एक करियरवादी, आत्मग्रस्त, अपढ़
बौद्धिक बौने द्वारा मार्क्सवाद के विकृतीकरण और इसे लेकर फैलायी जा रही धुन्ध
के विरुद्ध
(अशोक कुमार पाण्डे द्वारा “मार्क्सवादी अध्ययन चक्र” के
नाम पर बाँटे जा रहे अज्ञान, मूर्खता और झूठ का आलोचनात्मक विवेचन)
(पहला भाग)
– हण्ड्रेड
फ्लावर्स मार्क्सिस्ट स्टडी ग्रुप, दिल्ली
विश्वविद्यालय,
दिल्ली
विज्ञान का मसला एक गम्भीर मसला होता है। इसमें व्यक्तिवाद, करियरवाद, आत्मग्रस्तता की
कोई गुंजाइश नहीं होती है। मार्क्सवाद पर कोई भी विमर्श एक वैज्ञानिक विमर्श होता
है जो यह माँग करता है कि आप जो भी कहें उसे तथ्यों और तर्कों से पुष्ट करें और
साथ ही उन तथ्यों और तर्कों की एक सही व्याख्या पेश करें। मार्क्सवाद एक विश्व-दृष्टिकोण
है, एक पहुँच और पद्धति
है जो हमें हर वस्तु अथवा परिघटना को देखने का नज़रिया देता है। साथ ही, यह समाज की गति के नियमों
की एक सुस्पष्ट समझदारी पेश करता है और बताता है कि आज तक समाज का विकास गति के किन
नियमों के अधीन हुआ है और आगे उसके विकास की क्या सम्भावित दिशाएँ हो सकती हैं। यह
क्रान्ति का विज्ञान है।
चूँकि मार्क्सवाद एक विज्ञान है, इसलिए इसके विषय में बात करने के पहले पर्याप्त जाँच-पड़ताल, अध्ययन और शोध की
आवश्यकता होती है। विशेष तौर पर, यदि आपने हिन्दी जगत के संजीदा और संवेदनशील युवाओं को
इसके बारे में शिक्षित करने की महती जिम्मेदारी अपने कन्धों पर उठाने का निर्णय
किया है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हिन्दी जगत के पाठकों को अब भी बहुत-से
मार्क्सवादी क्लासिक्स के अच्छे अनुवाद उपलब्ध नहीं हैं और कई बेहद अहम रचनाएँ
ऐसी भी हैं, जिनका अभी तक हिन्दी
में अनुवाद ही नहीं हुआ है। ऐसे में, यदि कोई व्यक्ति हिन्दी जगत के पाठकों को मार्क्सवाद के
बुनियादी सिद्धान्तों से परिचित कराने की ज़िम्मेदारी लेता है तो स्पष्ट तौर
पर उसे तैयारी, अध्ययन, शोध की आवश्यकता
होगी। अन्यथा, उसे यह काम हाथ में
लेना ही नहीं चाहिए क्योंकि वह तमाम असावधान पाठकों, प्रेक्षकों आदि पर अज्ञान के एक कहर के समान टूटेगा!
अशोक कुमार पाण्डे ने मई के पहले सप्ताह में एक ऑनलाइन
मार्क्सवादी अध्ययन चक्र की शुरुआत की जिसके बारे में यही कहा जा सकता है कि वह
अज्ञान, मूर्खता, झूठ, और आत्मग्रस्तता
का ऐसा निकृष्ट कोटि का प्रहसन है, जिसके बारे में काफी समय तक तो हम यही सोचते रहे कि इसकी
आलोचना की कैसे जाये! क्योंकि कई चीज़ें/विषय ऐसे होते हैं, जोकि आलोचना के लिए एक उपयुक्त विषय-वस्तु (object of criticism) मुहैया
कराते हैं और कुछ अन्य ऐसे होते हैं, जो इस हद तक प्रहसनात्मक होते हैं कि उन्हें आलोचना की उपयुक्त
विषय-वस्तु कहना तो बहुत दूर, उस पर ठीक से हँसा भी नहीं जा सकता है। लेकिन अपने आपको
यातना देकर भी कई बार ऐसी प्रचण्ड मूर्खताओं, फ़र्ज़ी लन्तरानियों, आत्म-महानता के विभ्रमों (delusions of self-grandeur) का भी खण्डन
करना पड़ता है, क्योंकि इन्हें
कई लोग पढ़-सुन रहे होते हैं।
आज जब पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ाई को सही
दिशा देने के लिए मार्क्सवाद को गम्भीरता से पढ़ने-जानने की ज़रूरत है, और बड़ी संख्या
में छात्र-युवा इसे जानना-समझना चाह रहे हैं, तब कोई व्यक्ति अगर अपनी अज्ञानता और नासमझी के चलते और
मूर्खता के अति-आत्मविश्वास के चलते मार्क्सवाद के सिद्धान्तों की उल्टी-सीधी
व्याख्याएँ पेश करे, उन्हें हल्का करे, हास्यास्पद निष्कर्ष निकाले और अपढ़ता के ढेरों उदाहरणों
के बावजूद मार्क्सवाद के अध्ययन के हवाई दावे करे, तो इससे मार्क्सवाद का अवमूल्यन होता है। संजीदा लोग इससे
दूर होते हैं और जो इसी के ज़रिए मार्क्सवाद का ज्ञान (या अज्ञान) ग्रहण करते हैं
वे मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी भावना को कभी पकड़ ही नहीं पाते। इसलिए भी हमें यह
कष्टकर कार्य अपने ऊपर लेना पड़ा।
अशोक कुमार पाण्डे जैसे लोगों को भी हिन्दी जगत में कुछ लोग
पढ़ते-सुनते हैं, यह बहुत त्रासद बात है। जिन रचनाओं के कारण यह व्यक्ति चर्चित हुआ है (मसलन, 'कश्मीरनामा'), वे छह-सात पुस्तकों
से किया गया कम्पाइलेशन है, और वह भी बहुत अच्छा नहीं! जहाँ कहीं कुछ मौलिक कहने का प्रयास किया गया है, वह निहायत
मूर्खतापूर्ण है। इस रचना के आधार पर इस व्यक्ति को कलम का एक बुरा मुदर्रिस ही
कहा जा सकता है। इस रचना की विस्तृत आलोचना हम आगे अलग से पेश करेंगे। अभी हमारा
वह विषय नहीं है। लेकिन जब ऐसा कोई व्यक्ति हिन्दी जगत के लोगों को मार्क्सवाद
के मूलभूत सिद्धान्तों से परिचित कराने की ज़िम्मेदारी उठा लेता है, तो वह क्या करता
है, यह अब हमारे सामने
है। बड़े ताज्जुब की बात है कि हिन्दी जगत में अभी तक किसी ने इसके “मार्क्सवादी
अध्ययन चक्र” में परोसी गयी ग़लत-सलत बातों, झूठ और अपढ़ता की मिसालों का खण्डन नहीं किया! ख़तरनाक बात यह है
कि सोशल मीडिया के ज़माने में ऐसे ढोंगियों को तमाम संजीदा युवा भी बुद्धिजीवी मान
बैठते हैं और उसकी बातों को सुनते-पढ़ते हैं!
इस आलोचना में हम तर्कों, तथ्यों व सन्दर्भों के साथ यह दिखलाएँगे कि इस व्यक्ति
ने :
1) मार्क्सवाद का कोई अध्ययन नहीं किया है और यदि किया है
तो इसके बौने दिमाग को कुछ समझ में नहीं आया है।
2) इसने पूरी बेशर्मी के साथ झूठ बोला है।
3) इतिहास के बारे में इसकी जानकारी गलत और हास्यास्पद
है।
वैसे तो मार्क्सवादी आलोचना पद्धति यह होती है कि सबसे
पहले विचारधारात्मक व दार्शनिक मसलों पर आलोचना की जाती है, फिर राजनीतिक मसलों
पर, फिर सांगठनिक मसलों
पर, फिर तकनीकी मसलों
पर और फिर व्यक्तिगत मसलों पर जैसे कि झूठ बोलना, गलत उद्धरण देना इत्यादि। लेकिन यहाँ हम जिस चीज़ की
आलोचना कर रहे हैं, वह चार वीडियो की श्रृंखला में पेश की गयी है। शायद इस आलोचना के लिखे जाने तक
यह व्यक्ति अपनी मूर्खता की पाँचवीं व छठी किस्त भी पेश कर दे जैसाकि उसने
श्रृंखला के चौथे वीडियो के अन्त में धमकी दी है! लेकिन इन शुरुआती चार वीडियोज़ की आलोचना से ही आपको स्पष्ट
हो जायेगा कि ऐसे व्यक्ति से मार्क्सवाद या दर्शन के बारे में जानने की बजाय, सीधे पुस्तकों का
अध्ययन करना ज्यादा बेहतर होगा। चूँकि हम इन वीडियो में पेश जहालत की आलोचना कर
रहे हैं, इसलिए आलोचना का
उपरोक्त तार्किक (logical) क्रम नहीं अपनाएँगे बल्कि कालक्रम से चलेंगे, यानी chronological क्रम अपनाएंगे, जिस क्रम में वीडियो में बातें कही गयी हैं उसी क्रम में
अपनी आलोचना पेश करेंगे, ताकि सभी पाठक बिना किसी भ्रम के समझ सकें कि इस व्यक्ति
ने अपने बौद्धिक बौनेपन के क्या बेजोड़ नमूने पेश किये हैं। मसलन, अशोक कुमार पाण्डे
कहता है कि मज़दूर को श्रम का पूरा मोल नहीं मिलता है, और यही पूँजीपति वर्ग द्वारा हड़प लिया जाता है और यहीं से
उसका मुनाफ़ा आता है; यानी इसे यह तक नहीं पता है कि पूँजीवाद में श्रम नहीं बिकता कि उसका मोल मिले, बल्कि “श्रमशक्ति” (labour power) बिकती है; पूँजीवादी शोषण को
किसी धोखे के रूप में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता है, कि मज़दूर को अपनी ''मेहनत का पूरा मोल'' नहीं मिलता है। भाववाद को इसने नियतिवाद (fatalism) और ईश्वरवाद में अपचयित
(reduce) कर दिया है; वामपंथ और मार्क्सवाद को यह व्यक्ति समानार्थी शब्दों के रूप में इस्तेमाल
करता है; ऐतिहासिक भौतिकवाद
को इसने वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त में अपचयित कर दिया है। इसी प्रकार की दर्जनों
मूर्खतापूर्ण ग़लतियों से सारे वीडियो भरे हुए हैं, जिसे देखकर मार्क्सवाद का कोई भी जानकार कहेगा कि जब तुम्हें
मार्क्सवाद का 'क ख ग' भी नहीं पता, तो मार्क्सवादी स्टडी
सर्किल ले क्यों रहे हो?
