं कि मैं जिनको गुरू मानता हूं, उन्‍होंने यही शैली अपनाई है और मैं भी इसे ही अपनाता है। मतलब इसके जो भी गुरू हैं, वे भी इसी के समान हैं! वैसे, ये सब नयी बातें हैं। शुरुआत में तो पाण्‍डे ने बहुत अलग प्रकार की बातें बताईं थीं। जाहिर है कि पाण्‍डे डर कर लन्‍तरानी हांक रहा है।
पाण्‍डे बोलता है कि मैं शिक्षक व विद्यार्थी वाले रिश्‍ते को नहीं मानता, बल्कि साथियों वाले रिश्‍ते को मानता हूं। लेकिन सच्‍चाई यह है कि किसी को शिक्षक मानने और उससे सीखने में कोई दिक्‍कत नहीं होती। शिक्षण की प्रक्रिया में जनवाद के साथ एक अनुशासन और केन्‍द्रीयता भी होती है। इसी वजह से मार्क्‍स, एंगेल्‍स व लेनिन ने अध्‍ययन करने और विनम्रता से विज्ञान को सीखने पर इतना बल दिया है। एंगेल्‍स ने यहां तक कहा है कि मार्क्‍सवाद एक विज्ञान है और उसे उसी प्रकार सीखा जाना चाहिए जैसे किसी विज्ञान को सीखा जाता है, यानी मेहनत, अनुशासन और विनम्रता के साथ। निश्चित तौर पर, कॉमरेड्स साथ मिलकर भी सीखते हैं, लेकिन वे उन कॉमरेड्स से विद्यार्थियों के समान अनुशासन व विनम्रता के साथ भी सीखते हैं, जो मार्क्‍सवाद के विज्ञान में अधिक पारंगत होते हैं और उन्‍हें अपना शिक्षक भी मानते हैं। यह अपने आप में कोई गैर-जनवादी चीज़ नहीं है। जनवाद का अर्थ हर मूर्ख की राय को सुनने और उसे एप्रीशियेट करने की बाध्‍यता नहीं है। समझदार लोगों का भी जनवादी अधिकार है कि वे मूर्खों की बातों की आलोचना करें और उसकी मूर्खता को अनावृत्‍त करें। ये ''सारे साथी साथ मिलकर सीखेंगे'' की बात पाण्‍डे इसलिए कर रहा है कि वह अपनी ही भावी मूर्खताओं के प्रति सशंकित और भयभीत है। इसने जानबूझकर एक ''भूल चूक लेनी देनी'' का स्टिकर अपनी ''मार्क्‍सवादी स्‍टडी सर्किल'' सड़े हुए माल के डब्‍बे की रसीद पर चिपका दी है।
असुरक्षा और भय महसूस कर रहे पाण्‍डे जी अपने भविष्‍य को सुरक्षित करने के लिए की गयी इतनी हवाबाज़ी के बाद मुख्‍य चर्चा शुरू करते हैं। हमें वह शुरू में ही बता देते हैं कि उनका भय और असुरक्षा वाजिब है। आइये देखते हैं कैसे। पाण्‍डे जी लाल बहादुर वर्मा की पुस्‍तक 'भारत की जनकथा' का नाम लेते हैं और कहते हैं कि अगर वह इसका अनुवाद करते तो वह 'पीपुल्‍स हिस्‍ट्री ऑफ इण्डिया' करते। वैसे तो हिन्‍दी में भी यह नाम किसी इतिहास की पुस्‍तक के नाम के तौर पर बहुत उपयुक्‍त नहीं है, हालांकि इतिहास की साहित्यिक प्रस्‍तुति के लिए लिखी गयी पुस्‍तक के लिए यह नाम चल सकता है। लेकिन उस सूरत में उसका अनुवाद 'पीपुल्‍स हिस्‍ट्री' नहीं होना चाहिए, लेकिन इसे हम अनुवादक की स्‍वतन्‍त्रता के तौर पर मान लेते हैं, क्‍योंकि इस पर अलग-अलग व्‍यक्तियों की अलग-अलग राय हो सकती है। लेकिन असली मोती तो पाण्‍डे जी इसके बाद लाते हैं। वह कहते हैं कि हावर्ड जिन की पुस्‍तक 'पीपल्‍स हिस्‍ट्री ऑफ दि वर्ल्‍ड' तो आपने पढ़ ही रखी होगी! अब देखिये एक ही वाक्‍य में इस आदमी ने नाजानकारी, झूठ सब घुसा दिया है। पहली बात तो इसे पता नहीं है कि 'ए पीपल्‍स हिस्‍ट्री ऑफ दि वर्ल्‍ड' हावर्ड जिन की पुस्‍तक नहीं है, क्रिस हरमन की पुस्‍तक है। हावर्ड जिन की पुस्‍तक का नाम है 'ए पीपल्‍स हिस्‍ट्री ऑफ दि यूनाईटेड स्‍टेट्स'। दूसरी बात, इसने ऐसे बोला है कि इसने यह किताब पढ़ रखी है। जब हावर्ड जिन की कोई ऐसी पुस्‍तक है ही नहीं तो पाण्‍डे ने उसे पढ़ा कैसे होगा? जाहिर है, पाण्‍डे ने फिर से झूठ बोला है!
इसके आगे पाण्‍डेप्रो. लाल बहादुर वर्मा की उपरोक्‍त पुस्‍तक से एक उद्धरण पेश करता है, जो कि यह है: ''ऋग्‍वेद में भौतिक सुखों, भौतिक गतिविधियों की बातें हैं, सभी देवता भौतिक शक्तियों की प्रतिनिधि हैं, महाभारत भौतिक शक्ति के लिए संघर्ष की बात करता है, वगैरा, इस प्रकार इन सभी ग्रन्‍थों में भौतिकता की ही बात है, भारतीय समाज धार्मिक समाज दिखाई देता है, लेकिन है नहीं। धर्म अपने आप में एक भौतिक परिघटना है, इसमें पराभौतिक तत्‍व बहुत कम हैं।'' पहली बात तो इस उद्धरण पर ही है। यह एक सटीक बात नहीं है। जिस रूप और अर्थ में धर्म एक भौतिक परिघटना है, उस रूप में उसमें कोई भी पराभौतिक तत्‍व नहीं है। थोड़ा-ज्‍यादा पराभौतिक होने की कोई बात ही नहीं है। धर्म एक भौतिक परिघटना है और पूर्ण रूप से भौतिक परिघटना है। और धर्म की विचारधारात्‍मक निर्मितियां भाववादी होती हैं, पराभौतिक अस्तित्‍व या सत्‍ता की बात करती हैं, उन निर्मितियों में अपने आप में कुछ भौतिकवादी नहीं है, हालांकि हम उन्‍हें डीकंस्‍ट्रक्‍ट करके यह देख सकते हैं कि कौन-सी निर्मितियां किन भौतिक सन्‍दर्भों में निर्मित हुई हैं, और वे जैसी हैं, वैसी ही क्‍यों हैं। यानी, जिस रूप में धार्मिक ग्रन्‍थों में टोने-टोटके, कर्मकाण्‍डों और भाववादी सत्‍ता की बात है, उसमें भौतिकवादी कुछ नहीं है, हालांकि इन निर्मितियों का एक भौतिक आधार है। चूंकि पाण्‍डे जी आगे प्रो. वर्मा की पुस्‍तक में उद्धृत 'ऋग्‍वेद' के एक श्‍लोक को पढ़ते हैं इसलिए यह जान लेना आवश्‍यक है कि स्‍वयं 'ऋग्‍वेद' को दो हिस्‍सों में बांटा जा सकता है, एक आरंभिक ऋग्‍वेद और दूसरा बाद के दौर के श्‍लोक व ऋचाएं; असल में, 'पुरुषसूक्‍त', जिसमें कि वर्ण व्‍यवस्‍था का पहली बार जिक्र किया गया है, बाद के दौर का है। उसकी निर्मिति भाववादी है, हालांकि वह एक भौतिक पदानुक्रम के वैधीकरण के लिए बनाई गई थी। 'ऋग्‍वेद' के प्राचीनतम हिस्‍से ऐसे भी हैं, जिनमें एक आद्य-भौतिकवाद को स्‍पष्‍ट रूप में देखा जा सकता है। उसकी निर्मितियां भी अनगढ़ और आदिम हो सकती हैं, लेकिन भाववादी नहीं है। जैसे-जैसे वैदिक समाज में वर्ग विभाजन सुदृढ़ होता गया, वैसे-वैसे उसके वैधीकरण के लिए विचारधाराएं भी निर्मित होती गयीं और वैसे-वैसे में उसमें पराभौतिक सत्‍ता और ईश्‍वर आदि की बातें भी आने लगीं। खैर, ऋग्‍वेद के एक श्‍लोक को प्रो. वर्मा ने कोट किया है, उसे पाण्‍डे जी पढ़ते हैं। उसमें ईश्‍वर से सारी भौतिक चीजें मांगी गयी हैं। इसके आधार पर प्रो. वर्मा कहते हैं कि हमारा समाज बेशक धार्मिक व आध्‍यात्मिक समाज दिखता है लेकिन यह भौतिक सुख-सुविधाओं का आकांक्षी समाज रहा है। यह नतीजा भी सटीक नहीं है। यदि धर्म में केवल आध्‍यात्मिक चीज़ों जैसे कि मोक्ष, आत्मिक शान्ति आदि की कामना की गयी हो, तो समाज को भाववादी मानना और अगर भौतिक सुखों की कामना की गयी हो, तो समाज को भौतिकवादी मानना, दो चीज़ों को गड्डमड्ड कर देने के समान है। धर्म भाववादी है क्‍योंकि उसका विश्‍व दृष्टिकोण भाववादी