पाण्डे के प्रवचन से और गहराया जहालत का अंधेरा
(अशोक कुमार पाण्डे द्वारा मार्क्सवादी अध्ययन चक्र में
फैलायी जा रही धुन्ध का आलोचनात्मक विवेचन)
(चौथी किश्त)
·
हण्ड्रेड
फ्लावर्स मार्क्सिस्ट स्टडी ग्रुप, दिल्ली
विश्वविद्यालय,
दिल्ली
पिछले तीन वीडियो में हम देख चुके हैं कि पाण्डे जी की मार्क्सवाद की
समझदारी कितनी है और थोड़ा मुज़ाहिरा हमने इस बात का भी देखा कि उन्हें भारतीय
दर्शन के बारे में क्या पता है। इस वीडियो में हम इस तकलीफदेह सफर को जारी रखेंगे
और अधिक विस्तार से देखेंगे कि पाण्डे जी भारतीय दर्शन के बारे में क्या
समझदारी रखते हैं।
पाण्डे जी हमेशा की तरह शुरुआत कुछ लोगों द्वारा पूछे गये सवालों का जवाब
देने से करते हैं। किसी ने उनसे पूछा है कि मार्क्स यूरोपीय परिस्थितियों में
पैदा हुए थे और उनकी चेतना और ज्ञान भी उसी के अनुसार निर्धारित हुआ था। भारतीय
चेतना तो भारतीय परिस्थितियों के अनुसार बनेगी, तो
ऐसे में मार्क्स के सिद्धान्तों को, जो कि यूरोपीय परिस्थितियों के
अनुसार बने हैं, भारत में कैसे लागू किया जा सकता है।
सवाल तो यह किसी नये युवा साथी के अनुसार अच्छा है और इसका बहुत ही अच्छा
जवाब दिया जा सकता है। लेकिन जब तक आप ऐसा
सोचते हैं, तब तक पाण्डे जी अपनी मूर्खता का उस्तरा सवाल पूछने वाले
के मस्तिष्क को गंजा करने के लिए अपने झोले में से निकाल चुके होते हैं। आइये देखते हैं कि वह इस सवाल का क्या जवाब देते हैं।
पहले तो पाण्डे जी कहते हैं कि मैं तो बस मार्क्सवाद की बुनियादी बातें
बताने का लक्ष्य रखता हूं (वैसे यह एक बुनियादी सवाल ही है, जो
कि बहुत से पढ़े-लिखे युवाओं के दिमाग में आता है) और ''मैंने
बस मार्क्सवादी चेतना''
(ये क्या होती है?) ''के
आधार पर भाववाद और भौतिकवाद का अन्तर बतलाया है''।
पहली बात तो अगर शब्दों का सटीकता से इस्तेमाल करें तो ''मार्क्सवादी
चेतना'' एक सटीक शब्द नहीं है। लेकिन हम सन्देह का लाभ देते हुए
इसे ज़बान फिसलना या आम बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल मान लेते हैं। पाण्डे जी ने
चेतना के परिस्थितियों से पैदा होने के मार्क्सवादी सिद्धान्त की जो व्याख्या
की थी (''आप जैसा खाना खाते हैं, जैसे
घर में रहते हैं...''!),
जिसकी हमने पिछले किश्त में आलोचना की थी, उसके
आधार पर यह प्रश्न तो आना ही था!
बजाय उत्पादन पद्धति, उत्पादन
सम्बन्धों और उत्पादक शक्तियों द्वारा संघटित होने वाली भौतिक परिस्थितियों को
सामाजिक चेतना का आधार बताने के,
पाण्डे जी एक-एक व्यक्ति के खान-पान, पहनावे, परवरिश
आदि में भौतिक परिस्थितियों को लाकर अपचयित (reduce)
कर देते हैं। नतीजतन, इस मार्क्सवादी सिद्धान्त और वैज्ञानिक नज़रिये की कोई
समझदारी ही नहीं बनती। पाण्डे जी की मार्क्सवाद की समझदारी के बारे में हम पिछली
तीन किश्तों में काफी-कुछ लिख चुके हैं, अभी फिर से उसके विस्तार में
जाने की आवश्यकता नहीं है। खैर,
इतना सब कहने के बावजूद पाण्डे जी सवाल का जवाब देने का बीड़ा
हाथ में उठाते हैं। अब इन ज्ञान के मोतियों की वर्षा पर ज़रा ग़ौर करें।
पाण्डे जी किसी गांव में रहने वाले दो ब्राह्मणों का उदाहरण देते हैं। उनमें
से एक पढ़ा-लिखा है, संस्कृत जानता है और वेदों आदि को उद्धृत करता रहता है; दूसरा, उतना
ज्ञानी नहीं है और छोटे-मोटे कथावाचन आदि करके अपना काम चलाता है। एक वर्ण व्यवस्था
का वैधीकरण वेदों से श्लोक आदि उद्धृत करके करेगा, तो
दूसरा कथाएं, कहानियां किवंदतियां सुनाकर ऐसा करेगा। लेकिन दोनों ही वर्ण
व्यवस्था का वैधीकरण करेंगे;
दोनों की परिस्थितियां अलग हैं, और
उनकी चेतना भी अलग बनेगी,
मगर फिर भी वे दोनों ही अपने-अपने तरीके से यह काम करेंगे।
तो चेतनाओं के विभिन्न स्तरों से कोई अन्तर नहीं पड़ता, दोनों
ही ऐसा करेंगे। लेकिन पाण्डे जी के ही सिद्धान्त के अनुसार, दोनों
अलग प्रकार का खाना खाते हैं,
उनकी अलग प्रकार के परिवेशों में परवरिश हुई थी, तो
फिर दोनों की चेतना बिल्कुल अलग होनी चाहिए। पाण्डे जी दोनों के द्वारा वर्ण
व्यवस्था के वैधीकरण की सही तरीके से व्याख्या कर नहीं पा रहे हैं। दरअसल, इसकी
सही व्याख्या करने के लिए पाण्डे जी को ''भौतिक
परिस्थिति से चेतना के निर्माण''
का अपना विचित्र सिद्धान्त कूड़े के डिब्बे में फेंकना
पड़ेगा और यह समझना पड़ेगा कि इन दोनों ब्राह्मणों की चेतना में जो साझा है, उसकी
वजह उनके साझा वर्ग हित हैं,
हालांकि उनमें से एक अपेक्षाकृत अमीर ब्राह्मण हो सकता है
और दूसरा अपेक्षाकृत गरीब ब्राह्मण। लेकिन शूद्रों व दलितों की तुलना में वे दोनों
ही परजीवी वर्गों के हैं,
जोकि मेहनतकश वर्गों द्वारा पैदा अधिशेष को विनियोजित करके