अब आइये कालानुक्रम से देखें कि पाण्डे जी ने क्या ज्ञान
वर्षा की है।
·
पाण्डे जी शुरुआत में विनम्रता का झीना-सा दुपट्टा ओढ़ते
हैं और कहते हैं कि वैसे तो मैं कोई शिक्षक या बहुत जानकार व्यक्ति नहीं हूँ, लेकिन चूँकि मैं
लिखता-पढ़ता रहता हूँ और फेसबुक पर सक्रिय हूँ इसलिए बहुत से युवाओं ने कहा कि
मार्क्सवाद के ऊपर मैं अपने विचार रखूँ। फिर वह एक भारी चिन्ता में दबते हुए
कहते हैं कि आज मार्क्सवाद का शिक्षण बहुत ही चिन्ता का विषय है। हमारे समय में
बेहद सस्ती किताबें मिलती थीं और वे उपलब्ध थीं। सोवियत संघ का पतन हो चुका था
लेकिन अभी भी बेहद सस्ती किताबें मिल जाया करतीं थीं और इसकी एक मिसाल यह है कि
मैंने उस समय जो कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो खरीदा था, वह मात्र रुपये 2 का था। पाण्डे जी कहते हैं कि ''इतना कम दाम होना
वल्गर है'' लेकिन फिर भी इतने
कम दामों में उस समय मार्क्सवाद की किताबें मिल जाया करतीं थीं। इसमें ''वल्गर'' या भोंडा क्या है, यह समझ से परे है।
अपने आप में तो इसमें कुछ भी भोंडा नहीं है, यह ज़रूर हो सकता है कि आज इस कीमत में किताबों को छाप पाना
सम्भव नहीं है। लेकिन इसमें भोंडेपन या उदात्तता का क्या मामला है? सम्भवत: पाण्डे जी सोच रहे
हैं कि अगर वे इतने कम दामों की अधिक वकालत करेंगे, तो उनकी पुस्तकों के बारे में भी सुनने वाले ऐसी माँग न कर
बैठें! इसलिए पाण्डे जी को इतने कम
दामों में ''वल्गैरिटी'' नज़र आ रही है। खैर, जो भी वजह रही हो, यह मूल मुद्दा नहीं
है। आगे बढ़ते हैं।
इसके आगे पाण्डे जी अपनी चिन्तामग्न मुद्रा में ही हमें
बताते हैं कि 1995-96 तक पार्टियों में पार्टी स्कूल चलते थे, साहित्य मिलता था, काडरों को मार्क्सवाद
की कक्षाओं में पढ़ाया जाता था, लेकिन उसके बाद यह परम्परा बन्द हो गयी। पाण्डे जी याद
दिलाते हैं कि ऐसा वह किसी घमण्ड में नहीं कह रहे हैं बल्कि यह तथ्य है। मगर ताज्जुब
की बात तो यह है कि ’95-96 के आसपास ही यह जनाब थोड़े समय के लिए छात्र राजनीति
में सक्रिय रहे थे, पहले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में और फिर कुछ समय एक क्रान्तिकारी संगठन
के साथ। कुछ ही समय बाद वह सबकुछ छोड़छाड़ कर ऐसा पलायित हुए कि फिर सीधे एक
सरकारी बाबू और गैर-पार्टी बुद्धिजीवी बनकर ही उपराये। अचानक पलायन का वह क़िस्सा
भी पाण्डे के बारे में काफ़ी कुछ बताता है लेकिन वह फिर कभी। सवाल यह है कि ’95-96
के बाद पार्टियों में काडर का क्या शिक्षण-प्रशिक्षण होता था, यह पाण्डे जी को
कैसे पता हो सकता है जब वह किसी पार्टी से जुड़े ही नहीं थे? यह भी मानकर चला जा सकता है कि
भारत की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टियाँ पाण्डे जी को अपने काडरों के
शिक्षण-प्रशिक्षण के बारे में कोई रिपोर्टिंग नहीं करती होंगी! जहाँ तक हमारी जानकारी है ऐसा
कोई सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता है और उस समय भी और आज भी अनेक संजीदा
क्रान्तिकारी पार्टियाँ हैं, जो अपने-अपने तरीक़े से अपने कार्यकर्ताओं को राजनीतिक तौर
पर शिक्षित-प्रशिक्षित करने पर पर्याप्त बल देती हैं, चाहे आप उनकी कार्यदिशा और मार्क्सवाद की समझदारी से सहमत
हों या असहमत। पाण्डे जी यह भी कहते हैं कि 1990 तक तमाम पार्टियाँ मार्क्सवाद पर किताबें भी प्रकाशित करती थीं, चाहे उनकी समझ को आप सही मानें या गलत, जिससे कि पुस्तकें मिल जाया करती थीं। अब ऐसा नहीं होता। या तो पाण्डे जी 1990 तक सोवियत संघ से आ रही संशोधनवादी पुस्तकों की बात कर रहे हैं (जिन्हें न पढ़ना ही बेहतर था) या फिर वह इतिहास के तथ्यों को याद करने में थोड़ा गड़बड़ा गये हैं। यह सच है कि 1990 के पहले भी रमेश सिन्हा जैसे मार्क्सवादी
बुद्धिजीवी और कई प्रकाशन मार्क्सवादी क्लासिक्स का प्रकाशन कर रहे थे। लेकिन
ऐसा भी नहीं है कि 1990 के बाद आज तक ये क्लासिक्स उपलब्ध ही नहीं हो पाईं हैं।
संशोधनवादी पार्टियों ने भी कुछ मार्क्सवादी क्लासिक्स को छापने का काम जारी
रखा था और साथ ही कई व्यावसायिक प्रकाशन भी मार्क्सवादी की क्लासिक्स को 1990
के दशक के उत्तरार्द्ध से ही छापने लगे थे। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट दायरे के भीतर तो बड़े पैमाने पर क्लासिक्स को फिर से प्रकाशित करने का काम 1990 के दशक के मध्य और उत्तरार्द्ध में ही शुरू हुआ है। गार्गी प्रकाशन, अन्तरराष्ट्रीय प्रकाशन से लेकर राहुल फाउण्डेशन व परिकल्पना प्रकाशन तक 90 के बाद ही अस्तित्व में आये और इतना तथाकथित निष्पक्ष प्रेक्षक भी मानते हैं कि अनुपलब्ध मार्क्सवादी क्लासिक्स को फिर से बड़े पैमाने पर उपलब्ध कराने में इन प्रकाशनों की भारी भूमिका रही।
पाण्डे जी असल में ये सारी हवाबाज़ी इसलिए कर रहे हैं ताकि
वह यह सिद्ध कर सकें कि ''उनके समय में'' उपरोक्त कारणों से मार्क्सवाद की अच्छी पढ़ाई होती थी और
पाण्डे जी ने कर रखी थी, जो कि अब युवाओं की नहीं हो पाती है, और इसीलिए अब पाण्डे
जी उनको मार्क्सवाद सिखाने के लिए एक उपयुक्त व्यक्ति हैं। इसी बात को पुष्ट
करने के लिए पाण्डे जी एक अचम्भित कर देने वाला दावा करते हैं: कि उन्होंने अपने
छात्र जीवन में 30-35 रुपये में 'पूँजी' का 'पहला सेट' ख़रीदा था और अपने ग्रेजुएशन में ही 7 से 10 दिन में यह व्यक्ति
पूरी 'पूँजी' पढ़ गया था! बाद में, पाण्डे जी मानते हैं कि तब वह पढ़ गये थे, लेकिन समझे नहीं थे, यह बात उन्हें
राजनीतिक सक्रियता के 4-5 साल बाद समझ में आयी, जिसके बाद उन्होंने दोबारा 'पूँजी' पढ़ी तब इन्हें यह बात समझ में आई कि पहली बार इनकी समझ
