Sunday, 19 July 2020

“मार्क्‍सवादी अध्‍ययन चक्र” के नाम पर बाँटे जा रहे अज्ञान, मूर्खता और झूठ का आलोचनात्‍मक विवेचन - छठी किश्‍त


वेदान्‍त को अन्‍धकार में धकेलते हुए दर्शन और इतिहास के साथ पाण्‍डे ने कैसे किया दुराचार!
(अशोक कुमार पाण्‍डे द्वारा मार्क्‍सवादी अध्‍ययन चक्र में फैलायी जा धुन्‍ध का आलोचनात्‍मक विवेचन) (छठां भाग)
·         हण्‍ड्रेड फ्लावर्स मार्क्सिस्‍ट स्‍टडी ग्रुप, दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय, दिल्‍ली

पाण्‍डे जी काफी दिनों बाद वापस आये हैं! वेदान्‍त पर बोलने के लिए! 35 मिनट का वीडियो बनाया है उन्‍होंने। लेकिन उसमें 15 मिनट उन्‍होंने हमारे ''गैंग'' के बारे में बोला है! जैसा कि उन्‍होंने पिछली बार भी किया था, अपने नरभसा जाने को छिपाने के लिए उन्‍होंने हमारे ऊपर हमला करने का रास्‍ता अपनाया है और उसमें भी उन्‍होंने हमारी आलोचनाओं में अब तक उठाए गए एक भी प्रश्‍न का जवाब नहीं दिया है, बल्कि कुत्‍साप्रचार और गाली-गलौच के अपने पुराने तरीके का इस्‍तेमाल ही किया है, जिसमें वह अभ्‍यास करते-करते माहिर हो चुके हैं! हालांकि इस पूरे दौरान वह दावा करते रहे कि हम लोग तो उनके लिए कोई मायने ही नहीं रखते, हम तो नाचीज़ हैं, हमसे वह एक शब्‍द भी नहीं कहना चाहते और इसके बाद 35 मिनट में से 15 मिनट तक वह हमारे बारे में ही दांत पीस-पीसकर बोलते रहते हैं! हम समझ सकते हैं उनके दिल की हालत! किसी दलाल दुकानदार के धंधे पर डण्‍डा पड़े तो वह इसी प्रकार पिनपिनाता है!
20 मिनट में इस बार के अध्‍ययन चक्र के विषय पर, यानी वेदान्‍त के बारे में वह जो बताते हैं, उसमें वह फिर से वही कमाल करते हैं: इतने छोटे-से समय में भी उन्‍होंने अपने ''दिव्‍य ज्ञान'' का ज़बर्दस्‍त प्रदर्शन किया है, जिसमें तथ्‍यात्‍मक भूलों से लेकर अवधारणात्‍मक भूलें तक भरी हुईं हैं। हमें इसकी ही उम्‍मीद भी थी। वैसे तो पाण्‍डे जी ने इस बार काफी सावधानी बरतने की कोशिश की है। मसलन, ''हैण्‍ड-वेविंग'' करते हुए ''एक्‍सटेम्‍पोर'' बोलने की बजाय, वह लगातार पढ़कर बोल रहे हैं। स्‍कूल के नकलची बच्‍चों की तरह वह ढेर सारे खर्रे बना कर लाए हैं! लेकिन उन खर्रों से नकल भी वह ठीक से नहीं कर पाए हैं! आइये देखते हैं कि पाण्‍डे जी ने इस बार क्‍या गुल खिलाए हैं।
पहले तो वह श्रोताओं से माफी मांगते हैं कि उन्‍होंने इतने दिनों बाद मार्क्‍सवादी स्‍टडी सर्किल का अगला वीडियो बनाया। पहले हम देख लेते हैं कि पाण्‍डे जी खुद इस विलम्‍ब का क्‍या कारण बताते हैं। उसके बाद हम इस विलम्‍ब के असली कारणों के बारे में कुछ तार्किक अटकलबाजियां करेंगे!