है। यदि समाज में उसका प्रभाव है और उसकी वजह से लोग भौतिक सुखों के ही लिए ईश्‍वर की स्‍तुति करते हैं, कर्मकाण्‍ड करते हैं, इत्‍यादि तो इससे उस समाज का भौतिकवादी चरित्र नहीं, बल्कि भाववादी चरित्र ही प्रकट होता है। भाववादी से भाववादी लोग अपने भौतिक अस्तित्‍व को तो बनाए रखने की चाहत रखते ही हैं, तो इससे क्‍या वह भौतिकवादी माने जाएंगे? उसके लिए वे भौतिक प्रयास भी कर सकते हैं, तो क्‍या वे भौतिकवादी माने जाएंगे? नहीं। कोई समाज वैसे भी अपने आप में भौतिकवादी या भाववादी नहीं होता है। किसी समाज में भोंड़े भौतिकवाद का अधिक असर हो सकता है तो किसी समाज में भाववाद का अधिक प्रभाव हो सकता है। जहां तक विश्‍व दृष्टिकोण का प्रश्‍न है, तो इस सच्‍चाई से इंकार नहीं किया जा सकता है कि जिन समाजों में पुनर्जागरण, धार्मिक सुधार आन्‍दोलन, प्रबोधन, वैज्ञानिक क्रान्तियां और जनवादी क्रान्तियां नहीं हुईं हैं, उनमें धर्म का प्रभाव अधिक होता है, उसमें अपने जीविकोपार्जन के लिए एकदम ठोस भौतिक गतिविधि में लगे लोग, सुख-सम्‍पत्ति की इच्‍छा रखने और उसे पूरा करने के लिए भौतिक प्रयास करने वाले लोग भी अन्‍धविश्‍वासों, टोने-टोटके का शिकार होते हैं, ताबीज़ बांधते हैं, किसी बाबा की फोटो लगाते हैं, आदि। उनका विश्‍व दृष्टिकोण ये सारी भौतिक चीज़ें करने के बावजूद भाववादी ही होता है। अगर आज कोई 'सुख-सम्‍पत्ति घर आवे' भजन गाता है, और इस रूप में भौतिक सुखों की कामना करता है, तो वह उसके भौतिकवाद को नहीं दिखलाता है। केवल सन्‍यास, मोक्ष, निर्वाण और आत्मिक शान्ति की कामना करने से कोई भाववादी नहीं होता। न ही कोई समाज इस वजह से भौतिकवादी या भाववादी माना जायेगा कि वह भौतिक सुखों की कामना रखता है या नहीं। इसलिए प्रो. वर्मा की व्‍याख्‍या सही दिशा में जाना तो चाहती है, लेकिन अतिसरलीकरण करने के प्रयासों के कारण सटीकता नहीं रखती।
लेकिन पाण्‍डे जी इससे कहीं ज्‍यादा आगे जाते हैं! पाण्‍डे जी इस गलत व्‍याख्‍या पर अपनी मूर्खता की चाशनी डाले बिना आपको अपने सड़े हुए बौद्धिक दही-भल्‍ले खिलाए बिना कैसे मानेंगे! पाण्‍डे ने इसका नतीजा यह निकाला है कि चार वर्णों की व्‍यवस्‍था में आध्‍या‍त्मिकता का डोज़ तो जनता को दिया गया लेकिन ब्राहमण व क्षत्रिय अपने लिए भौतिक सुख जुटाते रहे, जैसे पुरानी कहानियों में हम सुनते हैं कि सोने का महल था, हाथी पर चलते हैं, 50 लाख की सेना है, सोने के गद्दे (??) पर सोते हैं, तो ये सब भौतिक सुख ही तो है। तो राजनय वर्ग तो सुखसुविधा में जीता था, उसको हासिल करने की फिराक में रहता था और शूद्रों को सुखसुविधा उनके लिए जुटाने का काम दे दिया गया था। उनको एक बूटी खिला दी गयी थी कि इस जनम में यह सब करोगे तो अगले जनम में खुशी मिलेगी। और कहा जाता है कि समाज धार्मिक है! पाण्‍डे जी जिस तर्क को आगे बढ़ा रहे हैं उसके अनुसार ब्राह्मण व क्षत्रिय तो भौतिक सुखों को जुटा रहे थे, तो वह भौतिकवादी थे, और एक षड्यंत्र रचकर उन्‍होंने बौद्धिकता का डोज़ आम शूद्रों व अन्‍य दमित लोगों को दे दिया, वे आध्‍यात्मिकता में फंस गये, तो वे भाववादी हो गये! कैसा मूर्खतापूर्ण तर्क है। पाण्‍डे जी को लगता है कि भौतिक सुख और सम्‍पत्ति के पीछे भागने वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय भौतिकवादी हैं, जबकि सच्‍चाई यह है कि वे भी भाववादी ही थे, टोने-टोटके और यज्ञ इत्‍यादि करते थे। तमाम राजा युद्ध में विजय के लिए, पुत्र प्राप्ति के लिए, सूखे में बारिश आदि के लिए सैंकड़ों गायों व जानवरों की बलि देकर यज्ञ करवाया करते थे; यही बात ब्राह्मण शासकों पर भी लागू होती है। भाववादी नज़रिया कोई षड्यंत्र नहीं होता। शासक वर्ग के बुद्धिजीवी आम तौर पर इन विचारधाराओं को षड्यंत्र के रूप में नहीं रचते हैं, बल्कि उनके सामूहिक वर्ग हित स्‍वयं उन्‍हें ऐसी विचारधाराओं की रचना की ओर ले जाते हैं। इसके बारे में एंगेल्‍स की यह उक्ति विशेष तौर पर ध्‍यान देने योग्‍य है:
यह सही है कि विचारधारा ऐसी प्रक्रिया है जिसे तथाकथित विचारक सचेतन रूप से पूरा करता है, लेकिन वह एक मिथ्‍या चेतना से ऐसा करता है। उसे उत्‍प्रेरित करने वाली वास्‍तविक प्रेरक शक्तियाँ उसे अज्ञात रहती हैं; अन्‍यथा यह विचारधारात्‍मक प्रक्रिया नहीं रह जाएगी। इसलिए वह मिथ्‍या या प्रतीत होने वाली प्रेरक शक्तियों की कल्‍पना करता है। चूँकि यह एक विचार-प्रक्रिया है; वह इसके रूप और अंतर्वस्‍तु दोनों को विशुद्ध चिंतन से नि:सृत करता है, चाहे स्‍वयं के या अपने पूर्ववर्तियों के। वह केवल चिंतन सामग्री के साथ काम करता है, जिसे वह चिंतन के उत्‍पाद के रूप में बिना किसी परीक्षण के स्‍वीकार करता है, और चिंतन के अधिक सुदूरवर्ती स्‍वतंत्र स्रोत के लिए और अन्‍वेषण नहीं करता; बेशक उसे ऐसा ही लगता है, कारण कि, चूँकि समस्‍त क्रियाएँ विचार के माध्‍यम द्वारा संभव बनायी जाती हैं, इसलिए उसे ऐसा लगता है कि अंतत: यह विचार पर आधारित है। (एंगेल्‍स, मेहरिंग को पत्र, 14 जुलाई, 1893)
लेकिन चूंकि पाण्‍डे जी खुद हिन्‍दी जगत में अन्‍धकार युग लाने के षड्यंत्र में लगे हुए हैं, इसलिए उन्‍हें वर्ण व्‍यवस्‍था की रचना और अध्‍यात्‍मवाद/भाववाद, ये सब शासक वर्ग के षड्यंत्र लगते हैं। पाण्‍डे जी के इस पाण्डित्‍य पर हम पिछली किश्‍त में भी लिख चुके हैं, इसलिए उसे यहां दुहराना आवश्‍यक नहीं है। आगे बढ़ते हैं।
पाण्‍डे जी ऊपर की गयी मूर्खताओं के आधार पर प्रतीत्‍य समुत्‍पाद के नियम को अपनी तरह से लागू करते हुए पुरानी मूर्खताओं के कारण के प्रभाव के रूप में नयी-नयी मूर्खता को जन्‍म देते जाते हैं। वह कहते हैं कि इसीलिए मेरा मानना है कि मार्क्‍सवादी विश्‍लेषण सामाजिक-आर्थिक स्थितियों की जांच करता है और दर्शनों की भी जांच करता है। पाण्‍डे जी कहते हैं कि उनका मानना है कि अभी दो स्‍टडी सर्किल और लगेगी जिसमें वह भारतीय दर्शन पर बात करेंगे क्‍योंकि उन्‍होंने अपनी किताब में भी लिखा है कि अगर भारतीय दर्शन परम्‍परा से जोड़कर मार्क्‍सवाद को न समझा जाय तो फायदा नहीं है, बहुत से लोग मार्क्‍स, हेगेल वगैरा को कोट कर देंगे, किसी के समझ में कुछ नहीं आयेगा! वह कहते हैं कि 'मेरा ये तरीका नहीं है, मैंने अपनी किताब में भी यही कहा है और मेरी दूसरी किताब भी डेढ़ दो महीने में छप कर आ जायेगी, उसमें भी मैंने यही कहा है। मेरा तो यही तरीका है मैं ऐसे ही बताऊंगा, आप कमेण्‍ट्स में बताइये आपको सही लगता है या गलत तो मैं उस पर अपनी बात कहूंगा!'