में कुछ नहीं आया था! लेकिन पहले इस दावे पर ग़ौर करते हैं कि क्या 7 से 10 दिन में 'पूँजी' के तीनों खण्ड पढ़े जा सकते हैं? वैसे तो कुछ भी सम्भव है और विवेकानन्द आदि के बारे में
यह किवंदतियाँ प्रचलित हैं कि वह पलटते हुए किताब पढ़ जाते थे। लेकिन किवंदतियों
को किनारे रख दें और यह सोचें कि यदि किसी को सिर्फ बच्चों की तरह 'रीडिंग भी मारनी' हो तो क्या 'पूँजी' के तीनों खण्ड एक हफ्ते या दस दिन में पढ़े जा सकते हैं? 'पूँजी' हिन्दी में मॉस्को
से लगभग ए4 के बराबर साइज़ में प्रकाशित हुई थी। पहले खण्ड में 883 पृष्ठ हैं, दूसरे खण्ड में
491 पृष्ठ हैं और तीसरे खण्ड में 815 पृष्ठ हैं, यानी ए4 आकार के 2189 पृष्ठ। यानी यदि किसी को एक हफ्ते
में पढ़ना हो तो उसे प्रतिदिन औसतन 312 पृष्ठ पढ़ने होंगे और यदि 10 दिन में पूरा
पढ़ना हो तो प्रतिदिन औसतन 219 पृष्ठ पढ़ने होंगे। अगर सिर्फ पढ़ने की ही बात हो तो क्या यह सम्भव है? ज़ाहिर सी बात है कि यह आदमी झूठ बोल रहा है और चूँकि हिन्दी
जगत में मार्क्सवाद का एक्सपोज़र बहुत कम हुआ है और अक्सर ऐसे मूर्खों द्वारा
हुआ है, इसलिए, असावधान लोग इसे सही भी मान सकते हैं और पाण्डे को
पढ़ा-लिखा विद्वान समझने की भूल कर सकते हैं। सीधी-सी बात है कि वह झूठ बोल रहा है। लेकिन ऐसे मसले पर झूठ बोलने की क्या
ज़रूरत है? अगर 'पूँजी' नहीं पढ़ी है (जैसा कि हम आगे तथ्यों व तर्कों समेत दिखलाएँगे
कि पाण्डे ने नहीं पढ़ी है) तो बता दो कि नहीं पढ़ी है। बहुत-से विद्वानों ने
नहीं पढ़ी है। यह कोई अपराध तो है नहीं! लेकिन यह व्यक्ति झूठ इसलिए बोल रहा है क्योंकि यह एक
बहुत ही निकृष्ट किस्म का करियरवादी व्यक्ति है जो झूठ-फ़रेब करके, दूसरों की रचनाओं
से कम्पाइलेशन करके, अपने आप को हिन्दी के बौद्धिक जगत के एक मठाधीश के तौर पर स्थापित करना
चाहता है। इसके लिए यह किसी भी स्तर तक नीचे गिरने को तैयार है।
पाण्डे जी आगे बताते हैं कि पहले मोटी-मोटी किताबें उठाकर
पढ़ने से आदमी बस कुछ जुमले-मुहावरे बोलना सीख जाता है लेकिन उसे कुछ समझ नहीं
आता। इसलिए छोटी-छोटी पुस्तकों से शुरुआत करनी चाहिए और 'स्टेप-बाई-स्टेप' समझते जाना चाहिए। लेकिन हम देखेंगे कि पाण्डे जी ने छोटी
पुस्तकें भी या तो पढ़ी ही नहीं हैं या फिर पढ़कर समझी ही नहीं हैं। आइये देखते
हैं।
सबसे पहले तो पाण्डे जी ने वामपंथ और मार्क्सवाद को
समानार्थी के रूप में इस्तेमाल किया है। यह अपने आप में गलत है। वाम शब्द का
राजनीतिक प्रयोग फ्रांसीसी क्रान्ति के दौरान हुआ था। फ्रांसीसी थर्ड एस्टेट में
जो लोग राजतंत्र का विरोध कर रहे थे, वे वाम पक्ष में बैठते थे और राजनीतिक समानता के उसूल को
मानते थे। बाद में वामपंथ का इस्तेमाल तमाम प्रकार की जुझारू व आमूलगामी राजनीतिक
धाराओं के लिए होने लगा, जैसे कि अराजकतावाद, स्त्रीवाद, पर्यावरणवाद, संघाधिपत्यवाद, इत्यादि। इसके अलावा, वाम और दक्षिण शब्दों का प्रयोग एक ही राजनीतिक धारा के भीतर
विभिन्न रुझानों का चरित्र-निर्धारण करने के लिए भी होने लगा। मसलन, लेनिन ने मार्क्सवाद
के भीतर ''वामपंथी'' भटकाव की बात की है, जो कि एक मनोगतवादी
और भाववादी भटकाव है। उसी प्रकार मार्क्सवादी आन्दोलन के भीतर के दक्षिणपंथी
भटकाव के पैदा होने यानी संशोधनवाद की भी मार्क्स से लेकर माओ तक ने आलोचना की।
वामपंथ एक जेनेरिक टर्म है, जो तमाम किस्म के जुझारू व आमूलगामी जनान्दोलनों के लिए
इस्तेमाल किया जाता है। अख़बारी तौर पर यह मार्क्सवाद के समानार्थी के रूप में
भी इस्तेमाल कर दिया जाता है, हालाँकि यह सटीकता के साथ समझौता होता है। लेकिन चूँकि पाण्डे जी की समझदारी एक बुरे
किस्म की अख़बारी समझदारी है, इसलिए वे वामपंथ को मार्क्सवाद का पर्यायवाची मानते हैं। बहरहाल, यहाँ हम इन्हें कुछ सन्देह का लाभ दे देते हैं कि यह 'बोलचाल के लहजे' में बोल गये होंगे।
आगे बढ़ते हैं।
पाण्डे जी बोलते हैं कि मार्क्सवाद क्या है, इसे समझने के लिए पहले सारे व्यवहार और सक्रियता आदि को
किनारे रखिये और समझिये कि सर्वप्रथम यह एक दर्शन है। यह दर्शन है द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद, जिसमें आपको द्वन्द्व को भी समझना पड़ेगा और भौतिकवाद को
भी(!); आपको यह भी समझना पड़ेगा कि हेगेल से मार्क्स ने क्या
लिया, क्या छोड़ा और
उसमें क्या जोड़ा और कैसे हेगेल को पैरों के बल खड़ा किया(!); आपको उन दर्शनों को देखना पड़ेगा जिनकी मार्क्स ने आलोचना
की, इत्यादि। इस पूरी
बात में पहली टिप्पणी ही गलत है। मार्क्सवाद को व्यवहार और सक्रियता को किनारे
रखकर नहीं समझा जा सकता है! सक्रियता और व्यवहार में रहकर ही आप मार्क्सवादी दर्शन को भी सही तरीके से
समझ सकते हैं। यह नज़रिया ही निष्क्रियतावादी है और मार्क्सवाद के विपरीत खड़ा
है। मार्क्सवादी ज्ञान-मीमांसा की पहली थीसिस ही यही है कि ज्ञान व्यवहार से
पैदा होता है; निश्चित तौर पर, अतीत के
क्रान्तिकारी व्यवहार और उसके समाहार के तौर पर स्थापित मार्क्सवादी दर्शन को
समझने के लिए उसे पढ़ना अनिवार्य है; लेकिन व्यवहार से कटकर उसे पढ़ने पर भी एक किताबी समझदारी
विकसित होगी, जो ग़लत होगी।
दूसरी बात यह कि मार्क्सवादी विज्ञान भी व्यवहार से कट जायेगा तो फिर उसका विकास
भी अवरुद्ध हो जायेगा क्योंकि ज्ञान का विकास भी व्यवहार-सिद्धान्त के सतत्
जारी द्वन्द्व के ज़रिये ही होता है। लेकिन पाण्डे जी ठहरे मार्क्सवाद के
पुरोहित, तो इनका अपना ही
कर्मकाण्डीय नज़रिया है। यह चाहते हैं कि पहले व्यवहार वगैरह को भूल जायें और
मार्क्सवाद को महज़ एक दर्शन के रूप में पढ़ें!