अपना अस्तित्व कायम रखते हैं। इसलिए उनके कुछ साझे वर्ग हित होते हैं। इसलिए
हालांकि उनमें से एक को पाण्डे जी का अध्ययन चक्र अच्छा लग सकता है और दूसरे को
सर्कस, लेकिन फिर भी उनकी सामाजिक चेतना एक निश्चित प्रकार की है, क्योंकि
उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादन की पूरी प्रणाली तथा श्रम विभाजन (जो कि उत्पादन
सम्बन्धों का ही एक अंग होते हैं) में उनकी एक निश्चित स्थिति है। यही कारण है कि अलग भोजन करने, अलग घर और परिवेश में रहने, अलग शिक्षा होने के बावजूद उत्पादन
सम्बन्धों के आधार पर वर्गीय संरचना में एक निश्चित स्थान होने के कारण उनकी
वर्ग चेतना में बहुत-कुछ साझा है और उसके आधार पर वे दोनों ही वर्ण व्यवस्था की
हिफाज़त करते हैं, हालांकि उन भिन्न प्रकार के बौद्धिक संसाधनों के आधार पर
जो कि उनके पास हैं। लेकिन पाण्डे जी अपने ही द्वारा दिये उदाहरण
का ढंग से तर्कपोषण नहीं कर पाते हैं।
दूसरी बात यह है कि यह उदाहरण ही पूछे गये सवाल का जवाब देने के लिए ग़लत था।
फिर इस सवाल का सही जवाब क्या होना चाहिए? इस सवाल का सही जवाब किसी भी विज्ञान की सार्वभौमिकता (universality)
पर आधारित होगा। मार्क्सवाद
समाज का और इसीलिए क्रान्ति का विज्ञान है। कोई भी विज्ञान वही होता है, जो
कि सामान्य रूप से लागू होता है। यदि किसी ज्ञान की सावैभौमिकता नहीं है, तो
उसे विज्ञान नहीं कहा जा सकता है। कई लोगों ने बार-बार मार्क्सवाद को
यूरो-केन्द्रित बताने की कोशिश की,
कइयों ने कहा कि चूंकि यह यूरोप में पैदा हुआ था, इसलिए
यह उन्हीं समाजों पर लागू होता है। यह वैसी ही बात है जैसे कि कोई कहे कि चूंकि
न्यूटन ने इंग्लैण्ड में (या यूरोप में) गुरुत्वाकर्षण के नियम की खोज की थी, इसलिए
जब सेब टूटता है तो यूरोप में ज़मीन पर गिरता है, लेकिेन
भारत में वह टूटते ही आसमान में चला जाता है! जाहिर
सी बात है क्योंकि गुरुत्वाकर्षण का नियम एक सावैभौमिक नियम है इसलिए वह
सार्वभौमिक तौर पर लागू होता है (अभी हम उन जटिलताओं में नहीं जा रहे हैं, जो
दिखलाती हैं कि किस प्रकार सूक्ष्म विश्व में यह सार्वभौमिक नियम कुछ परिवर्तित
रूप में काम करता है)। मार्क्सवाद समाज के गति का विज्ञान है। यह समाज के आज तक
के विकास का अध्ययन करता है और बताता है कि आगे वर्ग समाज को सर्वहारा अधिनायकत्व
और समाजवाद के संक्रमण के दौर के रास्ते वर्गविहीन समाज में विकसित होना है, (यदि
वह बर्बरता में ही पतित नहीं हो जाता है)। इसीलिए मार्क्स ने कहा था कि कम्युनिज्म
कोई लक्ष्य नहीं है जिसे प्राप्त किया जाना है, बल्कि
यह इतिहास की वास्तविक गति है। इसका यह अर्थ नहीं है कि इस प्रक्रिया में कोई
अभिकर्ता (agent) नहीं होता है। प्रकृति की प्रक्रियाओं में भी अभिकर्ता व
उत्प्रेरक मौजूद होते हैं और उनके बिना वे प्रक्रियाएं सम्पन्न नहीं हो सकतीं।
यह एक दीगर बात है कि उत्प्रेरकों और अभिकर्ताओं का पैदा होना या उनकी मौजूदगी स्वयं
एक वस्तुगत प्रक्रिया का अंग होता है। हम अभी इसके विस्तार में नहीं जा सकते
हैं। लेकिन इतना स्पष्ट है कि किसी युवा साथी द्वारा उठाये गये एक प्रासंगिक
सवाल का जवाब देने के चक्कर में पाण्डे की स्थिति ऊन के गोले में उलझकर लुढ़क
गये बिल्ले के समान हो गयी है क्योंकि उसे यह पता नहीं नहीं है कि मार्क्सवाद
एक विज्ञान है और ठीक इसीलिए वह सार्वभौमिक रूप से प्रयोज्य (applicable)
है। यह ज़रूर है कि अलग-अलग देशों की परिस्थितियों के मूल्यांकन और विश्लेषण के
लिए जब मार्क्सवाद के विज्ञान को लागू किया जायेगा, तो
उससे निकलने वाले ठोस राजनीतिक कार्यक्रम भिन्न होंगे, तो
उन देशों की विशिष्ट परिस्थितियों पर निर्भर करेंगे।
आगे बढ़ते हैं।
पाण्डे जी कहते हैं कि तीन स्टडी सर्किल्स में मैं भाववाद और भौतिकवाद के
बारे में जितना बता सकता था वह बता चुका हूं, बाकी
आप लोग पढ़ लीजिये। लेकिन तीन स्टडी
सर्किलों में हवा-हवा ज्यादा थी, और मालमत्ता कम (जैसे चिप्स के पैकेट में होता है!) और जो मालमत्ता है, वह मार्क्सवाद के प्रति भयंकर
अज्ञान और उसके विकृतिकरण का सड़ेला कीचड़ है! माने कि ज्यादा अच्छा यही
होता कि यह कीचड़ बिखेरने की बजाय पाण्डे लोगों को पढ़ ही लेने देता। लेकिन पाण्डे
जी कैसे मानेंगे? उन्हें तो हिन्दी जगत में मार्क्सवादी बुद्धिजीवी बनने
की माता आई हुई थी इसलिए आनन-फानन में इन्होंने अपने वीडियो डालकर
घोंचूपन-घामड़पन की भसड़ मचा दी। अब ज्ञान के झाडू से पीट-पीटकर इनकी माता उतारनी
पड़ रही है।
किसी ने पाण्डे जी से पूछा कि वर्ण व्यवस्था तो कर्म पर आधारित है, तो
इसमें क्या समस्या है। इस बात का ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तथ्यों पर खण्डन करने