पाण्‍डे जी का कहना है कि उनकी तबियत ख़राब थी, कमज़ोरी हो गयी थी, इसीलिए किसी अन्‍य कार्यक्रम के वीडियो में भी वे पानी पी-पीकर बोल रहे थे, लेकिन अब वह फिट महसूस कर रहे हैं! लेकिन यह असल कारण नहीं लगता है। असल कारण यह लगता है कि पाण्‍डे जी यह समझ गये हैं कि जैसी मूर्खतापूर्ण ग़लतियां उन्‍होंने अपने पिछले पांच वीडियोज़ में की हैं, उसकी वजह से उनकी काफी छीछालेदर हुई है। हमारी आलोचनाओं को पढ़कर हमारे पास तमाम लोगों के सन्‍देश व कॉल आए, जिन्‍होंने बताया कि इन आलोचनाओं से हिन्‍दी जगत के पाठकों की काफ़ी मदद हो रही है और एक बौद्धिक बहुरूपिये और चार सौ बीस की सच्‍चाई सामने आ रही है। पाण्‍डे जी को भी मालूम है कि रुख से नक़ाब सरक गया है! इसलिए पाण्‍डे जी काफी दिन तक अगला वीडियो बनाने का साहस जुटाते रहे।
जब थोड़ा हिम्‍मत आ गयी, तो उन्‍होंने सोचा कि इस बार तैयारी करके और पढ़कर बोलूंगा ताकि कोई ग़लती ही न हो। इसलिए वह इस बार काफी सावधान नज़र आये, कई बार खुद से होने वाली ग़लतियों की सम्‍भावना की चर्चा की, यह कहने की बजाय कि ''मैंने मार्क्‍सवाद काफी पढ़ रखा है'', उन्‍होंने इस बार कहा है कि ''जिन्‍दगी में मैंने बस दो-चार किताबें पढ़ी हैं, उससे कुछ ज्ञान मेरे पास आ गया है और उसी को मैं बांट रहा हूं''! याद करें, कि पहले से लेकर चौथे वीडियो तक में यह शख्‍़स कैसे दावे कर रहा था: ''मैंने 'पूंजी' पहली बार 7 दिन में पढ़ ली थी और फिर दोबारा पढ़ी''; ''मैं रोज़ा लक्‍जेमबर्ग की संग्रहीत रचनाएं अपने पास रखता हूं'', ''मार्क्‍सवाद मैंने काफी हद तक पढ़ लिया है'', वगैरह!
क्‍या आप लोगों को पाण्‍डे जी के रवैये में कुछ परिवर्तन नज़र आ रहा है? हमें तो साफ़ नज़र आ रहा है और हमारे विचार में किसी भी व्‍यक्ति को नज़र आ ही जायेगा। ये परिवर्तन क्‍या हैं? पहला परिवर्तन है कि पाण्‍डे जी ने अपना बड़बोलापन कम कर दिया है। दूसरा परिवर्तन यह है कि वह काफी सावधान हो गये हैं। और तीसरा परिवर्तन यह है कि स्‍वत:स्‍फूर्त प्रवाह में बोलने की बजाय वह 90 प्रतिशत चीज़ें अपने बनाए खर्रों और किताबों से पढ़कर बोल रहे हैं, ताकि ग़लती की कोई गुंजाइश न रहे। लेकिन चूंकि पाण्‍डे जी अन्‍दर से एक घमण्‍डी मूर्ख हैं, इसलिए यह ढोंग भी ज्‍यादा काम नहीं आया है। आपने सियार की कहानी तो सुनी ही होगी। कितना ही रंगरोगन कर ले, हुंआने से कैसे बाज़ आयेगा?