दूसरी बात यह कि मार्क्स ने हेगेल के दर्शन में केवल कुछ
जोड़ा-घटाया नहीं था, या सिर्फ जोड़-घटाव करके ''हेगेल को पैरों के बल'' नहीं खड़ा किया था। इस प्रकार की शब्दावली दिखलाती है कि
पाण्डे जी को 'आलोचना' शब्द का अर्थ ही नहीं पता है। आलोचना एक ऑर्गेनिक
प्रक्रिया होती है, जिसमें सकारात्मक को केवल लिया नहीं जाता, बल्कि उसे विकसित किया जाता है; नकारात्मक को केवल घटाया नहीं जाता, बल्कि उसका
वैज्ञानिक विवेचन कर दार्शनिक नतीजे निकाले जाते हैं। विचार भी 'निषेध का निषेध' की प्रक्रिया से
विकसित होते हैं, जिसमें कि सबलेशन (sublation) की प्रक्रिया शामिल होती है। इसका अर्थ महज़ जोड़ना-घटाना
या किसी किस्म की योगात्मक (aggregative) प्रक्रिया नहीं होती है। हेगेल के दर्शन की आलोचना के
ज़रिये मार्क्स ने महज़ द्वन्द्ववाद को “लिया” नहीं और भाववाद को महज़ “छोड़ा” या
घटाया नहीं, बल्कि द्वन्द्ववाद
को उसके भाववादी खोल से निकालकर विकसित किया और सुसंगत बनाया। ऐसी बातें पाण्डे
जी के मुँह से सुनकर लगता है कि मार्क्सवाद के विषय में उन्होंने कोई सिविल
सर्विसेज़ की तैयारी करवाने वाली पुस्तक पढ़ ली है और तत्काल मार्क्सवाद पर अध्ययन
चक्र करने के लिए कूद गये हैं!
इसके बाद पाण्डे जी बताते हैं कि इस द्वन्द्वात्मक
भौतिकवाद के दर्शन को विकसित करने के बाद मार्क्स ने इसी के आधार पर ऐतिहासिक
भौतिकवाद और मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र का विकास किया। पाण्डे जी बताते
हैं कि ऐतिहासिक भौतिकवाद है वर्ग संघर्ष की समझदारी और किस प्रकार वर्ग संघर्ष के
ज़रिये समाज विकसित होता है। यानी ऐतिहासिक भौतिकवाद को पाण्डे जी महज़ वर्ग
संघर्ष के सिद्धान्त में अपचयित (reduce) कर देते हैं, जबकि ऐसा नहीं किया जा सकता है। ऐतिहासिक भौतिकवाद समाज के
बुनियादी अन्तरविरोध की पड़ताल करता है। यह बुनियादी अन्तरविरोध है उत्पादक
शक्तियों व उत्पादन सम्बन्धों के बीच का अन्तरविरोध। यही अन्तरविरोध वर्ग
समाज की मंज़िल में वर्गों के अन्तरविरोध के रूप में अभिव्यक्त होता है। लेकिन
वर्गविहीन समाज में यह अन्तरविरोध वर्ग अन्तरविरोधों के रूप में अभिव्यक्त
नहीं होता है। अगर पाण्डे जी की मानें तो आदिम कम्युनिज़्म की मंज़िल को
ऐतिहासिक भौतिकवाद द्वारा नहीं समझाया जा सकता, जबकि समाज में कोई वर्ग नहीं थे लेकिन उत्पादक शक्तियों और
उत्पादन सम्बन्धों के बीच अन्तरविरोध मौजूद था; या कम्युनिस्ट समाज, जबकि वर्ग नहीं होंगे, की मंज़िल को भी व्याख्यायित करने के लिए ऐतिहासिक
भौतिकवाद का सिद्धान्त नाकाफ़ी होगा, क्योंकि पाण्डे जी के अनुसार, ऐतिहासिक भौतिकवाद का अर्थ है वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त जो
बताता है कि वर्ग संघर्ष के ज़रिये समाज कैसे विकसित होता है। वर्ग संघर्ष निश्चित
तौर पर वर्ग समाज की मंज़िल में इतिहास की प्रेरक शक्ति है; कम्युनिस्ट
घोषणापत्र की पहली पंक्ति में ‘आदिम कम्युनिस्ट समाज के बाद के दौर में’ — यह
बात एंगेल्स ने फ़ुटनोट के ज़रिए इसीलिए जोड़ी थी, क्योंकि नई नृशास्त्रीय खोजों ने मार्क्सवाद के सिद्धान्तों
को सही सिद्ध करते हुए दिखलाया था कि मानव समाज का एक ऐसा दौर भी था, जबकि वर्ग नहीं थे।
उत्पादक शक्तियाँ बेहद आदिम अवस्था में थीं और उसके अनुरूप ही समानतामूलक उत्पादन
सम्बन्ध अनिवार्यता की शक्तियों ने कबीलाई समाज पर थोप दिये थे। जैसे-जैसे उत्पादक
शक्तियों का विकास हुआ, अधिशेष का नियमित तौर पर उत्पादन सम्भव हुआ, वैसे-वैसे उत्पादन सम्बन्धों
में परिवर्तन हुआ और वर्ग अस्तित्व में आये। कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह
प्रक्रिया हज़ारों वर्षों में घटित हुई। इस आदिम समाज की गतिकी को भी हम ऐतिहासिक
भौतिकवाद के ही ज़रिये समझ सकते हैं, उसके लिए किसी नये विज्ञान की आवश्यकता नहीं है क्योंकि
ऐतिहासिक भौतिकवाद महज़ वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त नहीं है, बल्कि यह समाज में
उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों के बीच के अन्तरविरोधों की पड़ताल
करता है, जो कि वर्ग समाज के
पूरे ऐतिहासिक दौर में अपने आप को वर्ग अन्तरविरोधों के रूप में पेश करते हैं।
इतिहास की भौतिकवादी समझदारी के विषय में मार्क्स की कृति 'राजनीतिक अर्थशास्त्र की
समालोचना में योगदान' की प्रस्तावना का यह हिस्सा प्रसिद्ध है, जोकि ऐतिहासिक भौतिकवाद की एक सटीक समझदारी देता है:
“अपने अस्तित्व के सामाजिक
उत्पादन में, मनुष्य अपरिहार्य रूप से ऐसे निश्चित सम्बन्धों में बँधते हैं जो उनकी इच्छा
से स्वतंत्र होते हैं, यानी उत्पादन के सम्बन्ध जो
उत्पादन की अपनी भौतिक शक्तियों के विकास की निश्चित मंजिल के अनुरूप होते हैं।
इन उत्पादन सम्बन्धों का कुल योग समाज का वह आर्थिक ढाँचा, वह असली आधार होता है जिस पर क़ानूनी और राजनीतिक
अधिरचना खड़ी होती है तथा जिसके अनुरूप ही सामाजिक चेतना के निश्चित रूप होते हैं।
भौतिक जीवन की उत्पादन प्रणाली सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक जीवन की
सामान्य प्रक्रिया को ढालती है। मनुष्य की चेतना उसके अस्तित्व को निर्धारित नहीं
करती, वरन् उसका सामाजिक अस्तित्व उसकी चेतना को निर्धारित करता है। विकास की एक
निश्चित अवस्था में, समाज की भौतिक उत्पादक
शक्तियाँ उत्पादन के अस्तित्वमान सम्बन्धों से या – जिसे वैधानिक शब्दावली में
कहा जा सकता है – सम्पत्ति-सम्बन्धों से, जिनके
चौखटे में वे अब तक काम करती रही हैं, टकराने लगती हैं। उत्पादक
शक्तियों के विकास के रूप न रह कर, ये सम्बन्ध अब उनकी बेड़ियों
में बदल जाते हैं। तब सामाजिक क्रान्ति का युग शुरू होता है। आर्थिक मूलाधार में
परिवर्तन से देर-सबेर समस्त विराटकाय अधिरचना भी रूपान्तरित हो जाती है।
“ऐसे रूपान्तरणों का अध्ययन
करते समय यह हमेशा ज़रूरी होता है कि उत्पादन की आर्थिक परिस्थितियों के भौतिक
रूपान्तरण, जिन्हें प्रकृति विज्ञान की सटीकता के साथ निर्धारित किया जा सकता है, और उन वैधानिक, राजनीतिक, धार्मिक, कलात्मक अथवा दार्शनिक – संक्षेप में, विचारधारात्मक
रूपों, जिनमें मनुष्य इस टकराव के प्रति सचेत
होते हैं और इससे लड़ते हैं, के बीच भेद किया जाये। जिस
प्रकार हम किसी व्यक्ति को इस आधार पर नहीं परखते कि वह स्वयं अपने बारे में क्या
सोचता है, उसी प्रकार हम ऐसे रूपान्तरण की अवधि को उसकी चेतना के आधार पर नहीं परख सकते, बल्कि इसके विपरीत इस चेतना की व्याख्या भौतिक जीवन के अन्तविरोधों के आधार पर, उत्पादन की सामाजिक शक्तियों और उत्पादन के सम्बन्धों के बीच मौजूद टकराव के