में अपने आपको असमर्थ पाने पर पाण्डे जी भावुकतावादी अपीलें करके लोगों की अन्तश्चेतना
को जगाने में लग जाते हैं। वह पूछते हैं कि क्या हम ऐसी व्यवस्था को स्वीकार
कर सकते हैं कि जिसमें कुछ लोगों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी दासवत जीवन बिताने पर मजबूर कर
दिया जाता है? फिर वह इससे भी मूर्खतापूर्ण सवाल पूछते हैं कि अगर एक पल
को मान भी लिया जाय कि यह व्यवस्था श्रम विभाजन पर आधारित है, तो
क्या इस श्रम विभाजन को सही ठहराया जा सकता है? उनका
अगला सवाल यह है कि मान लिया जाय कि यदि किसी का (शूद्र व दलित) आज की शिक्षा व्यवस्था
में पढ़ने लिखने में मन न लगे तो उसे बाकी तीनों (ब्राह्मण, क्षत्रिय
व वैश्य) की जन्मों-जन्मों के लिए सेवा में लगा दिया जाना चाहिए? पहले इन मूर्खतापूर्ण रेटरिकल सवालों के पीछे छिपी
पूर्वधारणाओं की थोड़ी चीर-फाड़ कर लेते हैं।
सवाल यह नहीं है कि हम वर्ण व्यवस्था को स्वीकार करते हैं या नहीं या कौन
स्वीकार करता है और कौन अस्वीकार करता है। इस बारे में भावुक अपीलें और सवाल
करने से भी कुछ नहीं होता है। सवाल यह था कि क्या वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित
है और क्या इस रूप में इसका वैधीकरण किया जा सकता है? और इसका इतिहास के ज़रिये बहुत ही सन्तुलित और वैज्ञानिक
जवाब दिया जा सकता है। इस उत्तर पर थोड़ा विचार कर लेना यहां चल रही चर्चा के लिए
उपयोगी होगा।
वर्ण व्यवस्था ऋग्वैदिक काल के उत्तरार्द्ध में अस्तित्व में आयी। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के दसवें मण्डल में पहली बार इसका जिक्र मिलता है। यह वह
दौर है जब वैदिक समाज चरवाहा समाज की मंजिल से खेतिहर समाज की मंजिल में संक्रमण
कर रहा था और नियमित अधिशेष उत्पादन के कारण वर्गों का उद्भव हो रहा था। इस दौर के भ्रूण रूप वर्ग विभाजन व श्रम
विभाजन को ही पुरुषसूक्त के दसवें मण्डल में बतायी गयी चातुर्वण्य व्यवस्था
प्रतिबिम्बित कर रही थी। दुनिया में हर जगह वर्ग विभाजन को सही ठहराने के लिए
विचारधारात्मक उपकरणों का निर्माण किया जाता है। भारत में भी ऐसा ही किया गया। लेकिन यहां एक विशिष्ट परिघटना घटित हुई। यह
था एक दौर के वर्ग विभाजन व श्रम विभाजन का एक ऐसा विचारधारात्मक वैधीकरण तैयार
करना जिसमें कि उसे धार्मिक व कर्मकाण्डीय रूप से अश्मीभूत (ossify)
कर दिया गया। इस कर्मकाण्डीय अश्मीभूतीकरण (ritualistic ossification)
की वजह से वर्ण, जो कि अपने मूल के बिन्दु पर वर्ग ही थे, जैसा कि डी. डी. कोसाम्बी, रामशरण शर्मा और सुवीरा जायसवाल
जैसे उत्कृष्ट मार्क्सवादी इतिहासकारों ने दिखलाया है, उनका वर्ग के साथ पूर्ण अतिच्छादन
(overlapping) का सम्बन्ध समाप्त हो गया और एक संगति (correspondence)
के सम्बन्ध में तब्दील हो गया।
वर्ग गतिकी तो बदलते उत्पादन सम्बन्धों व व्यवस्थाओं के साथ बदलती थी, लेकिन
चूंकि वर्ण विभाजन धार्मिक व कर्मकाण्डीय रूप से अश्मीभूत थे, इसलिए
वे हूबहू उसी रफ्तार से और उसी रूप में नहीं बदलते थे। लेकिन जब भी वर्गों व उनके
सम्बन्धों का विकास उस स्तर पर पहुंच जाता था, कि
पुराने वर्ण-जाति सम्बन्धों के फ्रेमवर्क में उनका अस्तित्वमान रहना सम्भव
नहीं रह जाता था, तो वर्ण-जाति व्यवस्था में कम्पन और भूकम्पकारी प्रभाव
(tremors) को महसूस किया जाता था और अन्तत: उनमें गुणात्मक
परिवर्तन होते थे। जाति व्यवस्था का दमन और उत्पीड़न बरकरार रहता था, लेकिन
चर राशियां बदल जाती थीं। मिसाल के तौर पर, शूद्र
जो कि मौर्यकाल तक भूदास व दास की भूमिका में थे, वे
मुख्यत: व मूलत: निर्भर किसानों के वर्ग के तब्दील हो गये, और
वैश्य जो मौर्यकाल के पहले और उसके दौरान मुख्यत: और मूलत: कृषक वर्ग थे, वे
व्यापारी वर्ग में तब्दील हो गये;
उसी प्रकार क्यों दक्षिण भारत में वर्ण-जाति व्यवस्था का
ऐसा विकास हुआ जिसमें कि दो मध्यवर्ती वर्ण, यानी
क्षत्रिय और वैश्य, मूलत: थे ही नहीं। इन
बातों को इसी संगति के सिद्धान्त से समझा जा सकता है। वहां शूद्रों को ही
पुरोहित वर्ग ने दो हिस्सों में बांट दिया: सत
शूद्र, जिसकी स्थिति उत्तर भारत के क्षत्रियों के समानान्तर मानी
गयी और असत शूद्र जिनकी स्थिति निर्भर किसानों व दस्तकारों आदि की थी और जिन्हें
ब्राह्मणों ने यहां अशुद्ध और निम्न करार दिया। जाति व्यवस्था में ये लो कालिक
(temporal) और स्थानिक (spatial) अन्तर (variations)
इसी वजह से हुए क्योंकि इन अलग दौरों में या अलग क्षेत्रों में उत्पादन सम्बन्ध
और वर्ग व्यवस्था अलग थी। वर्ण-जाति व्यवस्था और वर्ग व्यवस्था के बीच के इस
सम्बन्ध को समझना है,
तो आप ज्यादा नहीं केवल सुवीरा जायसवाल की दो पुस्तकों का
अध्ययन कर लें: - 'कास्ट: ओरिजिन, फंक्शंस, डाइमेंशंस' तथा