मतलब पाण्‍डे जी के मस्तिष्‍क पर हमारी आलोचनाओं का इतना गहरा असर पड़ा है कि बार-बार हमें कोसते रहते हैं कि तुम लोग तो उद्धरण देते हो, जटिल भाषा में बात करते हो, कुछ समझ नहीं आता है, आतंक फैल जाता है, आदि। लेकिन पाण्‍डे जी को पता नहीं है कि एक आतंक मूर्खता और अज्ञान का भी होता है जो उन्‍होंने फैला रखा है! दूसरी बात, भारतीय दर्शन से जोड़कर मार्क्‍सवाद के बारे में बात करना तो बड़ी अच्‍छी बात है। लेकिन यह करने आना भी तो चाहिए। न तो पाण्‍डे को मार्क्‍सवाद के बारे में पता है (बस याद कर लीजिये कि अतिरिक्‍त मूल्‍य के बारे में, ऐतिहासिक और द्वन्‍द्वात्‍मक भौतिकवाद के बारे में, राजनीतिक अर्थशास्‍त्र के मूलभूत सिद्धान्‍तों के बारे में पाण्‍डे की क्‍या समझदारी है) और न ही भारतीय दर्शन के बारे में (बस याद कर लीजिये कि इस आदमी ने सामन्‍तवाद को चार्वाकों व बौद्ध दर्शन के युग में घुसा दिया, प्राचीन कबीलाई गणतंत्रों को शुंग वंश के काल में घुसा दिया और चरक को गुप्‍त काल में पहुंचा दिया था)। इसलिए पाण्‍डे जानबूझकर बात को सरल-जटिल, उद्धरण देकर आतंकित करने आदि पर घुमा रहा है। असलियत यह है कि हिन्‍दी जगत के सामने इस आदमी की वज्र मूर्खता, अज्ञान, झूठ, करियरवाद बेनकाब हो रहा है, तो यह बिलबिलाकर कभी इधर तो कभी उधर भाग रहा है और बातें बना रहा है।
आगे बढ़ते हैं।
मूल चर्चा पर वापस आते हुए पाण्‍डे जी बोलते हैं कि छठीं सदी ईसा पूर्व का दौर वह दौर था जबकि दुनिया में कई जगहों पर बौद्धिक उथल-पुथल हो रही थी। इसी समय कन्‍फ्यूशियस अपना व्‍यावहारिक धर्म दर्शन देते हैं, जोरोएस्ट्रियनिज्‍म की पुस्‍तक अवेस्‍ता जिन्‍दा (???) इसी वक्‍त आई, पेरीक्‍लीज ने यूनान में एक नयी सभ्‍यता का नींव रखी और भारत में बौद्ध व जैन दर्शन पैदा हुए। इसमें फिर पाण्‍डे जी ने अपना अद्भुत इतिहास ज्ञान पेश किया है। पहली बात तो यह है कि जोरोएस्‍टर या जरथुस्‍ट्र सम्‍भवत: छठीं सदी में पैदा हुआ था, लेकिन 'अवेस्‍ता' लम्‍बे समय तक मौखिक परम्‍परा के रूप में थी, यानी जरथुस्‍ट्र से भी पहले से। जरथुस्‍ट्र ने 'अवेस्‍ता' के टेक्‍स्‍ट्स के प्रमुख हिस्‍से यास्‍ना में पांच गाथाएं जोड़ी थीं। यह शब्‍द संस्‍कृत के 'गाथा' से ही आता है और इसे समझा जा सकता है क्‍योंकि संस्‍कृत इण्‍डो-इरानियन परिवार की भाषा है और इनका एक साझा इतिहास रहा है। खैर, मूल बात यह है कि 'अवेस्‍ता जेंद' (इसमें 'जेंद' का अर्थ है व्‍याख्‍या, इसलिए मूल ग्रंथ को आम तौर पर सिर्फ 'अवेस्‍ता' कह दिया जाता है) ससानियन साम्राज्‍य के दौर में यानी तीसरी सदी ईसवी से छठीं सदी ईसवी के बीच में लिखित रूप में आई, हालांकि यह पाण्‍डुलिपि खो गयी। लेकिन पहली बार लिखित रूप में यह तभी आयी। दूसरी बात, आज जो 'अवेस्‍ता' का संस्‍करण मौजूद है, वह 9वीं से 11वीं सदी ईसवी में तैयार हुआ था और माना जाता है कि यह मूल 'अवेस्‍ता' का मात्र एक चौथाई है। ऐसा लगता है कि पाण्‍डे जी फिर से छठी सदी ईसवी और छठी सदी ईसा पूर्व में भ्रमित हो गये हैं। जिस प्रकार राहुल ने 'दर्शन-दिग्‍दर्शन' लिखा था वैसे पाण्‍डे जी को 'भ्रम-दिग्‍भ्रम' नामक पुस्‍तक लिखनी चाहिए! आखिरी बात, इस अनपढ़ आदमी को इतना तक नहीं पता है कि पारसियों की पुस्‍तक का नाम 'अवेस्‍ता जेंद' है, 'अवेस्‍ता जिन्‍दा' नहीं! पाण्‍डे को सुन लिया होता तो अवेस्‍ता जिन्‍दा होती न होती, जरथुस्‍ट्र जरूर जिन्‍दा हो गये होते! लेकिन स्‍टडी सर्किल यह ज़रूर लेगा। पाण्‍डे कहता भी है कि मैं तो ऐसे ही स्‍टडी सर्किल लूंगा!
आगे बढ़ते हैं।
पाण्‍डे जी बोलते हैं कि बौद्ध धर्म कितना अहम था यह इससे पता चलता है कि एंगेल्‍स ने 'लुडविग फायरबाख' में बौद्ध धर्म को अलग से कोट किया है और वह लिखते हैं कि महान ऐतिहासिक मोड़ों के साथ आये धार्मिक परिवर्तनों के वाहक विश्‍व धर्मों में बौद्ध धर्म, इस्‍लाम और ईसाइयत के साथ शामिल है। गलत! एंगेल्‍स का उद्धरण पहले देख लीजिये:
फ़ायरबाख़़ का यह दावा कि मानव युगों की पृथक पहचान केवल धार्मिक परिवर्तनों से ज़ाहिर होती हैसर्वथा असत्य है। महान ऐतिहासिक मोड़ केवल उन धार्मिक परिवर्तनों के साथ-साथ आये हैं, जो वर्तमान काल तक विद्यमान तीन विश्व धर्मोंबौद्ध, ईसाई तथा इस्लामसे सम्बन्धित हैं। (एंगेल्‍स, लुडविग फ़ायरबाख़ और क्‍लासिकी जर्मन दर्शन का अन्‍त)
पाण्‍डे जी ने इस पूरे उद्धरण की मनमानी व्‍याख्‍या कर दी है। पहली बात तो एंगेल्‍स ने यहां बौद्ध धर्म को उद्धृत नहीं किया है, बल्कि उसका जिक्र किया है। दूसरी बात, एंगेल्‍स यहां यह नहीं बता रहे हैं कि बौद्ध धर्म कितना महत्‍वपूर्ण है बल्कि फायरबाख की इस दलील का खण्‍डन कर रहे हैं कि हर-हमेशा महान ऐतिहासिक परिवर्तन धार्मिक परिवर्तन में अभिव्‍यक्‍त होते हैं और इस रूप में उन्‍हें धार्मिक परिवर्तनों से मापा या पहचाना जा सकता है। एंगेल्‍स बताते हैं कि ऐसा केवल इन तीन धर्मों के साथ हुआ है और इतिहास में बहुत से ऐसे प्रमाण हैं, जबकि ऐतिहासिक परिवर्तन धार्मिक परिवर्तन में अभिव्‍यक्‍त नहीं हुए हैं। एंगेल्‍स का मकसद यहां इन धर्मों का महत्‍वपूर्ण होने या न होने को रेखांकित करना नहीं है। पाण्‍डे जी का कहना है कि एंगेल्‍स के इस उद्धरण से यह साबित हो जाता है कि बौद्ध धर्म का महत्‍व केवल भारत की दार्शनिक परम्‍पराओं में नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की दार्शनिक परम्‍पराओं के लिए है। ऐसा भी एंगेल्‍स यहां कुछ नहीं कह रहे हैं। मार्क्‍स व एंगेल्‍स ने 'विश्‍व धर्म' की अवधारणा का प्रयोग अपनी कई रचनाओं में किया है, जिनसे आम तौर पर उनका अर्थ था ऐसे धर्म जो कि समूची सभ्‍यताओं और उनमें राज्‍यसत्‍ता का आधार बने। इसका इन धर्मों के दर्शन का अन्‍तरराष्‍ट्रीय महत्‍व हो जाने या न होने का कोई रिश्‍ता नहीं है। लेकिन पाण्‍डे ने 'विश्‍व धर्म' शब्‍द पढ़ा तो न्‍याय-वैशेषिक दर्शन से आगे जाने हुए 'शब्‍द प्रमाण' और 'अनुमान प्रमाण' को मिश्रित कर 'शब्‍दानुमान प्रमाण' (अन्‍दाजिफिकेशन!) का तीर चला दिया!