पाण्‍डे जी की बेईमानी इसके बाद शुरू होती है।
उन्‍होंने वेदान्‍त जैसे विषय पर आलोचनात्‍मक विवेचना करने के भारी कार्य के लिए 35 मिनट के वीडियो में से 15 मिनट तो हमारे बारे में गाली-गलौच और कुत्‍साप्रचार पर खर्च कर दिये! अगर वह गाली-गलैाच और कुत्‍साप्रचार की अपनी पुरानी हरक़त को दुहराते हुए यह भी बता देते कि हमारी अब तक पेश आलोचनाओं (पाण्‍डे जी के शब्‍दों में ''घटिया लेख''!) में क्‍या ग़लती है, हमने क्‍या ग़लत आलोचना पेश की है, तो भी हम उनकी घटिया बातों को नज़रन्‍दाज़ कर देते। मसलन, उन्‍हें निम्‍न चीज़ों का जवाब देना चाहिए था:
1. क्‍या उन्‍होंने यह कहा था कि मज़दूरों को ''अपने श्रम के मोल से कम मज़दूरी मिलती है और इसी से पूंजीपति का मुनाफ़ा आता है''? अगर कहा था तो यह स्‍पष्‍ट है कि उन्‍हें मार्क्‍सवादी राजनीतिक अर्थशास्‍त्र का 'क ख ग' भी नहीं आता है, 'पूंजी' 7 दिनों में पढ़ने की बात तो बहुत दूर की है। क्‍योंकि श्रम और श्रम शक्ति का अन्‍तर तक पाण्‍डे को नहीं पता है, जो कि मार्क्‍स के राजनीतिक अर्थशास्‍त्र की बुनियाद है। पाण्‍डे जी ने इसका जवाब क्‍यों नहीं दिया?
2. क्‍या पाण्‍डे जी ने भाववाद को ईश्‍वरवाद और नियतत्‍ववाद में अपचयित किया है या नहीं? यदि हां, तो स्‍पष्‍ट है कि पाण्‍डे जी को भाववाद की बुनियादी समझदारी भी नहीं है। पाण्‍डे जी को इस आलोचना का जवाब देना चाहिए था।
3. क्‍या उन्‍होंने चार्वाक दर्शन को गुप्‍त वंश के काल में पहुंचाया था? यदि हां, तो स्‍पष्‍ट है कि उनमें इतनी भी शर्म नहीं है कि चार्वाक दर्शन पर मार्क्‍सवादी स्‍टडी सर्किल करने से पहले कम-से-कम यह तो पढ़ लेते कि चार्वाक दर्शन का काल क्‍या था। पाण्‍डे जी इसका जवाब देने से क्‍यों भाग गये?
4. क्‍या पाण्‍डे जी ने 16 कबीलाई गणराज्‍यों को पहली सदी ईसवी में पहुंचाया या नहीं? यदि हां, तो उनको इस विषय पर क्‍लास लेने से पहले थोड़ा पढ़ नहीं लेना चाहिए था? पाण्‍डे जी ने नये वीडियो में 15 मिनट हमारे ऊपर गाली-गलौच का कचरा फेंकने में खर्च करने की बजाय, इस ठोस सवाल का जवाब क्‍यों नहीं दिया?
5. क्‍या पाण्‍डे जी ने के. दामोदरन की पुस्‍तक का नाम ग़लत बताया (पहले उन्‍होंने 'भारतीय दर्शन में क्‍या जीवन्‍त है और क्‍या मृत' बताया जो कि डी. पी. चट्टोपाध्‍याय की किताब है) और फिर क्‍या इस ग़लती को ठीक करने के नाम पर फिर से दामोदरन की पुस्‍तक का नाम ग़लत बताया (दूसरी बार पाण्‍डे जी ने इसका नाम 'भारतीय दर्शन परम्‍परा' बताया, जबकि पुस्‍तक का नाम है 'भारतीय चिन्‍तन परम्‍परा')? यदि यह सच है तो पाण्‍डे जी को इसका जवाब देना चाहिए था, बजाय हमारे ''गैंग'' के बारे में निन्‍दा रसपान करने के!