'दि मेकिंग ऑफ ब्रेह्मेनिकल हेजेमनी'। इसके अलावा, आप
रामशरण शर्मा की 'शूद्रों का प्राचीन इतिहास', 'इण्डियाज़
एशंण्ट पास्ट', 'पोलिटिकल आइडियाज़ एण्ड इंस्टीट्यूशंस इन एशंण्ट इण्डिया', और
'मैटीरियल कल्चर एण्ड सोशल फॉर्मेशंस इन एंशण्ट इण्डिया' का
अध्ययन कर सकते हैं। लुब्बेलुबाब यह कि
वर्ण व्यवस्था कोई कर्म पर आधारित व्यवस्था नहीं थी। यह बात इतिहास के आधार पर
तथ्यत: गलत है। यह वर्गीय शोषण व दमन को संस्थाबद्ध रूप देने और दमित व शोषित
वर्गों की अधीनस्थता (subordination) को संस्थाबद्ध रूप देने के
लिए अस्तित्व में आयी सामाजिक उत्पीड़न की एक व्यवस्था है, जिसका वर्गीय व्यवस्था के साथ
एक संगति का रिश्ता है।
हर नयी उत्पादन व्यवस्था और वर्गीय सम्बन्धों के उद्भव और विकास के साथ इसमें
परिवर्तन आता है, और शोषण के नये सम्बन्धों को वह नये रूप में विचारधारात्मक
वैधीकरण देती है। जो एक चीज़ इस पूरी प्रक्रिया में लगातार बनी रहती है वह है
शुद्धता व प्रदूषण (purity and
pollution) का ब्राह्मणवादी
विचारधारात्मक उपकरण। इसके अतिरिक्त, इसमें वर्णों-जातियों आदि की
स्थिति भी बदलती रहती है और वह पदानुक्रम भी बदलता रहता है। यह कर्मों से न तो अपने मूल पर निर्धारित होती थी, न मध्यकाल में न आधुनिक काल
में और न ही आज की दुनिया में। लेकिन पाण्डे जी इस मूल प्रश्न का जवाब देने की
बजाय आपकी अन्तरात्मा को आवाज़ लगाने लगते हैं। वह गुस्सा जाते हैं और पूछते
हैं कि क्या ऐसी असमानता की व्यवस्था को आप स्वीकार कर सकते हैं, जबकि करना यह था कि सवाल पूछने
वाले साथी को ऐतिहासिक तौर पर दिखलाया जाता कि वर्ण-जाति व्यवस्था कभी भी कर्मों
पर नहीं आधारित थी! दरअसल,
पाण्डे जी शायद खुद ही इस बात पर पूरी तरह सहमत नहीं हैं, जैसा
कि हम आपको आगे दिखलाएंगे।
फिर पाण्डे जी पूछते हैं कि अगर यह मान भी लिया जाय कि वर्ण व्यवस्था श्रम
विभाजन पर आधारित है, तो क्या यह श्रम विभाजन सही है? फिर से मूर्खता वाली बात। इतिहास के तमाम विषयों का अध्ययन करते समय हम उनकी
कारणात्मक व्याख्या करते हैं और भौतिकवादी तरीके से उसे समझते हैं, न
कि नैतिक निर्णय (moral
judgements) देते हैं या
नैतिक प्रश्न पूछते हैं,
जैसे कि ''क्या दासता सही थी'', जाहिर
सी बात है कि जनपक्षधर नज़रिये से कतई सही नहीं थी, दासों
के लिए कतई सही नहीं थी,
लेकिन दास स्वामियों व कुलीन वर्ग के लिए सही थी! आपसे यदि कोई कह रहा है कि वर्ण व्यवस्था तो कर्म पर
आधारित थी और इस रूप में उसका वैधीकरण कर रहा है, तो आप उससे नैतिक प्रश्न
पूछेंगे या उसे ऐतिहासिक तथ्यों समेत दिखलाएंगे कि यह गलत है? लेकिन पाण्डे जी यह करने की
बजाय सस्ती अपीलें कर रहे हैं।
लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है। आगे
पाण्डे जी जैसी बात करते हैं, उससे साफ पता चलता है कि उनके भीतर कहीं न कहीं कोई असली
पाण्डे बैठा हुआ है। वह चारों वर्णों की व्यवस्था की तुलना एक स्कूल की कक्षा
से करते हैं और पूछते हैं कि यदि किसी बच्चे (शूद्र) का मन पढ़ने में नहीं लगता
है, तो क्या वह अपने ऊपर के तीन संस्तरों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) की जन्मों-जन्मों तक
सेवा करता रहेगा? ज़रा देखिये कि पाण्डे जी का रूपक ही कितना ब्राह्मणवादी
है। शूद्र इसलिए दमित
और उत्पीडि़त वर्ण नहीं बने क्योंकि वे ज्ञान या बौद्धिकता के मामले में पीछे
थे। वास्तव में, अगर आप सुवीरा जायसवाल की पुस्तक 'दि मेकिंग ऑफ
ब्रेह्मैनिकल हेजेमनी' को पढ़ें तो पाएंगे कि ऋग्वेद की कई सूक्तियों व श्लोकों की रचना शूद्रों ने की थी।
आरम्भिक वैदिक काल में शूद्रों की स्थिति अभी ढांचागत अधीनस्थता की नहीं बनी थी
और अभी अन्तरवर्ण/अन्तरजातीय विवाह भी होते थे। शूद्र थे कौन? इस विषय में आप रामशरण शर्मा की पुस्तक 'शूद्रों का
प्राचीन इतिहास', डी. डी. कोसाम्बी की पुस्तक 'एन इण्ट्रोडक्शन
टू दि स्टडी ऑफ इण्डियन हिस्ट्री'
अवश्य पढ़ें। अब उपलब्ध ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर जिस
बात पर उत्कृष्ट मार्क्सवादी इतिहासकारों की आम सहमति है, वह
इस प्रकार है। आर्यों का भारतीय उपमहाद्वीप में आगमन (ध्यान दें, यह
आक्रमण नहीं था) दो प्रमुख लहरों में हुआ। जब पहली लहर भारतीय उपमहाद्वीप पहुंची थी, तो
उस समय हड़प्पा घाटी सभ्यता पतन के दौर में जा चुकी थी। पहली लहर में आये आर्य
भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी हिस्से में बस गये और उनमें से बहुत-से इस
क्षेत्र में रहने वाली मूल आबादी से घुल-मिल भी गये। इनमें से कई हड़प्पा घाटी के
बचे हुए लोग भी रहे हो सकते हैं। इसके बाद आर्यों के प्रवास की दूसरी लहर आयी, जिन्हें