आधार पर ही की जानी चाहिए। किसी भी समाज-व्यवस्था का खात्मा तब तक नहीं होता, जब तक कि सभी उत्पादक शक्तियाँ, जिनके लिए वह पर्याप्त है, विकसित नहीं हो जातीं, और उत्पादन
के नये श्रेष्ठतर सम्बन्ध तब तक पुराने सम्बन्धों की जगह नहीं लेते, जब तक पुराने समाज के ढाँचे में उनके अस्तित्व की भौतिक परिस्थितियाँ परिपक्व
नहीं हो जातीं।
“इस प्रकार, मानवजाति अपने लिए अवश्यम्भावी रूप से केवल ऐसे ही कार्यभार निर्धारित करती है, जिन्हें पूरा करने में वह समर्थ हो क्योंकि करीब से देखने पर हमेशा यह पता
चलेगा कि कोई भी समस्या खड़ी ही तभी होती है जब उसके समाधान की भौतिक परिस्थितियाँ
पहले से या तो मौजूद हों, या कम से कम निर्माण के क्रम
में हों।” (कार्ल मार्क्स, 'राजनीतिक
अर्थशास्त्र की समालोचना में योगदान')
इसे पढ़कर आम पाठक कम से कम ऐतिहासिक भौतिकवाद की कुछ
बुनियादी प्रस्थापनाओं को स्पष्ट तौर समझ सकता है और देख सकता है कि ऐतिहासिक
भौतिकवाद समाज में निहित बुनियादी अन्तरविरोध का अध्ययन करता है, जो कि उत्पादक
शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों के बीच का अन्तरविरोध है। यही अन्तरविरोध वर्ग
समाज की समूची ऐतिहासिक मंज़िल में अपने आपको वर्ग अन्तरविरोध के रूप में अभिव्यक्त
करते हैं। इसीलिए ऐतिहासिक भौतिकवाद को महज़ वर्ग संघर्ष और वर्ग अधिनायकत्व के
सिद्धान्त में रिड्यूस नहीं किया जा सकता, हालाँकि ये सिद्धान्त ऐतिहासिक भौतिकवादी पहुँच और पद्धति
से ही निकलते हैं। लेकिन पाण्डे जी तो
बिना पढ़े ही समस्त हिन्दी जगत को अपने ज्ञान से आलोकित कर देने के लिए मचल गये
हैं! उन्हें कैसे समझाया जाये? ऊपर से यह झूठा व्यक्ति यह दावा भी करता है कि इसने
उपरोक्त पुस्तक को पढ़ा हुआ है, जिसका एक लम्बा उद्धरण हमने ऊपर पेश किया है।
इतनी मूर्खतापूर्ण बातें करने के बाद पाण्डे जी कहते हैं: ''मार्क्स को
ठीक-ठाक पढ़ा है मैंने!'' आगे हम विस्तार से दिखलाएँगे कि पाण्डे जी झूठ बोल रहे
हैं। वह कहते हैं कि ''मार्क्स ने यह नहीं बताया कि क्या छिपाओ, क्या दिखाओ, उन्होंने इतिहास को समझने का एक टूल (उपकरण) दिया। द्वन्द्वात्मक
भौतिकवाद को लागू करके जब आप इतिहास को विकसित करते हैं (??) तो इसी को ऐतिहासिक भौतिकवाद कहा जाता है।'' आगे पाण्डे जी
दावा करते हैं कि मैं भाकपा या माकपा की पार्टी लाइन के अनुसार मार्क्सवाद को
नहीं समझता हूँ और न ही उनकी ग़लत चीज़ों को छिपाता हूँ। उनके अनुसार, ये बेईमान तरीका है, मार्क्सवादी तरीका
नहीं, मार्क्सवाद किसी
पार्टी की जागीर नहीं है। लेकिन पाण्डे जी अपने द्वारा की जा रही बेईमानी और
फ्रॉड के बारे में शान्त हैं। वह फ्रॉड यह है कि मार्क्सवाद के 'क ख ग' को पढ़े और समझे बगैर वह हिन्दी जगत को मार्क्सवाद के
बारे में पढ़ाने निकल गये हैं। निश्चित तौर पर, मार्क्सवाद किसी पार्टी की जागीर नहीं है, बल्कि क्रान्ति का
विज्ञान है जो कि सभी क्रान्तिकारी पार्टियों/संगठनों यहाँ तक कि व्यक्तियों के
पथ को आलोकित करता है। ठीक इसीलिए जब पाण्डे जैसा कोई अव्वल दर्जे का अहमक इसे
अपनी जागीर बनाने का इस प्रकार प्रयास करता है, तो मार्क्स की वह उक्ति याद आती है: ''अज्ञान एक राक्षसी
शक्ति है और हमें डर है कि आने वाले युगों में यह कई त्रासदियों का कारण बनेगी।'' आइये उनमें से एक
त्रासदी को घटित होते हुए देखते हैं, हालाँकि यह प्रहसन ज्यादा प्रतीत होती है।
पाण्डे जी दावा करते हैं कि मार्क्स ने अपने समय तक हुई
दुनिया की व्याख्याओं को खारिज नहीं किया, बल्कि उन्हें समझा और उसमें यह जोड़ा कि सवाल केवल व्याख्या
करने का नहीं है, बल्कि बदलने का है। यानी मार्क्स ने उस समय तक जो व्याख्याएँ की गयीं थीं
उन्हें समझा और उसमें बस बदलने के सवाल को जोड़ा। यह पूरी बात बकवास है। पहली बात
तो यह है कि मार्क्स ने पुरानी व्याख्याओं में सिर्फ यह जोड़ा नहीं कि सवाल
बदलने का है, बल्कि उन व्याख्याओं
की आलोचना की (जिसका अर्थ निन्दा करना या ख़ारिज करना नहीं होता है)। आलोचना का
अर्थ होता है नकारात्मक पहलुओं को त्यागना, सकारात्मक पहलुओं को लेना और उन्हें विकसित करना। मिसाल
के तौर पर, हेगेल के दर्शन की
मार्क्स ने आलोचना पेश की, उनके द्वन्द्ववाद को लिया, जो कि अपने भाववादी अवतार में सुसंगत नहीं था और उनके
भाववाद की आलोचना पेश की। उन्होंने अपने समय तक के भौतिकवादी दर्शनों, जिसका शीर्ष
फायरबाख़ थे, की भी आलोचना की और
उनमें निहित यांत्रिकता और अधिभूतवाद का निवारण कर भौतिकवाद को भी सुसंगत बनाया और
इन दार्शनिक आलोचनाओं का संश्लेषण ही
हमारे सामने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सार्वभौमिक विज्ञान के रूप में सामने आता
है। पाण्डे जी मार्क्स के योगदान को बस यह जोड़ने तक सीमित कर देते हैं कि उनके
पहले के दर्शनों ने केवल व्याख्या की थी, जबकि मार्क्स ने इसमें बदलने का सवाल जोड़ दिया। 'थीसीज़ ऑन फायरबाख़' में मार्क्स की
प्रसिद्ध थीसिस को पाण्डे जी शाब्दिक तौर पर समझ बैठे हैं। मार्क्स ने केवल
बदलने का सवाल जोड़ा नहीं, बल्कि अपने समय तक हुई व्याख्याओं की निर्मम आलोचना पेश
की और एक सही वैज्ञानिक व्याख्या पेश की और वे ठीक इसीलिए ऐसा कर सके क्योंकि
वे बदलने के कर्म में संलग्न थे। जैसा कि एंगेल्स ने कहा था, मार्क्स सबसे पहले
एक क्रान्तिकारी (क्रान्तिवादी) थे। वे अपने समय तक के दर्शनों का आलोचनात्मक
विवेचन करते हुए द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के विज्ञान को विकसित कर पाये तो इसके पीछे
उनकी युगान्तरकारी प्रतिभा ही नहीं थी, बल्कि यह बात भी थी कि मार्क्स सर्वप्रथम क्रान्तिकारी व्यवहार
में लगे एक क्रान्तिकारी थे। मार्क्स ने केवल 'बदलने का सवाल जोड़ा' नहीं, बल्कि बताया कि अब तक की गयी व्याख्याएँ ग़लत हैं, या वे अपनी-अपनी
तरह से सत्य के विभिन्न अंशों को ही उजागर करती हैं। मार्क्स ने अपने समय तक के
दार्शनिकों का, अरस्तू से लेकर
फायरबाख़ तक गहरा अध्ययन भी किया और क्रान्तिकारी व्यवहार में संलग्न रहते हुए
अपने समय की दुनिया का भी अध्ययन किया और इस क्रान्तिकारी व्यवहार के पहलू के
कारण ही वे इन दर्शनों की आलोचनाओं के ज़रिये द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के विज्ञान
को विकसित कर सके। उन्होंने बस पहले से मौजूद दर्शन को सकर्मक दर्शन नहीं बनाया, बल्कि पहले से
मौजूद दर्शन की आलोचना पेश की, और उस प्रक्रिया में एक सार्वभौमिक विश्व दृष्टिकोण विकसित
किया। लेकिन पाण्डे जी का दिमाग जोड़ने-घटाने और बहीखाता मानसिकता से आगे नहीं जा
पाता है। फिर भी इस जिद को लेकर पाण्डे जी मचल गये हैं कि मार्क्सवाद तो वह
पढ़ाकर ही रहेंगे!