फिर पाण्‍डे जी बताते हैं कि बुद्ध के जीवन का वह किस्‍सा कि कैसे उन्‍होंने विभिन्‍न प्रकार के दुख देखे और फिर बाद में इन दुखों पर चिन्‍तन करते हुए कैसे उन्‍हें बोधिज्ञान की प्राप्ति हुई, इतनी बड़ी ऐतिहासिक घटना, यानी बौद्ध दर्शन के उदय की व्‍याख्‍या नहीं कर सकता है। अब देखिये कि पाण्‍डे जी इस ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि के बारे में क्‍या ढेले फेंकते हैं। पाण्‍डे जी बोलते हैं कि यह वह दौर था जब कि ब्राह्मणों व उनके कर्मकाण्‍डों का बोलबाला था, राजा भी उससे परेशान थे, मगर बोलते नहीं थे, क्‍योंकि उनकी सत्‍ता का वैधीकरण ब्राह्मण ही करते थे; व्‍यापार बढ़ रहा था, वैश्‍य वर्ग जो पैदा हुआ था (??) वह व्‍यापारी वर्ग था। राजाओं के लिए सामन्‍ती व्‍यवस्‍था को बनाए रखना जरूरी था और चार्वाकों का हमला केवल ब्राह्मणों के ऊपर नहीं बल्कि पूरी सामन्‍ती व्‍यवस्‍था पर था इसलिए उनका मामला अलग था और बौद्ध धर्म का मामला अलग है। पाण्‍डे जी जब भी इतिहास में जाते हैं, तो बौद्धिक लीद करके चले आते हैं।
पहली बात तो यह है कि बौद्ध धर्म के उदय के दौर में राजा ब्राह्मणों से दुखी थे, लेकिन उनके खिलाफ बोलते नहीं थे, यह बात ही गलत है। तथ्‍य यह है कि उस समय क्षत्रियों और ब्राह्मणों के बीच खुला संघर्ष चल रहा था और रामशरण शर्मा ने इसके बारे में चर्चा भी की है। लेकिन अभी हम यह मान लेते हैं कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच अन्‍तरविरोध थे। व्‍यापार इस दौर में बढ़ रहा था क्‍योंकि खेती द्वारा नियमित अधिशेष उत्‍पादन के बूते ही शहरीकरण और वाणिज्‍य-व्‍यापार का विकास हो रहा था। लेकिन पाण्‍डे जी का यह विचार कि वैश्‍य इस दौर में पैदा हुआ, मूर्खतापूर्ण बात है। दूसरी बात, बुद्ध के समय में वैश्‍यों का एक हिस्‍सा व्‍यापार में जाने लगा था, लेकिन वैश्‍य अभी भी मुख्‍यत: खेती में लगे थे। लेकिन असली रहस्‍योद्घाटन पाण्‍डे जी इसके बाद करते हैं। सामन्‍तवाद से इन्‍हें न जाने क्‍या प्‍यार है कि हर युग में उसे घुसेड़ देते हैं! अब इनका कहना है कि चार्वाकों का हमला पूरी सामन्‍ती व्‍यवस्‍था पर था, लेकिन बौद्ध धर्म ने पूरे सामन्‍तवाद पर हमला नहीं किया बल्कि क्षत्रिय राजाओं और वैश्‍य व्‍यापारियों को ब्राह्मणवाद का एक विकल्‍प मुहैया कराया। हमने पहले भी दिखलाया था कि इस आदमी को भारतीय इतिहास के बारे में शून्‍य जानकारी है। सामन्‍तवाद का दौर ही भारतीय इतिहास में पहली सदी ईसवी से शुरू होता है। बौद्ध धर्म के उदय का दौर वह था जिस समय कबीलाई समाज विघटित होने की प्रक्रिया में था, पहली केन्‍द्रीकृत राज्‍यसत्‍ताएं व राजतन्‍त्र पैदा हो रहे थे, हल आधारित खेती का विकास हो रहा था, और पशुधन का महत्‍व बढ़ रहा था। इस दौर में ब्राह्मणवादी कर्मकाण्‍ड इतिहास के लिए एक बाधा बन गये थे क्‍योंकि इस दौर तक कई ऐसे भी कर्मकाण्‍ड थे जिनमें कई बार हज़ारों गायों तक की बलि दी जाती थी। बौद्ध दर्शन ने सभी जीवों के प्रति अहिंसा का जो सिद्धान्‍त दिया वह उस समय के समाज की आवश्‍यकता थी। बौद्ध धर्म के उदय की ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि की चर्चा करते हुए पाण्‍डे ने एक भी काम की बात नहीं की है, बस हवाबाज़ी की है।
बौद्ध दर्शन के उदय की ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि के दो पहलू थे, जिनकी प्रो. रामशरण शर्मा और प्रो. देवीप्रसाद चट्टोपाध्‍याय ने विशेष तौर पर चर्चा की है। पहला पहलू, जिसकी ओर विशेष तौर पर प्रो. शर्मा ने ध्‍यानकर्षण किया है, वह है एक नयी आर्थिक व्‍यवस्‍था और राजनीतिक व्‍यवस्‍था का उदय, जिसकी बुनियाद में हल आधारित खेती की व्‍यवस्‍था थी। प्रो. चट्टोपाध्‍याय ने इसके दूसरे पहलू की चर्चा की है, जो था कबीलाई समाज का पतन और उसके साथ समानता, भाईचारे और स्‍वतंत्रता के दौर का समापन और एक वर्ग समाज का उदय। इसके साथ बौद्ध दर्शन ने सामूहिक स्‍मृति में मौजूद समानता की भावना के पतन पर एक रूमानी अतीतोन्‍मुखी यूटोपिया पेश किया जो कि बुद्ध के संघों में रूप में सामने आया। इन दोनों विद्वानों ने बौद्ध धर्म के उदय की ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि के विषय में जो लिखा है, उसे बेहद संक्षेप में पेश किया जा सकता है और इसके लिए किसी विशेष प्रतिभा या पाण्डित्‍य की कोई आवश्‍यकता नहीं है। आइये देखते हैं कि इन दोनों विद्वानों ने इस पर क्‍या लिखा है।
प्रो. चट्टोपाध्‍याय लिखते हैं:
''इस प्रकार बौद्धकाल एक ऐसा युग था जब जनजातीय संगठनों के गर्भ में राज्य संगठनों का विकास होना आरम्भ हुआ था और मागधों तथा कौशलों के सन्दर्भ में वे जनजातीय संगठनों के अवशेषों पर पहले ही उद्भूत हो चुके थे। किंतु ये दो राजसत्ताएं अब भी जनजातीय समाज से घिरी हुई थीं। जैसाकि हम देखेंगे कि इन जातियों का स्वतंत्र अस्तित्व बहुत अधिक समय तक नहीं रह सका। इस दृष्टि से बुद्धकाल में गंगा की घाटी में अत्यंत महत्वपूर्ण सामाजिक उथल पुथल हुई।'' (देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, ‘लोकायत’, 371)
आगे प्रो. चट्टोपाध्‍याय लिखते हैं:
''इसलिए बुद्ध के संदेश की वास्तविक सफलता को समझने के लिए इस बात को स्पष्ट रूप से जान लेना आवश्यक है कि जनजातीय समाज के अवशेषों पर राजसत्ता के उदय से जनजातीय जीवन के पुराने मूल्य नष्ट हो गये होंगे।'' (देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, ‘लोकायत’, 377)

और देखें:
''इस बात के पक्ष में दो स्पष्ट आधार हैं। पहला, बौद्ध काल की परंपरा में उस विलुप्त सामूहिक जीवन की स्मृति सदा बनी रही जिसे अतीत का स्वर्ण युग समझा जाता था। दूसरा जो जनजातीय लोकतांत्रिक व्यवस्था तब भी विद्यमान थी, उसी के ढंग पर बहुत सोच समझकर बुद्ध अपने संघ को रूप दे रहे थे। इन दो आधारों में से दूसरा आधार निर्णायक है, यद्यपि पहले आधार का भी अपना ही महत्व है।'' (देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, ‘लोकायत’, 379)

प्रो. चट्टोपाध्‍याय विस्‍तार से समझाते हैं:
''इस प्रकार भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण चरण में उस समय की स्वतंत्र जनजातियों को बड़ी निर्दयता के साथ समाप्त किया जा रहा था और विस्तृत हो रही राजसत्ताओं के अंदर लोग पुरानी जनजातीय क्षमता के अवशेषों पर नये मूल्यों को उदय होते देख रहे थे, और इधर दूसरी ओर बुद्ध अपने संघ को जनजातीय समाज के मूल सिद्धान्तों के अनुरूप बना रहे थे और भिक्षुओं को परामर्श दे रहे थे कि वे इन्हीं सिद्धान्तों के अनुसार अपने अपने जीवन को ढालें। यह एक प्रमुख बात है। अपने संघों का निर्माण करते हुए बुद्ध को अपने काल के लोगों को जनजातीय सामूहिक जीवन की विलुप्त हो रही सभ्यता का एक विकल्प देने का अवसर मिल रहा था। केवल बुद्ध जैसा अति विलक्षण प्रज्ञा का धनी व्यक्ति ही ऐसा तर्कसंगत और पूर्ण विभ्रम निर्मित कर सकता था।'' (देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, ‘लोकायत’, 383)

बौद्ध दर्शन के उदय की ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि के विषय में अपने तर्कों का समाहार करते हुए प्रो. चट्टोपाध्‍याय लिखते हैं:
''बुद्ध का युग एक ऐसा युग था जिसमें उत्पादन शक्ति के विकास के परिणामस्वरूप भारत के उत्तरी क्षेत्रों में जनजातीय समाज के भग्नावशेषों पर क्रूर राजसत्ता का उदय हो रहा था। व्यापार और युद्ध से साधारण जन का जीवन इतना दयनीय हो चुका था जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती; निजी संपत्ति बटोरने के लोभ की कोई सीमा नहीं रही। फिर भी उत्पादक शक्तियाँ इतनी विकसित नहीं हुई थीं कि सबकी आवश्यकताएँ पूरी हो सकें। इसकी बजाय उत्पादक शक्तियों के और विकास से जहाँ अंततः वास्तविक सुख मिल सकता था वहाँ यह भी निश्चित था कि और अधिक क्रूरता के साथ शोषण हुआ होगा और इसके साथ ही लोगों की और दुर्दशा हुई होगी। ऐसी परिस्थियों में उस परिस्थिति को, जिसके लिए विभ्रम की आवश्यकता हो, छोड़ देने की मांगऐतिहासिक दृष्टि से बड़ी हास्यास्पद थी। दूसरा विकल्प, वास्तव में उस समय के अनुरूप एकमात्र संभव विकल्प यही था, कि उस युग के लिए सही ढंग का भ्रम उत्पन्न किया जाये जो उसकी सांत्वना तथा औचित्य के लिए उत्साह, नैतिक अनुमोदन, समग्रता का सार्वभौम आधार बने।और बुद्ध ने ऐसा ही भ्रम उत्पन्न किया, ‘एक विवेकहीन स्थिति के लिए विवेकका सृजन किया।'' (देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, ‘लोकायत’, 394)

अब देखते हैं कि प्रो. रामशरण शर्मा ने बौद्ध दर्शन के उदय की भौतिक पृष्‍ठभूमि के विषय में क्‍या लिखा है। प्रो. शर्मा लिखते हैं:
''लेकिन इन नए धर्मों का वास्‍तविक कारण उत्तर-पूर्वी भारत में एक नई कृषि अर्थव्‍यवस्‍था के प्रसार में निहित था।'' (रामशरण शर्मा, इंडियाज़ एंशंट पास्‍ट)
प्रो. शर्मा आगे लिखते हैं:
जैसा कि हमने देखा है, ब्राह्मणवादी समाज में वैश्‍यों की स्थिति ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बाद तीसरे स्‍थान पर थी। स्‍वाभाविक रूप से वे एक ऐसे धर्म की खोज में थे जो उनकी स्थिति में सुधार लाता। क्षत्रियों के अलावा, वैश्‍यों ने महावीर और गौतम बुद्ध दोनों को उदारतापूर्वक सहयोग किया। व्‍यापारी, जिन्‍हें सेट्टी कहा जाता था, गौतम बुद्ध और उनके शिष्‍यों को मूल्‍यवान उपहार देते थे। इसके कई कारण थे। पहला, आरंभिक अवस्‍था में जैन और बौद्ध दोनों ही धर्मों ने अस्तित्वमान वर्ण व्‍यवस्‍था को कोई महत्‍व नहीं दिया। दूसरे, वे अहिंसा का उपदेश देते थे जिससे अलग-अलग राज्‍यों के बीच युद्धों का अंत हो जाता और परिणास्‍वरूप वाणिज्‍य और व्‍यापार को बढ़ावा मिलता। तीसरे, ब्राह्मण संहिताएँ, जिन्‍हें धर्मसूत्र कहा जाता था, ब्‍याज पर धन उधार देने की निंदा करती थीं, और ब्‍याज पर जीने वालों की भर्त्‍सना करती थीं। इसलिए, अपने फलते-फूलते वाणिज्‍य-व्‍यापार के कारण धन उधार देने वाले वैश्‍यों को नीची निगाह से देखा जाता था और वे अपनी सामाजिक स्थिति बेहतर बनाना चाहते थे।
(उपरोक्‍त)
और देखें:
दूसरी ओर, हम निजी संपत्ति के विभिन्‍न रूपों के विरुद्ध कठोर प्रतिक्रिया भी देखते हैं। पुराने विचारों के लोग सिक्‍कों के प्रयोग और संचय को पसंद नहीं करते थे जो निश्‍चय ही चांदी और तांबे के, और संभवत: सोने के बने होते थे। वे नये घरों और कपड़ों, परिवहन की नई विलासितापूर्ण व्‍यवस्‍थाओं और युद्ध तथा हिंसा को नापसंद करते थे। संपत्ति के नये रूपों ने सामाजिक असमानताएँ पैदा कीं, और जनसाधारण के लिए निर्धनता और दुख-तकलीफ़ लेकर आये। इसलिए आम लोग आदिम जीवनशैली की ओर, उस सादगीपूर्ण आदर्श की ओर लौटने की चाह रखते थे जो संपत्ति के नये रूपों और नयी जीवन शैली के आने के साथ लुप्‍त हो गया था। जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म सीधे-सादे, शुद्धतापूर्ण, संयमी जीवन का विचार प्रतिपादित करते थे।” (उपरोक्‍त)
जैसा कि आप देख सकते हैं, पाण्‍डे जी ने बौद्ध धर्म के उदय की भौतिक पृष्‍ठभूमि के विषय में कोई ठोस अध्‍ययन किये बिना हवा छोड़ दी है और हमेशा की तरह सामन्‍तवाद को यहां भी पहुंचा दिया है, जबकि जिस भौतिक पृष्‍ठभूमि में बौद्ध दर्शन का उदय हुआ उसका सामन्‍तवाद से दूर-दूर तक कोई लेना-देना ही नहीं था।
इसके बाद पाण्‍डे जी बौद्ध दर्शन के मुख्‍य सिद्धान्‍तों पर आते हैं। इस मामले में इन्‍होंने सिर्फ राहुल की पुस्‍तक से टीपा-टीपी कर दी है। अगर आप इस विषय पर स्‍टडी सर्किल ले ही रहे थे, तो आपको कुछ पुस्‍तकों को और पढ़ लेना चाहिए था। ऐसा न करने की वजह से पाण्‍डे जी ने एक पुस्‍तक से बनाया गया अपना खर्रा पढ़ कर सुना दिया है। लेकिन पाण्‍डे जी ने यह खर्रा भी ठीक से नहीं बनाया है। बौद्ध धर्म के मूल सिद्धान्‍त क्‍या थे, जैसे कि आठ सम्‍यकों का सिद्धान्‍त, प्रतीत्‍य समुत्‍पाद का सिद्धान्‍त, इत्‍यादि, किसी भी पाठ्यपुस्‍तक से पढ़ कर सुनाया जा सकता है। पाण्‍डे जी ने बस वही पढ़कर सुना दिया है। वह बताते हैं कि बुद्ध मध्‍यमार्ग बताते हैं, ईश्‍वर की सत्‍ता का नकार करते हैं, विचारधारात्‍मक तौर पर वर्ण व्‍यवस्‍था का नकार करते हैं। फिर पाण्‍डे जी ने शुरू में जो सुरक्षाबोध और फिर से फजीहत करवाने के प्रति चिन्‍ता प्रकट की थी, उसे कुछ समय के लिए खो बैठते