कोसांबी, शर्मा व जायसवाल वैदिक
आर्य कहते हैं, यानी जो वेदों की रचना और वैदिक समाज का उद्भव से सम्बन्धित
थे। इन आर्यों का सामाजिक संगठन खानाबदोश चरवाहे समाज वाला था और बहुत से चरवाहे
समाजों के समान यह भी तीन संस्तर या श्रेणियों (गौर करें, वर्ग
नहीं!) में विभाजित था, जैसा कि ब्रूस लिंकन जैसे अध्येताओं
ने दिखलाया है। ये श्रेणियां थीं ब्राह्मन्य, राजन्य
और विस। इन आर्यों का कई इलाकों में पहली लहर में आये आर्यों से टकराव हुआ, जो
कि मूल आबादी के साथ मिश्रित हो चुके थे। लम्बे चले संघर्ष में वैदिक आर्यों ने
पूर्व वैदिक आर्यों को हरा दिया,
या कई जगह उन्हें अपने में सम्मिलित कर लिया। पराजित हुए
पूर्व-वैदिक कबीलों में एक का नाम था सुद्र।
यह काफी बड़ा कबीला था। नतीजतन,
हारे हुए पूर्व-वैदिक आर्यों को ही शूद्र का नाम दिया गया।
लेकिन शुरू में ही उनकी स्थिति संरचनागत रूप से अधीनस्थ नहीं बनी थी, जैसा
कि ऋग्वैदिक स्रोतों से पता चलता है क्योंकि कई जगह वे युद्ध और पराजय के ज़रिये
वैदिक समाज में सम्मिलित नहीं हुए थे, बल्कि यह सम्मिलन शान्तिपूर्ण
था। लेकिन कालान्तर में इन पूर्व वैदिक आर्यों की अधीनस्थता ढांचागत बनती गयी और
वैदिक समाज में वर्ण व्यवस्था भ्रूण रूप वर्ग विभाजन व श्रम विभाजन के रूप में
अस्तित्व में आयी। इसी का जिक्र हमें पहली बार ऋग्वेद के 'पुरुषसूक्त'
के दसवें मण्डल में मिलता है। हम बहुत सशक्त रूप में
सुवीरा जायसवाल की पुस्तक 'दि मेकिंग ऑफ ब्रेह्मैनिकल हेजेमनी' व
'कास्ट'
की अनुशंसा करेंगे, जो
उपरोक्त प्रक्रिया को बेहतरीन रूप से दिखाती है, और
ये पुस्तकें इस विषय पर कोसाम्बी और शर्मा के उत्कृष्ट शोध को आगे बढ़ाती हैं।
यही समय था जबकि वैदिक समाज चरवाहे समाज से एक खेतिहर समाज में संक्रमण कर रहा था।
जब करीब हज़ार वर्ष से सात सौ वर्ष ईसा पूर्व में लौह युग की शुरुआत हुई, तो
यह भ्रूण रूप वर्ग विभाजन और रेखांकित, सशक्त और गहरा बनता है, क्योंकि
लोहे के साथ जंगलों की सफाई,
गंगा के मैदानों में खेती योग्य भूमि को सुरक्षित करना, और
लोहे के हल से खेती सम्भव हो गयी। यही प्रक्रिया आगे छठीं सदी ईसा पूर्व में 16
कबीलाई जनपदों की स्थापना में सम्पन्न होती है, जोकि
राज्य निर्माण की प्रक्रिया का एक मंजिल पर पहुंचना था। इसी के साथ वैदिक काल समाप्त
होता है। शूद्रों के वर्ग/वर्ण ने वैदिक समाज में दास श्रम, भूदासों
के श्रम की आपूर्ति का काम किया। वैश्य इस दौर में प्रमुख कृषक जाति थे। क्षत्रिय
व ब्राह्मण सामाजिक पदानुक्रम के शीर्ष पर थे। इसलिए शूद्र वास्तव में
पूर्व-वैदिक आर्य ही थे,
जोकि मूल आबादी के साथ मिश्रित हो गये थे। इनके लिए वैदिक
आर्यों ने आरम्भ में असुर, दस्यु व दास जैसे
शब्दों का प्रयोग किया,
लेकिन आरंभ में इन शब्दों का वह अर्थ नहीं था, जो
कि हम आज जानते हैं। वास्तव में,
इहलौकिक देवताओं के लिए भी असुर शब्द का प्रयोग होता था।
शूद्रों को अधीनस्थ बना लिये जाने के बाद ही इन शब्दों का अर्थ बदल गया। ठीक उसी
प्रकार जैसे आर्य (जिन्हें स्कैण्डिनेवियाई कबीले 'ओर्ज' कहा
करते थे) वे जब स्कैण्डिनेवियाई कबीलों द्वारा हरा दिये गये थे, तो
ओर्ज शब्द का अर्थ ही वहां पर गुलाम हो गया था। शूद्र इसलिए दासवत और अधीनस्थ नहीं बना दिये गये थे क्योंकि वह
बौद्धिकता में कमज़ोर थे, बल्कि इसलिए उनकी स्थिति दासवत बनी थी क्योंकि एक संघर्ष
में वे पराजित हुए थे और समाज में उनकी भूमिका शारीरिक उत्पादक श्रम करने वालों
की थी। बौद्धिकता में वे वैदिक आर्यों से कम नहीं थे और वैदिक समाज में सम्मिलित
होने लेकिन अपने अधीनस्थ बनाये जाने से पहले बहुत से श्लोकों व सूक्तियों की उन्होंने
ही रचना की थी। लेकिन पाण्डे जी को लगता है कि शूद्रों की वर्ण व्यवस्था में
दासवत और अधीनस्थ स्थिति इसलिए बनी थी क्योंकि वे पढ़ने-लिखने में कमज़ोर थे! यहां पर पाण्डे जी का जातिवादी
और ब्राह्मणवादी कीड़ा बाहर निकलकर आ गया है। यह अवचेतन मस्तिष्क में कहीं न कहीं
था। बस जब पाण्डे जी ने ज्ञान वर्षा के लिए मुंह खोला वह कीड़ा रेंगकर बाहर आ
गया। बस पाण्डे जी
ऊंचाई से बोलते हैं कि 'तो क्या हुआ कि उनका पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था, इसका
यह अर्थ थोड़े ही है कि वे जन्मों-जन्मों तक तीन उच्चतर वर्णों की सेवा करते
रहेंगे!' यहां पाण्डे जी का जनेऊ दिखाई पड़ने लगता है। यह है पाण्डे
की समझदारी! आप ही बतायें कि ऐसे आदमी को करियरवादी, ढोंगी
और बहरूपिया न कहा जाय तो क्या कहा जाय? क्या
ऐसे व्यक्ति के प्रति मार्क्सवाद में दिलचस्पी रखने वाले तमाम संजीदा लोगों को
आगाह नहीं किया जाना चाहिए?
क्या ऐसे
धोखेबाज़ों को उनके सामने बेनकाब नहीं किया जाना चाहिए?