इसके बाद पाण्डे जी एक और खुलासा करते हैं। उनके इन चारों
व्याख्यानों को उनके बौद्धिक स्ट्रिपटीज़ के तौर पर भी देखा जा सकता है जिसमें
कदम-दर-कदम वह अपनी मूर्खता को अनावृत करते चलते हैं! पाण्डे जी कहते हैं कि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को मार्क्स
ने अर्थव्यवस्था के अध्ययन पर लागू किया। मार्क्स से पहले अर्थशास्त्र केवल
मुनाफे को अधिकतम बनाने की चिन्ता पर ही केन्द्रित था। पहली बात तो यह है कि
मार्क्स-पूर्व समस्त अर्थशास्त्र के बारे में यह कथन ही गलत है, जिस पर हम आगे आयेंगे।
लेकिन उससे पहले पाण्डे जी का सबसे चमत्कृत कर देने वाला खुलासा देखिये।
पाण्डे जी कहते हैं कि मार्क्स ने बताया कि मज़दूर को
उसकी मेहनत का पूरा मोल, उसकी पूरी कीमत नहीं मिलती है, बल्कि उसका एक हिस्सा ही मिलता है, जबकि बाकी हिस्से को पूँजीपति वर्ग हड़प लेता है और यही
उसके मुनाफे़ का स्रोत होता है। मार्क्स के राजनीतिक अर्थशास्त्र की इससे अधिक
मूर्खतापूर्ण समझदारी और कुछ नहीं हो सकती है। याद कीजिये कि अभी-अभी इस ढोंगी शख्स ने कहा था कि पहली बार उसने 7 दिनों
में अपने ग्रेजुएशन के दौरान पूरी 'पूँजी' पढ़ डाली थी और चार-पाँच साल बाद इसने दोबारा पूरी 'पूँजी' पढ़ी थी। क्या इस पाखण्डी आदमी पर ज़रा भी यक़ीन किया जा सकता है? दो बार 'पूँजी' पूरी पढ़ने के बाद क्या कोई ऐसी बात कर सकता है, जैसी यह बौद्धिक बौना कर रहा है? मार्क्स के पूरे राजनीतिक अर्थशास्त्र का मूलाधार ही यही
था कि पूँजीवादी समाज में श्रम नहीं बिकता है और इसलिए रोज़मर्रा के जीवन का यह
जुमला कि 'मेहनत का मोल नहीं मिला' अर्थहीन है। यह दिखलाता है कि 'पूँजी' तो दूर, इस झूठे आदमी ने लेनिन का लेख 'कार्ल मार्क्स' तक नहीं पढ़ा है। मोल (मूल्य) और कुछ नहीं बल्कि वस्तुकृत श्रम (objectified labour) होता है। मार्क्स लिखते हैं:
“मूल्य और कुछ नहीं बल्कि
वस्तुकृत श्रम होता है, और अधिशेष मूल्य (पूँजी का
वास्तवीकरण) केवल उस वस्तुकृत श्रम के उस हिस्से से अतिरिक्त होता है जो श्रम
करने की क्षमता के पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक होता है।” (मार्क्स, Notebook III/IV, The
Chapter on Capital,
'Grundrisse')
दूसरे शब्दों में, मूल्य वास्तव में जम गया श्रम (congealed labour) ही है।
“मूल्य के रूप में, सभी माल केवल जमे हुए श्रम काल के निश्चिन्त पिण्ड ही
हैं.” (Karl
Marx, Chapter 1, Capital)
इसलिए आप जब 'मेहनत के मोल' की बात करते हैं, तो यह एक अर्थहीन दुहरावपूर्ण वाक्यांश (tautological phrase) है, क्योंकि इसका अर्थ
होगा 'मूल्य का मूल्य' (!) या 'मेहनत की मेहनत' (!)। अपने पहले के
बुर्जुआ क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र की मार्क्स ने जिस एक बुनियादी बिन्दु
पर आलोचना पेश की थी, वह यही था कि पूँजीवादी सम्बन्धों में मेहनत नहीं बिकती है, और इसीलिए 'मेहनत का मोल' जैसी कोई चीज़ नहीं
होती, मोल और कुछ नहीं बल्कि
स्वयं वास्तवीकृत मेहनत है। जो बिकता है वह मेहनत नहीं बल्कि मेहनत करने की ताक़त
है, यानी श्रम-शक्ति (labour power)। श्रम शक्ति का
अर्थ होता है एक कार्यदिवस में (जिसकी लम्बाई पूँजी व श्रम के अन्तरविरोध के
अनुसार पूंजी संचय के दायरों के भीतर परिवर्तनीय
होती है) एक मज़दूर द्वारा श्रम करने की क्षमता। देखें मार्क्स क्या कहते हैं:
“अतएव, ऐसा लगता है कि पूँजीपति पैसे देकर मज़दूरों का श्रम ख़रीदता है, और उस पैसे के एवज में वे उसके हाथ अपना
श्रम बेचते हैं। लेकिन यह सिर्फ़ एक दृष्टिभ्रम है। असल में मज़दूर पैसे के एवज
में पूँजीपति के हाथों जो चीज़ बेचते हैं, वह
उनकी श्रम-शक्ति होती है। पूँजीपति इस श्रम-शक्ति को एक दिन के लिए, एक सप्ताह के लिए, एक महीने के लिए या ऐसे ही
किसी निश्चित समय के लिए ख़रीद लेता है और ख़रीदने के बाद वह मज़दूरों से उस
निश्चित समय तक काम कराकर उसका इस्तेमाल करता है।” (कार्ल मार्क्स, मज़दूरी क्या है?
इसका निर्धारण कैसे होता है?, ‘उजरती श्रम और पूँजी’)
'पूँजी' में मार्क्स लिखते हैं:
“बुर्जुआ समाज की सतह पर मज़दूर की मज़दूरी श्रम के दाम के
रूप में दिखायी देती है, धन की एक निश्चित मात्रा जो श्रम की एक निश्चित मात्रा के लिए
चुकाई जाती है। इस तरह लोग श्रम के मूल्य की बात करते हैं और धन में उसकी अभिव्यक्ति
को उसका आवश्यक या स्वाभाविक दाम बताते हैं। दूसरी ओर, वे श्रम के बाज़ार-दामों की, यानी उसके स्वाभाविक दाम के ऊपर या नीचे दोलन करने वाले
दामों की बात करते हैं।
“लेकिन किसी माल का मूल्य क्या होता है? उसके उत्पादन में ख़र्च हुआ सामाजिक
श्रम का वस्तुगत रूप। और हम इस मूल्य की मात्रा को कैसे मापते हैं? उसमें शामिल श्रम की मात्रा से। इस मूल्य, उदाहरण
के लिए, 12 घण्टे के कार्यदिवस के मूल्य, का निर्धारण कैसे किया जाये? 12 घण्टे के कार्यदिवस
में शामिल काम के 12 घण्टों के द्वारा, जोकि एक अर्थहीन
दुहराव है।” (कार्ल मार्क्स, भाग 6, मज़दूरी, अध्याय 19, ‘पूँजी’)
इस श्रम शक्ति का मूल्य उसी प्रकार से तय होता है, जिस प्रकार किसी भी
माल का मूल्य तय होता है। यानी उसके उत्पादन व पुनरुत्पादन में लगने वाला सामाजिक
रूप से आवश्यक प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष श्रम, या, मूल्य-रूप में कहें तो मूल्य। दूसरे शब्दों में, मज़दूर को अपने और
अपने परिवार के जीवन के पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक सभी चीज़ों के उत्पादन के
लिए जितने प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष श्रम की आवश्यकता होती है, वह श्रमशक्ति के
मूल्य को तय करता है। यह सम्भव होता है कि बाज़ार की परिस्थितियों के अनुसार यह
श्रमशक्ति अपने मूल्य के कुछ ऊपर या कुछ नीचे, और अपवादस्वरूप स्थितियों में, काफी ऊपर या काफी नीचे बिक सकती है, लेकिन पूँजीपति वर्ग के मुनाफे़ की व्याख्या श्रमशक्ति के
मूल्य और उसकी कीमत यानी मज़दूरी के बीच अन्तर से नहीं की जा सकती। कारण यह है
कि श्रमशक्ति की कीमत कभी भी उसके मूल्य से उतनी ऊपर नहीं जा सकती है कि वह पूँजी
के संचय की स्थितियों को ही नष्ट कर दे और न ही वह श्रमशक्ति के मूल्य से इतना
नीचे लम्बे समय तक रह सकती है कि काम करने योग्य स्थिति में मज़दूर वर्ग के
पुनरुत्पादन को ही ख़तरे में डाल दे। इसीलिए मार्क्स कहते हैं कि औसत मज़दूरी का
स्तर श्रमशक्ति के मूल्य से ऊपर या नीचे जा सकता है, लेकिन उन्हीं सीमाओं के भीतर जो कि पूँजी संचय की गति उसके
सामने रखती है। हम यहाँ पर इस विषय के और विस्तार में नहीं जा सकते हैं। इसके लिए
हम पाठकों से आग्रह करेंगे कि वे स्वयं 'पूँजी' का अध्ययन करें या यदि उससे पहले आप कुछ सरल पढ़ना चाहते