हैं। वह कहते हैं कि अगर ''मजेदार तरीके से सोचा जाय'' (जब से पाण्‍डे जी का स्‍टडी सर्किल शुरू हुआ है, तब से ''मजेदार तरीके से सोचने'' के अलावा रास्‍ता ही क्‍या बचा है!?) तो मुझे ईश्‍वर की अवधारणा अफसर की अवधारणा से मिलती हुई लगती है। जैसे कि हम ईश्‍वर को खुश करने में लगे रहते हैं, रिश्‍वत देने में लगे रहते हैं कि वह नाराज न हो जाये, हमें तकलीफ न दे, हमारा बुरा न कर दे! उसी प्रकार हम अफसरों को भी खुश करने के लिए रिश्‍वत से लेकर सारे यत्‍न करते हैं, ताकि वह नाराज़ न हो जाये, हमारा खराब जगह ट्रांसफर न कर दे, इत्‍यादि! माने कि पाण्‍डे जी ने अपनी स्‍वानुभूति का अति-सामान्‍यीकरण कर दिया है। यह स्‍वानुभूति दो प्रकार की हो सकती है: एक तो यह कि पाण्‍डे जी अपने आपको ही ईश्‍वर समझते हैं और अपने अधीनस्‍थों के साथ ऐसा बर्ताव करते हैं। या फिर उनके ऊपर के अफसरों ने पाण्‍डे जी को भक्‍त बनाकर ठीक से उनकी लगाई है! यह हम पाठकों पर छोड़ देते हैं कि पाण्‍डे जी के साथ क्‍या हुआ होगा। दिक्‍कत यह है कि पाण्‍डे जी दर्शन के स्‍थान पर कॉमन सेंस को रख देते हैं। पाण्‍डे जी की प्रवृत्ति के अनुसार भारत के बच्‍चों को छोड़कर बाकी 90 करोड़ से 1 अरब लोग दार्शनिक हैं! जैसे कि पाण्‍डे जी हैं! फिर पाण्‍डे जी बोलते हैं कि हमने ईश्‍वर को ऐसी ही ''एण्‍टाइटी'' (??!!) बना दिया है। इसकी वजह से कार्य-कारण सम्‍बन्‍ध नज़रों से ओझल हो जाता है। बुद्ध का कार्य-कारण सम्‍बन्‍ध को बताने वाला प्रतीत्‍य समुत्‍पाद का सिद्धान्‍त इसी को उजागर करता है।
अब देखिये कि पाण्‍डे जी इस सिद्धान्‍त को समझाने में बुद्ध की किस प्रकार मदद करते हैं। पाण्‍डे जी कहते हैं कि मान लीजिये कि हमें बुखार हो गया, तो हम पैरासिटामोल खा लेते हैं तो माने कि हम समझ गये कि बुखार का कारण क्‍या है और फिर हमने उसका निवारण कर दिया, यानी पाण्‍डे जी के अनुसार जो cause और affect (??!!) है उसको हम समझ गये और ईश्‍वर की आवश्‍यकता समाप्‍त हो गयी। यह इतना बचकाना तर्क है कि इसका खण्‍डन करने की कोई आवश्‍यकता नहीं है, लेकिन फिर भी इसके बारे में दो शब्‍द। इस स्‍तर के कार्य-कारण सम्‍बन्‍ध को जो मानते हैं, वे भी ईश्‍वर में यकीन करते हैं। यहां तक कि न्‍यूटन भी ईश्‍वर में यकीन करते थे। उनका कहना था कि प्रकृति कुछ नियमों के तहत काम करती है, ईश्‍वर ने एक दफा बस इस मैकेनिज्‍म को चालू कर दिया है, और उसके बाद प्रकृति इन्‍हीं नियमों के अनुसार चलती रहती है। भारत के वैज्ञानिक तो पीएसएलवी को भी तिलक करवाने के लिए पहले बालाजी ले जाते हैं। लेकिन सच्‍चाई यह है कि इस स्‍तर का कार्य-कारण सम्‍बन्‍ध समझने से ईश्‍वर का नकार नहीं होता है। ईश्‍वर के अस्तित्‍व का आधार एक ओर तो आदिम युग में अज्ञान था और वर्ग समाज में असुरक्षा, अनिश्चितता, दमन, उत्‍पीड़न और शोषण है। जब तक ये चीज़ें रहेंगी, तब तक पूंजीवादी समाज में रोज़मर्रा के जीवन में लोग पैरासिटामोल खाकर बुखार भगाने जितना कार्य-कारण सम्‍बन्‍ध की समझदारी विकसित कर लेंगे और ईश्‍वर की सत्‍ता को अपने आप में इससे कोई खतरा नहीं है। बुद्ध के प्रतीत्‍य समुदत्‍पाद ने कार्य-कारण सम्‍बन्‍ध की जो समझदारी दी थी, वह इससे कहीं ज्‍यादा गहरी और व्‍यापक थी और पाण्‍डे के पिग्‍मी दिमाग ने इसे पैरासिटामोल पर लाकर खत्‍म कर दिया! अब आप देख सकते हैं कि इतना अपढ़ और बौना आदमी स्‍टडी सर्किल लेने लग जाय तो वह क्‍या गुल खिलाएगा।
इसके बाद पाण्‍डे जी बताते हैं कि बुद्ध का यह सिद्धान्‍त हर चीज़ की क्षणभंगुरता के सिद्धान्‍त पर ले जाता है और यह सिद्धान्‍त ईश्‍वर और इस प्रकार वर्ण व्‍यवस्‍था पर भी चोट करता है। यही सही बात है, हालांकि इस पर और स्‍पष्‍टता से चर्चा हो सकती थी। लेकिन इसके बाद पाण्‍डे जी पूछते हैं कि क्‍या इन चीज़ों के आधार पर बौद्ध दर्शन को भौतिकवादी कहा जा सकता है? पाण्‍डे जी स्‍वयं ही जवाब देते हैं: नहीं! लेकिन यह सटीक बात नहीं है। दरअसल पाण्‍डे जी ने बौद्ध दर्शन पर वीडियो बनाने के लिए बस सरसरी निगाह से राहुल सांकृत्‍यायन की पुस्‍तक 'दर्शन दिग्‍दर्शन' को उलट-पलट लिया है और अपने खर्रे बना लिये हैं। लेकिन अगर उन्‍हें इस विषय पर स्‍टडी सर्किल लेनी ही थी तो कम-से-कम उन्‍हें बताना चाहिए था, कि इस विषय पर एक मतान्‍तर है, जिसमें राहुल की अवस्थिति मार्क्‍सवादी दृष्टिकोण से सन्‍तुलित नहीं है। राहुल ने अपनी पुस्‍तक में दर्शन की विभिन्‍न शाखाओं में मूल बंटवारा ईश्‍वरवाद और अनीश्‍वरवाद के बीच बताया है, जिसमें से बौद्ध दर्शन को अनीश्‍वरवादी भाववाद/अभौतिकवाद की श्रेणी में रखा है। याद रखें यहां हम बुद्ध के दर्शन की बात कर रहे हैं, न कि बाद के बौद्ध दर्शन की भाववादी धाराओं की, जैसे कि महायान बौद्ध दर्शन। बुद्ध के दर्शन में देवीप्रसाद चट्टोपाध्‍याय के अनुसार भौतिकवाद की एक आदिम और प्रारंभिक किस्‍म की अभिव्‍यक्ति है। देवीप्रसाद के इस उद्धरण पर गौर करें:
''किंतु इस बौद्ध कथा के संबंध में विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसमें कहीं भी ईश्वर या सृजनकर्ता के लिए कोई स्थान नहीं है। सारी कथा में घोर भौतिकवादी दृष्टिकोण की प्रमुखता है यद्यपि यह आदिम भौतिकवाद था।'' (देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, ‘लोकायत’, 381)

इसी प्रकार बौद्ध दर्शन में जो आरंभिक धाराएं थीं, जैसे सौत्रान्तिक व वैभाषिक, वे भी भाववाद-विरोधी थीं और एक प्रकार के आदिम भौतिकवाद का ही प्रतिनिधित्‍व करती थीं। देखिये प्रो. चट्टोपाध्‍याय इसके बारे में क्‍या लिखते हैं:
''श्रीलाभ और उनके दर्शनवेत्ता-बांधव सौत्रांतिक बौद्धों के रूप में प्रसिद्ध हैं। श्रीलाभ का जन्म नागार्जुन से कुछ पहले हुआ था। सौत्रांतिक मत बौद्ध दर्शन का एक प्रारंभिक रूप है, जो आदर्शवाद के प्रति अपने विरोध-भाव के कारण महायानी आदर्शवादियों के आक्रमण का अत्यंत महत्वपूर्ण लक्ष्य बन गया।''
(देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, ‘भारतीय दर्शन में क्या जीवंत है और क्या मृत’, 213)

और देखें:
''लगभग 7वें-8वें ईसवी सन् में शुभगुप्त हुए। वह वैभाषिक बौद्धों के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनकी मुख्य कृति का लक्ष्य आदर्शवाद कीविशेष रूप से विज्ञानवाद कीधज्जियाँ उड़ाना है।''
(देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, ‘भारतीय दर्शन में क्या जीवंत है और क्या मृत’, 214)
और यह भी:
''शुभगुप्त की बाह्यार्थ-सिद्धि की प्रमुखता का कारण यह है कि वह आदर्शवाद का खंडन करती है। उसके नाम से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि यह कृति बाह्य वस्तुओं अथवा इतर-मनोगत वस्तुओं की वास्तविकता को प्रमाणसम्मत मानती है, अथवा, हम भारतीय परंपरा के अनुसार कहें तो, बाह्यार्थ-सिद्धि की परिकल्पना के अनुसार दृश्य जगत की वस्तुओं पर ही हमारा ज्ञान आधारित है। शुभगुप्त ने अपनी पुस्तक में विज्ञानवाद का तर्कसंगत खंडन प्रस्तुत किया है। विज्ञानवादी अपने विषय को प्रमाणित करने का एक महत्वपूर्ण उपाय चूंकि परमाणुवाद का खंडन मानते हैं, इसलिए शुभगुप्त द्वारा आदर्शवाद के खंडन में परमाणुवाद का समर्थन सन्निहित है। इसका तात्पर्य यह कि बाह्य जगत को, जिसकी वास्तविकता सिद्ध करने को वह इतने उत्सुक हैं, शुभगुप्त मूलतः भौतिक मानते हैं। कारण यह कि परमाणुओं की सत्ता स्पष्ट ही भौतिक है।'' (देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, ‘भारतीय दर्शन में क्या जीवंत है और क्या मृत’, 216)

इसी प्रकार प्रो. चट्टोपाध्‍याय कहते हैं:
''मेरा उद्देश्‍य प्रचीन भारतीय दर्शन में सभी भौतिकवादी प्रवृत्तियों के सम्‍यक अध्‍ययन का प्रयास करना नहीं रहा है; बल्कि मैं उस पर केंद्रित करना चाहता था जिसे प्राचील ग्रंथों में विशिष्‍ट रूप से लोकायतकहा गया है। जैसे, उदाहरण के तौर पर, वैशेषिकों और सर्वस्तिवादी बौद्धों के परमाणुवाद में भारतीय भौतिकवाद के महत्‍वपूर्ण तत्‍व मिलते हैं।'' (डी. पी. चट्टोपाध्‍याय, 'लोकायत', भूमिका, पृ. xv, अंग्रेज़ी संस्‍करण)

लुब्‍बेलुबाब यह कि बौद्ध धर्म को सीधे पूर्णत: भौतिकवाद से रिक्‍त बताना, उसे पूर्णत: अभौतिकवादी या भाववादी बताना एक सन्‍तुलित दृष्टिकोण नहीं है। बौद्ध दर्शन के कुछ अन्‍तर्निहित अन्‍तरविरोध थे। वह विचारधारात्‍मक धरातल पर भाववाद और ब्राह्मणवाद को चुनौती देता था। उसने शुरुआती दौर में बहुत बड़े पैमाने पर शूद्रों, दासों, ऋणी लोगों को आकृष्‍ट भी किया। लेकिन जैसे ही बौद्ध धर्म राजकीय धर्म बनने लगा, वैसे-वैसे बुद्ध के जीवन-काल से ही उसमें तमाम समझौतों की शुरुआत हो गयी। इसकी वtह से बौद्ध धर्म ने वास्‍तविक और भौतिक सामाजिक व आर्थिक स्‍तर पर वर्ग शोषण को चुनौती नहीं दी। चट्टोपाध्‍याय के अनुसार, यह युग द्वारा उपस्थित की गयी सीमाएं थीं, न कि बौद्ध दर्शन में जैविक तौर पर उपस्थित सीमाएं। ऐसा इसलिए नहीं था कि बौद्ध दर्शन बुद्ध के ही काल में राजाओं और व्‍यापारियों का संरक्षण प्राप्‍त करने लगा था, इसीलिए बुद्ध ने जानबूझकर भाववाद को अपने दर्शन में घुसा दिया। यह उस युग की सीमा थी। प्रो. चट्टोपाध्‍याय लिखते हैं: 
''किंतु आरंभिक बौद्ध धर्म के प्रति ये दोनों दृष्टिकोण ऐतिहासिक दृष्टि से संतोषजनक नहीं हैं। यह सच है कि आरंभिक दिनों से ही बौद्ध धर्म को राजाओं और व्यापारियों का संरक्षण तथा प्रोत्साहन मिला हुआ था। यह भी सच है कि बुद्ध के अग्रणी साथियों में उस समय के बहुत से संपन्न और कुलीन परिवारों के लोग थे। इसके अलावा जैसाकि हम देखेंगे, बौद्ध धर्म ने मगध साम्राज्य और मगध के व्यापार के विस्तार में सहायता भी की। फिर भी बौद्ध धर्म में केवल यही बातें थीं, ऐसा विचार बड़ा अपरिपक्व होगा। अन्य शब्दों में, बौद्ध तो अनजाने ही इतिहास का एक साधन मात्र बन गये थे और बुद्ध धर्म की स्थापना ही ऐसी परिस्थितियों में हुई थी कि उसे भारतीय इतिहास में संभवतः सबसे बड़ा सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन बनना था। राजाओं और व्यापारियों का संरक्षण इतना अधिक नहीं था कि वह इस की उल्लेखनीय सफलता का मूल आधार बनता। क्योंकि बौद्ध धर्म के पवित्र ग्रंथों ने इस धर्म के अनुयायियों में साधारण जनों की संख्या भले ही बढ़ा चढ़ा कर दी गयी हो तो भी इस तथ्य को मानना ही होगा कि जनसाधारण इस धर्म की ओर आकृष्ट तो हुआ ही था। हो सकता है कि वर्गभेद अर्थात जात-पात प्रणाली के कारण होने वाले अन्याय या ब्राह्मणों के कर्मकांड की निरर्थकता के प्रति बुद्ध के विचारों के कारण ही साधारण जन इसकी ओर आकृष्ट हुए हों। किंतु प्रारंभिक बौद्ध धर्म की सफलता का वास्तविक कारण नहीं और खोजना होगा।'' (देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, ‘लोकायत’, 367-68)

आगे प्रो. चट्टोपाध्‍याय लिखते हैं:
''इस प्रकार भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण चरण में उस सभय की स्वतंत्र जनजातियों को बड़ी निर्दयता के साथ समाप्त किया जा रहा था और विस्तृत हो रही राजसत्ताओं के अंदर लोग पुरानी जनजातीय क्षमता के अवशेषों पर नये मूल्यों को उदय होते देख रहे थे, और इधर दूसरी ओर बुद्ध अपने संघ को जनजातीय समाज के मूल सिद्धान्तों के अनुरूप बना रहे थे और भिक्षुओं को परामर्श दे रहे थे कि वे इन्हीं सिद्धान्तों के अनुसार अपने अपने जीवन को ढालें। यह एक प्रमुख बात है। अपने संघों का निर्माण करते हुए बुद्ध को अपने काल के लोगों को जनजातीय सामूहिक जीवन की विलुप्त हो रही सभ्यता का एक विकल्प देने का अवसर मिल रहा था। केवल बुद्ध जैसा अति विलक्षण प्रज्ञा का धनी व्यक्ति ही ऐसा तर्कसंगत और पूर्ण विभ्रम निर्मित कर सकता था।'' (देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, ‘लोकायत’, 383)
अन्‍त में प्रो. चट्टोपाध्‍याय लिखते हैं:
''इस प्रकार बुद्ध ने अपने युग की सबसे विकट समस्या को पूर्णतया मनोगत स्वरूप प्रदान कर दिया; उन्होंने अपने काल के अन्य प्राणियों के ठोस भौतिक दुख को शाश्वत दुख के सार्वभौम सिद्धान्त में बदल दिया और इसे एक प्रकार का भावात्मक या तत्वमीमांसीय दुख बना दिया।'' (देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, ‘लोकायत’, 398)