लेकिन पाण्डे जी यहां रुकते नहीं है। इसके बाद वह वर्ण-जाति व्यवस्था के
अस्तित्व में आने का एक अपना ही पण्डा सिद्धान्त देते हैं। देखिये वह यह
कारनामा किस प्रकार करते हैं।
वह कहते हैं कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने, जो
कि सत्ता में थे, वर्ण व्यवस्था का पूरा किस्सा गढ़ा जिससे कि वे शूद्रों
और दलितों से अधिशेष हड़प कर शासन करते रह सकें! मतलब
कि महज़ एक वाक्य में पाण्डे जी इतना चुगदपना घुसेड़ते हैं, कि
उसकी सफाई करने के लिए कुछ पन्ने खर्च करने पड़ जाते हैं! पहली
बात तो यह पूरा सिद्धान्त ही सिर के बल खड़ा है और भाववाद और भौतिकवाद पर इतनी
हवाबाज़ी ठेलने वाले पाण्डे जी के भौतिकवादी विश्लेषण पद्धति के बारे में पूर्ण
अनभिज्ञता को प्रदर्शित करता है। माने कि पाण्डे जी के अनुसार ब्राह्मणों व
क्षत्रियों ने शूद्रों और दलितों के शोषण के लिए ''यह
किस्सा गढ़ा''! पहली बात तो जब वर्ण व्यवस्था अस्तित्व में आयी थी, तब
तक अस्पृश्यता और दलित जातियों का विकास नहीं हुआ था। यह प्रक्रिया जनपदों के अस्तित्व में आने के बाद आरम्भ
होती है और अपने चरमोत्कर्ष पर यह मौर्य समाज के पतन के बाद और विशेष तौर पर गुप्त
साम्राज्य के दौर में पहुंचती है। इसके बारे में विस्तार से जानने की इच्छा
रखने वाले साथी अस्पृश्यता के इतिहास पर विवेकानन्द झा के शोध का अध्ययन कर
सकते हैं, जोकि इस विषय पर सबसे अच्छे शोधों में से एक है। दूसरी बात, यदि ब्राह्मणों व क्षत्रियों ने
वर्ण व्यवस्था का फिक्शन रचना था, तो उनकी रचना किसने की थी? तब तो पाण्डे
जी को यही मानना पड़ जायेगा कि उनकी रचना ब्रह्मा ने की थी! किसी
भी सामाजिक उत्पीड़न की व्यवस्था की कोई इस प्रकार रचना नहीं कर सकता है।
सामाजिक उत्पीड़न की विभिन्न व्यवस्थाएं अलग-अलग समाजों में उत्पादक शक्तियों
व उत्पादन सम्बन्धों के द्वन्द्व के विकास की एक विशिष्ट मंजिल में पैदा होती
हैं। ये एक भौतिक वस्तुगत परिघटना होती हैं, किसी
की विचारधारात्मक रचना नहीं। यदि वर्ण-जाति व्यवस्था महज़ कोई विचारधारात्मक
निर्मिति होती तो इसे विचारधारात्मक आलोचना से ही समाप्त भी किया जा सकता था।
वर्ण व्यवस्था, जैसा कि हम ऊपर दिखला चुके हैं, वैदिक
काल के उत्तरार्द्ध में भ्रूण रूप वर्ग विभाजन के रूप में अस्तित्व में आयी और
धार्मिक और कर्मकाण्डीय अश्मीभूतीकरण के कारण वह वर्ग व्यवस्था से सापेक्षिक
रूप में से स्वायत्त हो गयी और उसका वर्ग व्यवस्था से रिश्ता पूर्ण अतिच्छादन
की बजाय, संगति (correspondence) का हो गया। अलग-अलग दौर में नयी उत्पादन व्यवस्थाओं के
उदय के साथ वर्ण-जाति व्यवस्था में भी बुनियादी किस्म के परिवर्तन आये और उसने
हर दौर के ही शोषक वर्गों को शोषित वर्गों को ढांचागत अधीनस्थता में रखने का एक
कारगर उपकरण दिया। वर्ण-जाति व्यवस्था के अस्तित्व में आने के बाद निश्चित तौर
पर उसे सही ठहराने के लिए और उसके वैधीकरण के लिए शासक वर्गों के बुद्धिजीवियों और
विचारकों की भूमिका निभाने वाले ब्राह्मणों ने हज़ारों धार्मिक ग्रन्थों, पोथियों-पुराणों
की रचना की। यानी कि पाण्डे जी सिर के बल
खड़े हैं। ब्राह्मणों व क्षत्रियों ने वर्ण व्यवस्था का ''किस्सा'' नहीं गढ़ा बल्कि वैदिक काल के
अन्त की ओर अस्तित्व में आ रहे भ्रूण रूप वर्ग विभाजन को ही वर्ण का नाम दिया गया, यानी, जैसा कि कोसाम्बी ने बताया है, अपने मूल बिन्दु पर वर्ण वर्ग
ही था, हालांकि उत्तर-वैदिक काल से ही यह पूर्ण अतिच्छादन समाप्त
होता गया और सापेक्षिक स्वायत्तता के साथ एक संगति का सम्बन्ध विकसित हो गया।
जब यह व्यवस्था अस्तित्व में आ गयी तब इसे तमाम विचारधारात्मक उपकरणों के
ज़रिये ब्राह्मणवाद ने वैधीकृत किया। यानी पहले वस्तुगत यथार्थ (पदार्थ) अस्तित्व
में आया, उसके बार उसके वैधीकरण की विचारधारा (चेतना) अस्तित्व में
आयी। इसका मतलब यह है
कि भाववाद और भौतिकवाद के बारे में पाण्डे की समझदारी न सिर्फ भोथड़ी है, बल्कि
मूर्खतापूर्ण और गलत है। इसे मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धान्तों के बारे में
कुछ नहीं पता है, हालांकि इसने इसके ऊपर एक किताब लिख मारी है। ऐसे लोग हिन्दी जगत का जो नुकसान कर रहे
हैं, वह आपराधिक है।
आगे बढ़ते हैं।
इसके बाद पाण्डे जी चार्वाक दर्शन पर आते हैं। चार्वाक/लोकायत दर्शन के बारे
में वे मोटी-मोटी कुछ बातें बताते हैं, जोकि मुख्य रूप से हिरियन्ना
और राहुल की पुस्तक से ली गईं हैं। उनके बारे में ज्यादा कुछ कहने की आवश्यकता
नहीं है, क्योंकि मोटे तौर पर वह ठीक ही हैं, हालांकि
चार्वाक दर्शन के बारे में इससे ज्यादा बताया जाना चाहिए, क्योंकि
वह प्राचीन भारत में सबसे प्रमुख भौतिकवादी दर्शन है और देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय
के अनुसार न्याय व वैशेषिक के साथ वह भाववाद-विरोध या भाववाद की एण्टीथीसिस के
कोर (केन्द्रीय भाग) को संघटित करता है। इसके ऊपर बाद में भी मार्क्सवादी
दृष्टिकोण से काफी अच्छे काम हुए है। लेकिन अभी हम उनमें नहीं जा सकते हैं।
पाण्डे जी इसके बाद चार्वाक
दर्शन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सन्दर्भ पर आते हैं, और यहीं से सारा गड़बड़झाला