हैं तो ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा 1930 के दशक में प्रकाशित राजनीतिक
अर्थशास्त्र की पाठ्यपुस्तक पढ़ें।
मार्क्स-पूर्व समूचे अर्थशास्त्र के बारे में भी पाण्डे
जी ने जो टिप्पणी की है, वह बकवास है। यह सच है कि स्मिथ और रिकॉर्डो बुर्जुआ वर्ग
के अर्थशास्त्री थे, लेकिन वे उभरते हुए प्रगतिशील बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक अर्थशास्त्री थे और
उनके राजनीतिक अर्थशास्त्र का इसी वजह से एक दोहरा चरित्र था, जैसा कि मार्क्स
बताते हैं। पहले पहलू को वे esoteric पहलू बोलते हैं, जिसका अर्थ है उनके राजनीतिक अर्थशास्त्र की सकारात्मक
वैज्ञानिक अन्तर्वस्तु, जिसके लिए मार्क्स उनकी प्रशंसा करते हैं। दूसरे पहलू को
वे exoteric पहलू कहते हैं, जो कि उसका
विचारधारात्मक पहलू था, यानी बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि होने के कारण उनके राजनीतिक
अर्थशास्त्र की अहम गलतियाँ थीं, या प्रतीतिगत यथार्थ पर रुक जाना था। मार्क्स बताते हैं कि
मूल्य के श्रम सिद्धान्त की खोज करना और फिज़ियोक्रेटिक धारा से आगे जाकर यह
बताना कि केवल कृषि क्षेत्र में होने वाला श्रम ही उत्पादक श्रम नहीं होता, बल्कि श्रम आम तौर
पर मूल्य का स्रोत होता है, एडम स्मिथ की ऐतिहासिक खोज थी। लेकिन स्मिथ पूँजीवादी
अर्थव्यवस्था में मूल्य के श्रम द्वारा निर्धारण की समस्या को पूरी तरह हल
नहीं कर पाये। रिकार्डो ने स्मिथ की कुछ कमियों को दूर किया और बताया कि मूल्य का
श्रम नियम (labour theory of value) पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में भी सटीकता के साथ काम करता है, लेकिन वह भी शोषण
के असली मूल तक नहीं पहुँच सके। इसका कारण यह था कि वे पूँजीवादी अर्थव्यवस्था
की श्रेणियों की व्याख्या करने के बजाय उन्हें अपने प्रस्थान-बिन्दु के तौर
पर स्वीकार करते हैं, और इसीलिए राजनीतिक अर्थशास्त्र को एक विज्ञान के रूप में स्थापित करने के
बावजूद वे पूँजीवादी आर्थिक सम्बन्धों के मूल की पड़ताल को पूरा नहीं कर पाते
हैं। इन्हीं कमियों की आलोचना मार्क्स 'राजनीतिक अर्थशास्त्र की समालोचना में योगदान' और फिर 'बेशी मूल्य के सिद्धान्त' के तीन खण्डों में
करते हैं। मज़ेदार बात यह है कि पाण्डे जी इनमें से पहली पुस्तक का नाम भी लेते
हैं और यह दावा करते हैं कि उन्होंने यह पढ़ रखी है, लेकिन उसके बावजूद मार्क्स-पूर्व समस्त अर्थशास्त्र के
बारे में वह ऐसी अज्ञानतापूर्ण और हास्यास्पद टिप्पणी करते हैं। स्पष्ट है कि
पाण्डे जी फिर से झूठ बोल रहे हैं।
आप देख सकते हैं कि पाण्डे को मार्क्सवादी राजनीतिक
अर्थशास्त्र का 'क ख ग' भी नहीं पता है।
लेकिन उनका दावा है कि उन्होंने दो बार 'पूँजी' पूरी पढ़ रखी है। क्या आप ऐसे ढोंगी, धोखेबाज़ और बौने करियरवादी
पर यकीन कर सकते हैं? और हालत देखिये कि ऐसे मूर्ख और आत्म-महानता के विभ्रम के शिकार पिग्मी
सोशल मीडिया द्वारा मिलने वाली स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करते हुए 'मार्क्सवादी अध्ययन मण्डल' चला रहे हैं! और उससे भी बड़ी बात कि हिन्दी
जगत के कई पढ़े-लिखे लोग भी इस पर कुछ नहीं कह रहे हैं और शान्त हैं। सम्भवत: वे
इस आदमी के बारे में जानते होंगे और इसे सुनने पर वे वक्त ज़ाया नहीं करना चाहते
होंगे। लेकिन कई बार ऐसे ढोंगियों का पर्दाफ़ाश इसलिए करना पड़ता है कि उनका प्रभाव
तमाम संजीदा लेकिन असावधान युवाओं, बुद्धिजीवियों आदि पर पड़ता है। हम भी इसी कर्तव्यबोध के
वज़न तले दब कर इतने मूर्ख आदमी का खण्डन लिखने के बेहद ऊबाऊ काम को कर रहे हैं।
इतनी बेवकूफी भरी बातें करने के बाद पाण्डे जी तर्जनी
उठाकर बताते हैं कि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद विश्लेषण का एक उपकरण है, मार्क्सवाद एक
सकर्मक दर्शन है, और इसका इस्तेमाल निजी ज्ञान संचय करने और फिर दूसरों को उससे आतंकित करने के
लिए नहीं किया जाना चाहिए! ज्ञान एक सामाजिक सम्पत्ति है। मैंने जो कुछ कहा है वह
समाज के एक हिस्से ने मुझे सिखाया है, ज्ञान का वर्चस्व स्थापित करने के लिए ज्ञान का इस्तेमाल
नहीं किया जाना चाहिए, वगैरह। थोड़ी-थोड़ी देर पर पाण्डे जी को लगता है कि थोड़ा विनम्र बनने वाली
बातें भी कर देनी चाहिए। लेकिन ये बातें भी अपने सही होने के अतिशय आत्मविश्वास के
साथ की जाती हैं और दूसरी बात यह कि इसमें भी पाण्डे जी अपनी मूर्खता का अनावरण
करना जारी ही रखते हैं। पहली बात तो यह है कि पाण्डे जी को इस बारे में चिन्तित
होने की कोई आवयश्कता नहीं है कि कहीं उनके ज्ञान संचय से कोई आतंकित तो नहीं हो
गया! कम-से-कम समझदार लोग इस पर हँस
ही सकते हैं (या रो भी सकते हैं!)। दूसरी बात, समाज के कौन-से हिस्से ने पाण्डे जी को मार्क्सवाद
सिखाया है, इसमें सच में हमारी
दिलचस्पी है! माने कि या तो समाज का वह हिस्सा
प्रचण्ड मूर्ख और पाण्डे जैसा ही बौद्धिक बहरूपिया है, या फिर पाण्डे को जब मार्क्सवाद पढ़ाया जा रहा था, तो वह ऊँघ रहा था! क्योंकि इतना तो
साफ़ है, कि इसे मार्क्सवाद
के मूलभूत सिद्धान्तों का भी कुछ नहीं पता है, जैसा कि हम ऊपर दिखला चुके हैं। तीसरी बात, ज्ञान का वर्चस्व क़ायम
करना भी आवश्यक होता है। सही ज्ञान और विचारधारा को समाज की गलत विचारधाराओं पर
अपना वर्चस्व क़ायम करना ही होता है। किसी क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए भी यह
ज़रूरी होता है कि क्रान्तिकारी विज्ञान प्रतिक्रियावादी विचारधाराओं पर अपना
वर्चस्व क़ायम करे। हाँ, यह ज़रूर है कि ज्ञान के संचय का प्रयोग अपने निजी दबदबे को
बढ़ाने और रुआब गाँठने के लिए नहीं किया जाना चाहिए (जोकि पाण्डे का वास्तविक
लक्ष्य है)। लेकिन सही ज्ञान के वर्चस्व को स्थापित करना निश्चित तौर पर एक
क्रान्तिकारी कार्यभार होता है और मार्क्स से लेकर माओ तक ने यही किया; उन्होंने दर्शन से
लेकर राजनीतिक अर्थशास्त्र तक के क्षेत्र में सही विचारों के वर्चस्व को स्थापित
किया और बुर्जुआ विचारों को परास्त किया।
इसके बाद पाण्डे जी पूछते हैं, दर्शन क्या है? उत्तर देते हैं कि यह जीवन को देखने का नज़रिया है। यह बात
भी सटीक नहीं है। यह पूरे विश्व को देखने का नज़रिया है, एक आम पहुँच और पद्धति है जिसे किसी भी विषय-वस्तु के अध्ययन
पर लगाया जा सकता है। यह सिर्फ जीवन को देखने का नज़रिया नहीं है। इसके बाद पाण्डे
जी कहते हैं कि दर्शन पर शासक वर्ग का कब्ज़ा होता है इसलिए उसे जटिल बना दिया
जाता है और भारत में दर्शन को जटिल बना दिया गया क्योंकि इस पर ब्राह्मणों का कब्ज़ा
था। यह सच है कि शासक वर्ग ज्ञान-विज्ञान पर एक रहस्यात्मक पर्दा डालता है, उसे जटिल शब्दावली
में रखता है, ताकि आम जन की उस
तक पहुँच न हो। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि दर्शन अपने आप में कोई सरल वस्तु