लेकिन पाण्‍डे जी ने बस राहुल की किताब उठाकर टीपा-टीपी कर दी है, जबकि एक संक्षिप्‍त परिचय देते हुए भी इतने बड़े मुद्दे पर भारतीय दर्शन परम्‍परा के दो बड़े विद्वानों प्रो. चट्टोपाध्‍याय और राहुल के बीच के मतान्‍तर का जिक्र करना अनिवार्य था, विशेष तौर पर इसलिए क्‍योंकि इस प्रश्‍न पर प्रो. चट्टोपाध्‍याय का दृष्टिकोण मार्क्‍सवादी अप्रोच से ज्‍यादा सन्‍तुलित है। लेकिन पाण्‍डे जी ने राहुल की पुस्‍तक को उलट-पलट कर कर दिया स्‍टडी सर्किल! पाण्‍डे जी राहुल के इस दृष्टिकोण को शब्‍दश: कोट करते हैं (और बताते भी नहीं हैं कि ये राहुल के शब्‍द हैं! बौद्धिक चोरी करना पाण्‍डे जी की आदत है, यह हम आपको तब भी दिखलाएंगे, जब इनकी पुस्‍तक 'कश्‍मीरनामा' की आलोचना पेश करेंगे) कि बुद्ध को अपने ध्‍यान, समाधि और ब्रह्मचर्य के सिद्धान्‍त को भौतिकवाद से ख़तरा लगा और यही वजह है कि बुद्ध ने अपने दर्शन को अनात्‍मवादी अभौतिकवाद की श्रेणी में रखा था। यह अवस्थिति गलत है, जैसा कि हम ऊपर दिखला चुके हैं। लेकिन पाण्‍डे जी को तो स्‍टडी सर्किल अभी ही करनी थी क्‍येांकि गैप ज्‍यादा हो गया था, तो बस उन्‍होंने लीद कर दी।
इसके बाद पाण्‍डे जी कहते हैं‍कि बुद्ध का मध्‍यमार्ग दरअसल समझौतों की वजह से पैदा हुआ था और वह दुखों का समाधान आध्‍यात्मिक दुनिया में करता है और वास्‍तविक दुनिया में उसका कोई समाधान नहीं बताता। इसके लिए वह दुखों को सबके लिए समान बताते हैं, जबकि वर्ग विभाजित समाज में ऐसा नहीं होता है। यह बात मोटे तौर पर ठीक है लेकिन प्रो. चट्टोपाध्‍याय के अनुसार यह केवल एक पहलू है। दूसरा पहलू बुद्ध के युग की सीमाएं थीं, और वह ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण सीमा थी। इसीलिए प्रो. चट्टोपाध्‍याय कहते हैं कि कोई पैगम्‍बर और महान शिक्षक भी अपने युग की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता है। लेकिन पाण्‍डे जी इनके बारे में कुछ नहीं समझते क्‍योंकि उन्‍होंने आनन-फानन में एक किताब उठाई और जल्‍दबाज़ी में खर्रे बनाकर हवाबाज़ी कर दी।
इसके बाद पाण्‍डे जी कहते हैं कि उपरोक्‍त कमज़ोरियों की वजह से ही बौद्ध धर्म का पतन होता गया, उसमें तंत्र-मंत्र, टोना-टोटका सब घुस गया। हालांकि, पाण्‍डे जी का इन कमज़ोरियों और कारणों का विश्‍लेषण दरिद्र है, लेकिन वह साथ में यह कहते हैं कि इस पतन की प्रक्रिया को समझने के लिए उनका ''ऑल टाइम फेवरिट'' उपन्‍यास है शिवप्रसाद सिंह का उपन्‍यास 'नीला चांद'। यह सच है कि इस उपन्‍यास में इस पतन की प्रक्रिया का चित्रण है। लेकिन शिवप्रसाद सिंह की विचारधारात्‍मक अवस्थिति को देखते हुए यह अलग से एक चर्चा का विषय बनता है कि किसी मार्क्‍सवादी होने का दावा करने वाले के लिए यह ''ऑल टाइम फेवरिट'' उपन्‍यास कैसे हो सकता है। लेकिन यह परिधिगत मसला है, इसे छोड़ देते हैं।
इसके बाद पाण्‍डे जी दावा करते हैं कि अम्‍बेडकर द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने के बाद बौद्ध धर्म के पुनरुद्धार की उम्‍मीदें पैदा हुईं, मगर ऐसा नहीं हो सका और मैंने बहुत से बौद्ध मन्दिरों का दौरा किया है और वहां कुछ सीखने योग्‍य नहीं था। हमने सोचा कि बौद्ध मन्दिरों ने भी पाण्‍डे जी की 'विजिट' पर ऐसा ही सोचा होगा! बहरहाल, यह उम्‍मीद करना ही मूर्खतापूर्ण है कि अम्‍बेडकर द्वारा बौद्ध धर्म को अपनाने से इसका उद्धार होने की कोई सम्‍भावना थी। इसकी वजह यह है कि अम्‍बेडकर का द‍ृष्टिकोण खुद ही धर्म के विषय में बेहद भाववादी था और वह उन्‍होंने जॉन ड्यूई के 'कॉमन फेथ' नामक लेख से लिया था। वह यह था कि मानव समाज को एक साझा आस्‍था की आवश्‍यकता होती है, जो कि जनवाद, स्‍वतन्‍त्रता आदि के विचारों में भरोसा करती हो। उन्‍होंने कहा था जब मैं सारनाथ गया तो एक आध्‍यात्मिक ट्रांस में चला गया था। जब अम्‍बेडकर ने लाखों महारों के साथ बौद्ध धर्म में धर्मान्‍तरण किया था, तो ही सभी संजीदा प्रेक्षक जानते थे कि न तो इससे दलितों का भला होने वाला है और न ही बौद्ध धर्म का। लेकिन पाण्‍डे जी न जाने किस ट्रिप पर हैं। बहरहाल, पाण्‍डे जी अन्‍त में कहते हैं कि ''मेरी यह समझदारी है कि बौद्ध धर्म ने शोषण की मूल व्‍यवस्‍थाओं पर कोई हमला नहीं किया, जो साथी मुझसे असहमत हों, वे मुझे बताएं और यह भी बताएं कि मैं क्‍या पढूं।'' कितना बेईमान और ढीठ आदमी है यह! यह पाण्‍डे का नहीं बल्कि तमाम असहमतियां रखने के बावजूद मार्क्‍सवादी अध्‍येताओं का आम सहमति का मुद्दा है। लेकिन चूंकि हिन्‍दी जगत में तमाम ज्ञानपिपासु व गम्‍भीर युवा भी इससे वाकिफ नहीं होंगे, इसलिए पाण्‍डे इसे ''अपना निष्‍कर्ष'' बनाकर पेश कर रहा है।
इसके बाद पाण्‍डे जी अपनी पुरानी असुरक्षा पर वापस आ जाते हैं कि लोग बताएंगे तो वे पढ़ेंगे और अपनी कमज़ोरियों को दूर करेंगे क्‍योंकि ज्ञान तो ''प्‍यार लो-प्‍यार दो'' वाला मामला है और जो ऐसा नहीं करता है वह ''मार्क्‍सवाद का धंधा'' कर रहा है। हमारे रूपक के लिए हमें क्षमा करें, लेकिन बस अपनी बात समझाने के लिए हम यह कहेंगे कि सच्‍चाई तो यह है कि हिन्‍दी जगत के बाज़ार में मार्क्‍सवाद के ज्ञान की मांग बहुत है लेकिन आपूर्ति की समस्‍या है और पाण्‍डे उसमें अपना फफूंद लगा फर्जी माल लेकर अपनी एक दुकान चला रहा है। अक्‍सर ही यह बिना पढ़े-लिखे या चौर्यलेखन करके एक किताब लिख रहा है और लोगों को मूर्ख बना रहा है। सभी संजीदा लोग इस सच्‍चाई को जानते हैं। अन्‍त में, पाण्‍डे धमकी देता है कि अगला स्‍टडी सर्किल वेदान्‍त पर होगा! अभी तक अधिकांश संजीदा युवा, बुद्धिजीवी जो कि इस अपढ़, मूर्ख और बौने करियरवादी की बौद्धिक चार सौ बीसी को समझ गये होंगे, वह इससे दूर ही रहेंगे। जो नहीं समझे हैं, उनसे हम यही कहेंगे कि इस बौद्धिक बहरूपिये और पिग्‍मी से सावधान रहें और मार्क्‍सवाद समझने के लिए मार्क्‍सवादी क्‍लासिक्‍स का अध्‍ययन करें और अच्‍छी पाठ्यपुस्‍तकें भी हैं जिनका अध्‍ययन किया जा सकता है। लेकिन ऐसे फ्रॉड्स के चक्‍कर में न पड़ें, जिनके बारे में हम विस्‍तार से दिखला चुके हैं कि उन्‍हें मार्क्‍सवाद, इतिहास, भारतीय दर्शन परम्‍परा के बारे में कुछ नहीं पता है।


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