चालू हो जाता है। वह कहते हैं
कि चार्वाक दर्शन पहली सदी ईसा पूर्व में फलफूल रहा था, जबकि
कबीलाई गणराज्य विघटित हो रहे थे और गुप्त साम्राज्य ने भारत के बड़े हिस्से
पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। अब आप स्वयं ही देखिये कि महज़ एक वाक्य
में इस व्यक्ति ने कितनी मूर्खताएं और कितनी नाजानकारियां दिखलाई हैं। पहली बात तो यह कि लोकायत दर्शन (जिसे बाद
में आठवीं सदी ईसवी में पहली बार जिनेन्द्रबुद्धि ने चार्वाक कहा) के पैदा होने
और फलने-फूलने का दौर छठी सदी ईसा पूर्व था, यानी सांख्य दर्शन की शुरुआत
के ही करीब। दूसरी बात, कबीलाई गणराज्य पहली सदी ईसवी तक कब के समाप्त हो चुके
थे। तीसरी बात, पहली सदी ईसा पूर्व में तो शुंग साम्राज्य का दौर था जिसे
पुष्यमित्र शुंग ने स्थापित किया था, मौर्य साम्राज्य का कुछ ही
वर्षों पहले (184 ईसा पूर्व में) पतन हुआ था। चौथी बात, गुप्त साम्राज्य द्वारा भारत
के बड़े हिस्से में अपना नियंत्रण स्थापित करने की बात तो बहुत दूर, अभी गुप्त वंश जैसी कोई चीज़
ही अस्तित्व में नहीं आयी थी। इसकी स्थापना ही तीसरी सदी में हुई थी, 319 से
लेकर 467 ईसवी के बीच यह अपने क्षेत्रीय विस्तार और शक्तिमत्ता के चरम पर था।
मतलब, पाण्डे जी ने अज्ञान के क्षेत्र में अपना एक पाण्डे
साम्राज्य कायम कर लिया है और हिन्दी जगत के पढ़ने-लिखने वाले लोगों के लिए एक
ख़तरा बन गये हैं! पाण्डे को न तो यह पता है कि कबीलाई गणराज्यों का पतन कब
हुआ था, मौर्य वंश का पतन कब हुआ, शुंग वंश का काल क्या है और न
ही यह पता है कि गुप्त साम्राज्य का काल क्या था और सबसे बड़ी बात, चौथा वीडियो जिस दर्शन पर विशेष
रूप से विचार-विमर्श के लिए पाण्डे ने बनाया है, यानी चार्वाक दर्शन, उसके भी पैदा होने, फलने-फूलने और बाद में
ब्राह्मणवादी प्रतिक्रिया द्वारा उसके दमन और फिर पराजय का दौर नहीं पता है। लेकिन फिर इसके जहालत और घमण्ड की इन्तहां देखिये, ये
इन्हीं विषयों पर वीडियो बनाने बैठ गया है। गुप्त साम्राज्य का रिश्ता प्राचीन
भारत के भौतिकवाद से यह था कि इसी दौर में ब्राह्मणवादी प्रतिक्रिया हावी हुई, क्योंकि
यही दौर सामन्तवाद के उद्भव और विकास का भी दौर था और अस्पृश्यता के विकास के
साथ वर्ण-जाति व्यवस्था के एक नये चरण में पहुंचने का दौर भी था। वास्तव में, प्राचीन
भारत में भौतिकवादी दर्शनों की पराजय का दौर ही पांचवी सदी ईसवी से शुरू होता है, जैसा
कि प्रो. रामशरण शर्मा ने बताया है। यह दौर 12वीं-13वीं सदी तक जारी रहता है। इस
बात की ही पुष्टि भारतीय दर्शन और उसके इतिहास के विशेषज्ञों ने भी की है, जैसे
कि रामकृष्ण भट्टाचार्या,
जिन्होंने भारतीय दर्शन और विशेष तौर पर उसमें भौतिकवाद के
स्थान और उसके इतिहास पर प्रशंसनीय कार्य किया है।
लेकिन पाण्डे जी ने अपने अज्ञानतापूर्ण कालानुक्रम (chronology)
के आधार पर मूर्खता का पूरा किला ही खड़ा कर दिया है! आगे
वह कहते हैं कि गुप्त काल में सामन्त और धर्माचार्य शासन कर रहे थे जो लोक-परलोक, कर्मकाण्ड
आदि की बातें करके अपने ''अनैतिक शासन''
को सही ठहराने का प्रयास कर रहे थे। पाण्डे जी कहते हैं कि
वैश्य भी जो कि व्यापारी वर्ग थे,
शूद्रों का शोषण कर रहे थे क्योंकि उन्हें गुलाम श्रम की
आवश्यकता थी। शूद्रों और दलितों को ये तीनों वर्ग दबाकर रखते थे और विचारधारात्मक
तौर पर भी उनका दमन कर उनके अन्दर यह सोच पैदा करते थे कि ऊपर के तीन वर्णों की
सेवा करना ही उनका काम है। सामन्तों को अपने खेतों में काम करने के लिए श्रम की
जरूरत थी, क्षत्रियों को युद्ध में मरने के लिए सैनिकों की आवश्यकता
थी, और वैश्यों को अपने कारखानों में काम करने के लिए भी श्रम
की ज़रूरत थी। ये सभी ज़रूरतें शूद्रों से पूरी करवाई जाती थीं, और
वैश्यों के कारखानों में शूद्रों को ''बहुत कम मज़दूरी'' मिलती
थी।
फिर से देखिये कि यह कितना
अज्ञानी व्यक्ति है।
पहली बात तो यह कि मार्क्सवाद नैतिक व एथिकल जजमेण्ट नहीं देता है बल्कि दो
पक्षों और संघर्ष की बात करता है;
इसीलिए मार्क्स नैतिकता-अनैतिकता के चक्कर में नहीं पड़ते
क्योंकि नैतिकता दैवीय रूप से पूर्वप्रदत्त नहीं होती है, बल्कि
अलग-अलग वर्गों की अलग-अलग किस्म की होती है और यह उनकी आर्थिक, सामाजिक
व राजनीतिक स्थिति से निर्धारित होती है। दूसरी
बात, वैश्य हमेशा से व्यापारी वर्ग नहीं थे और विशेष तौर पर
चार्वाक दर्शन के उद्भव और विकास के दौर में उनका मुख्य पेशा कृषि था। उनका पेशा
मुख्यत: व्यापार बनने की शुरुआत सामन्तवाद के उदय के साथ हुई, जो कि पहली सदी ईसवी का दौर था
और लोकायत/चार्वाक दर्शन के उद्भव और विकास का दौर इससे करीब चार-पांच सौ वर्ष
पहले का दौर था। तीसरी बात, उस दौर में वैश्य कारखाने नहीं लगा रहे थे! वे आम तौर व्यापार में लगे थे
जोकि दस्तकारों के गिल्डों (जिन्हें श्रेणी या अयतन भी कहा जाता था) द्वारा
उत्पादित सामग्री को खरीदते और बेचते थे। इन दस्तकारों में शूद्र जातियां भी थीं और कुछ वैश्य
जातियां भी थीं। चौथी बात, गुप्त साम्राज्य के दौर में