है। विज्ञान हमेशा एकदम सरल नहीं हो सकता क्योंकि जिस यथार्थ का वह अध्ययन कर
रहा है, वह भी जटिल होता
है। इसीलिए मार्क्स ने कहा था:
“विज्ञान तक पहुँचने का कोई राजमार्ग नहीं होता, और इसके दीप्तिमान
शिखरों तक जाने का अवसर केवल उन्हीं को मिलता है जो इसके कठिन रास्तों की थका
देने वाली चढ़ाई से डरते नहीं हैं।” (कार्ल मार्क्स, फ्रांसीसी संस्करण की भूमिका, 1872, ‘पूँजी’ खण्ड एक)
दूसरी बात यह है कि विज्ञान एक आबादी के लिए जटिल इसलिए भी
बना रहता है क्योंकि समाज में मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच एक दीवार खड़ी
होती है। जब तक मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम का विभेद रहेगा तब तक हर वैज्ञानिक
बात तक आम मेहनतकश अवाम की सहज रूप में पहुँच नहीं रहेगी। समाजवाद के दौर में भी
जबकि शासक वर्ग स्वयं सर्वहारा वर्ग होगा और वह ज्ञान का रहस्यीकरण (mystification) नहीं करेगा और न
ही उसे बैजन्तियाई शब्दजाल में बाँधेगा, तो भी विज्ञान की हर बात तक जनता के सभी हिस्सों की सहज
रूप में पहुँच नहीं होगी, क्योंकि समाजवादी समाज में तीन महान अन्तरवैयक्तिक
असमानताएँ मौजूद होंगी। ये जिस हद तक समाप्त होंगी, उस हद तक विज्ञान के तमाम पहलू आम मेहनतकश जनता के लिए भी
पहुँच के भीतर आते जायेंगे। कम्युनिस्ट समाज में भी किसी भी नये के अनुसन्धान की
और उससे नि:सृत होने वाले ज्ञान के सरल होने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसलिए
दर्शन का जटिल होना, महज़ शासक वर्गों का कोई षड्यंत्र नहीं है, हालाँकि शोषक शासक वर्ग भी अपने हितों के लिए ज्ञान का रहस्यीकरण
करते हैं।
पहले वीडियो के अन्त में पाण्डे जी भाववाद और भौतिकवाद की
अपनी मौलिक परिभाषाएँ पेश करते हैं। इन्हें सुनकर भी आप उतने ही हतप्रभ होंगे, जितना कि आप मूल्य, श्रम, मुनाफे़ आदि की
उनकी प्रस्थापनाओं पर हुए थे। उनका कहना है कि भाववाद में अधिकांश ईश्वरवादी
दर्शन रहे हैं, और कुछ प्रकृति को
प्रमुख मानते हैं। इन दोनों का ही मानना है, पाण्डे के अनुसार, कि आप कुछ तय नहीं कर सकते, सबकुछ पहले से तय है। यह पूरी परिभाषा ही भयंकर चुगदपने से
भरी हुई है। पहली बात, सभी भाववादी दर्शन ईश्वरवादी नहीं होते हैं; कोई भी दर्शन जो कि चेतना को प्राथमिक और प्रमुख मानता है
और पदार्थ को गौण, वह भाववादी होता है। इसमें भाववाद के ऐसे संस्करण भी आते हैं जो किसी परम
चेतना (देमी उर्गोस) या ईश्वर की बात नहीं करते, बल्कि स्व-चेतना की ही बात करते हैं; मनोगतवाद निरीश्वरवादी भी होता है और वह अपनी स्व-चेतना
को प्रमुख और प्राथमिक मानता है; अहंमात्रवाद (solipsism) भी भाववाद ही है। युवा हेगेलवाद भी एक ऐसी दार्शनिक धारा
थी, जिसके कई प्रमुख
लोग निरीश्वरवादी थे लेकिन फिर भी उनका दर्शन भाववादी था। लुब्बेलुबाब यह कि भाववाद को ईश्वरीय या ईश्वरवादी दर्शनों में अपचयित
(रिड्यूस) करना मूर्खतापूर्ण है। जो भी दर्शन के इतिहास से वाकिफ़ है, वह इस बात को जानता है। भाववाद
की सबसे आम परिभाषा यही हो सकती है कि वह दर्शन जो कि चेतना को पदार्थ का एक गुण
और इस रूप में गौण नहीं बल्कि उसे प्राथमिक और प्रधान मानता है वह भाववाद है।
दूसरी मूर्खता जो पाण्डे जी ने की है वह यह है कि भाववाद को नियतिवाद (fatalism) और नियतत्ववाद (determinism) में अपचयित कर
दिया है। भाववाद के सबसे भोंडे संस्करण ही यह दावा करते हैं कि सबकुछ पहले से तय
है, निर्धारित है।
भाववाद के ही रूप अज्ञेयवाद, प्रत्यक्षवाद और क्रिटिकल फ़िलॉसफ़ी भी हैं, जोकि कतई निर्धारणवादी
या निश्चयवादी नहीं हैं और किसी भी रूप में यह नहीं मानते कि सबकुछ पहले से ईश्वर
द्वारा तय है, या किसी अलौकिक
शक्ति द्वारा तय है। लुब्बेलुबाब यह कि भाववाद को नियतिवाद (fatalism) या नियतत्ववाद (determinism) में अपचयित नहीं
किया जा सकता है। आख़िरी बात, भाववाद का कोई स्कूल यह नहीं कहता है कि प्रकृति के नियमों
से चीज़ें निर्धारित होती हैं। कुछ यांत्रिक भौतिकवादी स्कूल ज़रूर यह बात कहते
हैं। पता नहीं पाण्डे जी ने यह कहाँ पढ़ लिया कि भाववाद प्रकृति की प्रधानता को
मानता है! स्पिनोज़ा वह दार्शनिक था
जिसने प्रकृति की प्रधानता के भौतिकवादी सिद्धान्त को स्थापित किया हालाँकि उसका
भौतिकवाद कारणात्मकता (causality) और निर्धारण (determination) को मिलाने के चलते नियतत्ववाद और यांत्रिकता का भी शिकार
था। प्रकृति को ही ईश्वर बताने वाले स्पिनोज़ा अपनी पहुँच और पद्धति से एक
भौतिकवादी दार्शनिक थे, हालाँकि यह यांत्रिक भौतिकवाद था और द्वन्द्वात्मक नहीं
था। लेकिन भौतिकवादी होकर भी स्पिनोज़ा नियतत्ववाद के शिकार थे। इसलिए भाववाद
अनिवार्यत: निर्धारणवाद नहीं होता, और न ही इन दोनों को गड्डमड्ड किया जा सकता है। लेकिन पाण्डे जी ने अपने मन से कुछ भी बक
दिया है क्योंकि एक अख़बारी लेखक और साहित्यकार बनने के बाद उनका अगला लक्ष्य
है मार्क्सवादी बुद्धिजीवी के रूप में अपनी छवि निर्मित करना! इसके लिए वह कुछ पढ़ लेते तो इतनी फ़जीहत नहीं होती।
पहले वीडियो के अन्त में पाण्डे जी श्रोताओं को एक 'टास्क' देते हैं कि वे कम्युनिस्ट घोषणापत्र पढ़ें, जिसे पाण्डे जी तो
केवल साहित्यिक मूल्य, उसके बिम्बों और भाषा के लिए कभी भी एक ही बार में पूरा
पढ़ सकते हैं! अब ज़रा सोचिये! जिस व्यक्ति ने ऊपर बताई गई प्रचण्ड मूर्खतापूर्ण और
अज्ञानतापूर्ण बातें कहीं हैं, उसके बारे में क्या आप सोच सकते हैं कि उसने एक बार भी कम्युनिस्ट पार्टी
का घोषणापत्र पढ़ा है? जिसने एक बार भी कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र पढ़ा होगा, उसे यह तो पता ही होगा कि शोषण किसे कहते हैं, भाववाद किसे कहते हैं, इत्यादि। लेकिन हमारे पाण्डे जी अनगिनत बार कम्युनिस्ट
पार्टी का घोषणापत्र पढ़ चुके हैं, कम-से-कम दो बार पूरी 'पूँजी' पढ़ चुके हैं लेकिन इन्हें ये बुनियादी चीज़ें भी नहीं पता
हैं। तो क्या यह कहना नहीं चाहिए कि यह एक निकृष्ट कोटि का मूर्ख करियरवादी, बौना, झूठा, मक्कार किस्म का व्यक्ति है, जो आत्म-महानता के विभ्रम में इस हद तक जकड़ा हुआ है, कि उसे पागलपन भी कहा जा सकता है। यह तो केवल पहले वीडियो की समीक्षा है। बाकी के तीन वीडियो, जो अब तक यह व्यक्ति
ऑनलाइन डाल चुका है, उनकी समीक्षा जारी रहेगी और उसमें हम आपको और विस्तार से दिखायेंगे कि यह
बौद्धिक पिग्मी कितना मूर्ख है। हिन्दी जगत के संजीदा नौजवानों, बुद्धिजीवियों और
कार्यकर्ताओं से इतना ही कहेंगे कि ऐसे नकली विद्वानों और मक्कार करियरवादियों से
सावधान रहें।
हण्ड्रेड फ्लावर्स मार्क्सिस्ट स्टडी ग्रुप, दिल्ली
विश्वविद्यालय
30 मई, 2020. दिल्ली
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