दास श्रम का कोई विशेष महत्व नहीं रह गया था, विशेष तौर पर, उत्पादक गतिविधियों में।
पांचवीं बात, इस दौर में वैश्यों के कारखानों में शूद्र मज़दूरों की बात
करना और फिर यह दावा करना कि उन्हें ''बहुत कम मज़दूरी'' मिलती थी, पाण्डे के भयंकर अज्ञान और
चुगदपने की पोल पूरी तरह से खोल देता है। कोई इतिहास बारहवीं तक पढ़ा हुआ विद्यार्थी भी जानता है कि
उजरती श्रम इस दौर में पैदा नहीं हुआ था, अधिकांश गैर-खेतिहर उत्पादन
निर्भर दस्तकार वर्ग द्वारा किया जाता था, जो
गिल्डों में बंधे थे और मुख्य रूप से शूद्र जातियों से आते थे। कोई मार्क्सवादी
अर्थशास्त्र की सबसे आरंभिक पाठ्यपुस्तक पढ़ा हुआ व्यक्ति भी जानता है कि ''मज़दूरी'' किसे
कहते हैं; यह श्रमशक्ति की कीमत होती है। जब तक श्रमशक्ति माल ही नहीं
बनी है, जब तक उत्पादन के साधनों के मालिकाने से पूर्ण रूप से ''मुक्त'' उत्पादक
वर्ग, यानी उजरती मज़दूर, अस्तित्व
में नहीं आता है, तब तक अगर हम सटीकता के साथ बात करें तो अपने वैज्ञानिक
अर्थों में मज़दूरी शब्द का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। ये दस्तकार अभी
अपने उत्पादन के साधनों,
यानी अपने औजारों से काम करते थे। उन्हें कोई तय (fixed)
मज़दूरी नहीं मिलती थी,
जोकि उनके द्वारा अपनी श्रमशक्ति को बेचने पर मिलती हो। उन्हें
किये गये उत्पादन के अनुसार मेहनताना मिलता था, जिसे
गिल्ड निर्धारित करता था। जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि यहां उन्हें
''बहुत कम मज़दूरी'' मिलने की बात नहीं
की जा सकती है। उन्हें गिल्ड और सामन्तों, दोनों
के ही द्वारा दमन और शोषण का सामना करना पड़ता था। लेकिन पाण्डे जी, जैसा कि हमने पहले दिखलाया है, पढ़ते-लिखते तो हैं नहीं, बस अपनी ही ट्रिप पर रहते हैं।
पहले उन्होंने चार्वाक दर्शन को गुप्त काल में घुसा दिया, उसके बाद कबीलाई गणराज्यों को
शुंग वंश में घुसा दिया, मज़दूर वर्ग और मज़दूरी की अवधारणा को गुप्त काल में
पहुंचा दिया, वैश्यों को चार्वाक दर्शन के दौर में ही व्यापारी बना
दिया! पाण्डे जी इसके बाद बोलते हैं कि (गुप्त साम्राज्य के
इसी ऐतिहासिक सन्दर्भ में) जब चार्वाक दर्शन अस्तित्व में आता है तो वह
दास-दासियों की बिक्री को देखता है और उसकी पड़ताल करते हुए ब्राह्मणवाद की जड़ों
पर हमला करता है! फिर पाण्डे जी यह भी कहते हैं कि चार्वाक हमारी भारतीय
दर्शन परम्परा के प्राचीनतम भौतिकवादी हैं! हमारी
भाषा के लिए हमें माफ करें,
लेकिन यह बात सुनकर
हमें यह पूछने का जी करता है कि ''अरे मूर्ख, अगर
वह गुप्तकाल में पैदा हुए थे, तो वह प्राचीनतम
भौतिकवादी किस प्रकार थे?
अभी तूने ही तो
पिछले वीडियो में बताया था कि सांख्य दर्शन, मीमांसा
और न्याय-वैशेषिक दर्शन छठी सदी ईसा पूर्व से लेकर दूसरी सदी ईसवी के बीच पैदा
हुए थे!'' इसके बाद पाण्डे
जी फिर से कहते हैं कि इस प्रकार का प्रचार की चार्वाक दर्शन इसलिए खो गया क्योंकि
उन्होंने कुछ लिखा नहीं था,
और वह महत्वपूर्ण नहीं था, इत्यादि
बकवास है क्योंकि चार्वाक दर्शन से तो स्वयं चरक भी प्रभावित थे। फिर से हमारे
मन में यह सवाल पूछने की इच्छा उठती है, ''अरे अहमक
इंसान! अभी तो तू कह रहा था कि चार्वाक दर्शन गुप्त काल में पैदा
हुआ था, तो फिर गुप्त काल शुरू होने के कम-से-कम सौ साल पहले ही मर
चुके चरक ने चार्वाक दर्शन के बारे में कैसे पढ़ लिया था?'' सच यह है कि चरक को चार्वाक दर्शन के बारे में इसलिए पता था
क्योंकि जब वह जीवित थे,
उस समय तक चार्वाक/लोकायत दर्शन के बारे में लोगों में
पर्याप्त जानकारी थी और वह एक स्थापित दार्शनिक धारा थी। इधर-उधर से टीपा-टीपी
करके विद्वान बनने की कोशिश में दिमागी तौर पर गंजे हो चुके पाण्डे की स्थिति आप
देख सकते हैं।
पाण्डे जी दलील देते हैं कि यदि चार्वाक दर्शन महत्वपूर्ण नहीं होता तो उसे
वेदान्ती इतना निशाना नहीं बनाते। सही बात है। लेकिन पाण्डे जी इसकी मिसाल देते
हैं। वह कहते हैं कि देखिये कि फेसबुक पर भी जिन्हें गालियां पड़ती हैं, वे
वहीं होते हैं, जो महत्वपूर्ण होते हैं। गलत! फेसबुक
पर तरह-तरह के मूर्खों,
लम्पटों और गधों
को भी गालियां पड़ती हैं!
लेकिन पाण्डे जी
कहीं न कहीं यह बताना चाह रहे हैं कि चूंकि उन्हें भी काफी गालियां पड़ती रहती
हैं, इसलिए इससे यह सिद्ध होता है कि वह भी महत्वपूर्ण हैं! पाण्डे
जी का आत्म महत्वोन्माद भी विचित्र किस्म का है।
हमने इस बार भी पाण्डे जी के चौथे वीडियो की प्रातिनिधिक मूर्खताओं की आलोचना
पेश की है। अगर हम एक-एक छोटी चीज़ लेकर बैठ जाते तो किसी अस्पताल की इण्टेंसिव
केयर यूनिट में पहुंच जाते। इस बौद्धिक
बहरूपिये और पिग्मी की असलियत को समझना बेहद जरूरी है, क्योंकि इसने अपने धंधेबाज़ी
के नेटवर्क को थोड़ा फैला लिया है और इसलिए अगर हिन्दी जगत के सोचने-समझने वाले
युवाओं व बुद्धिजीवियों के समक्ष इसको बेपर्द नहीं किया गया, तो यह पूरे हिन्दी जगत को ही
बौद्धिक तौर पर इण्टेंसिव केयर यूनिट में पहुंचा देगा।
अगले वीडियो में पाण्डे जी ने बौद्ध दर्शन पर अपने
विचार पेश किये हैं। उनकी समीक्षा हम अगली किश्त में करेंगे।
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