6. क्‍या पाण्‍डे जी ने हावर्ड जिन की पुस्‍तक को 'ए पीपल्‍स हिस्‍ट्री ऑफ दि वर्ल्‍ड' बताया था (जो कि वास्‍तव में क्रिस हरमन की पुस्‍तक है; हावर्ड जिन की पुस्‍तक का नाम है 'ए पीपल्‍स हिस्‍ट्री ऑफ दि यूनाइटेड स्‍टेट्स'!)? अगर हां, तो उन्‍हें पहले यह बताना चाहिए कि उन्‍होंने जिन की पुस्‍तक को पढ़ने का दावा कैसे किया जब उन्‍हें उसका नाम तक सही नहीं पता है? लेकिन पाण्‍डे जी दांत पीस-पीसकर गाली देने में लगे हुए थे, क्‍योंकि हमने उनके बौद्धिक दीवालियापन को सबके सामने लाने का गुनाह कर दिया है!
7. क्‍या पाण्‍डे जी ने बुद्ध और साथ ही चार्वाक के युग को सामन्‍तवाद का युग बताया या नहीं? यदि हां, तो स्‍पष्‍ट है कि पाण्‍डे जी को वह भी याद नहीं रहा है, जो सातवीं-आठवीं में उन्‍होंने इतिहास की पुस्‍तक में पढ़ा होगा और आज किसी भी स्‍कूली बच्‍चे को भी पता है, जो इतिहास विषय का अध्‍ययन करता है। पाण्‍डे जी ने इस बात का जवाब क्‍यों नहीं दिया?
8. पाण्‍डे जी ने यह कहा कि नहीं कि छोटे और बड़े कामों की अवधारणा के पीछे कम और ज्‍यादा वेतन होता है? यदि हां, तो स्‍पष्‍ट है कि श्रम विभाजन और उसके साथ जुड़ी मूल्‍य-मान्‍यताओं के विकसित होने की मार्क्‍सवादी समझदारी से पाण्‍डे जी पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं। क्‍या पाण्‍डे जी को हमारी आलोचना के 20-30 या 40 पेज के होने पर छाती पीटने की बजाय, इस बात का जवाब नहीं देना चाहिए था?
9. क्‍या पाण्‍डे जी ने यह बोला या नहीं कि कि प्राचीन जनपदों के काल में शूद्र वैश्‍यों के कारखानों (?!) में ''कम मज़दूरी पर काम करते थे''? यदि हां, तो स्‍पष्‍ट है कि पाण्‍डे जी को न तो कारखाना शब्‍द का अर्थ पता है और न ही मज़दूरी शब्‍द का और न ही भारतीय इतिहास की बुनियादी जानकारी उनके पास है। फिर स्‍टडी सर्किल लेने क्‍यों बैठ गये? पहले पढ़ लेते और सही ज्ञान देते तो हमें ऐसे निकृष्‍ट किस्‍म के ''व्‍याख्‍यानों'' की आलोचना करने की ज़हमत नहीं उठानी पड़ती, जो कि हमें इसलिए उठानी पड़ी क्‍योंकि कई संजीदा लेकिन असावधान युवा व बुद्धिजीवी इस कपटी के चक्‍कर में आ जाते हैं।
10. क्‍या पाण्‍डे जी ने यह कहा है कि शूद्र इसलिए शूद्र बने क्‍योंकि वे बौद्धिक तौर पर कमज़ोर थे? यदि हां तो क्‍यों न माना जाये कि पाण्‍डे जी का जनेऊ उनके झीने कुर्ते से झलक गया! कायदे से क्‍या पाण्‍डे जी को इसका जवाब नहीं देना चाहिए था?
ऐसी दर्जनों ग़लतियां, तथ्‍यात्‍मक भी और अवधारणात्‍मक भी, पाण्‍डे जी के व्‍याख्‍यानों में भरी हुईं हैं, जिनकी हमने विस्‍तृत आलोचना पेश की क्‍योंकि हिन्‍दी जगत की यह दरिद्रता है कि पाण्‍डे जैसे अनपढ़, मूर्ख, झूठे और ढोंगी बुद्धिजीवी बने फिरते हैं और मार्क्‍सवाद के बारे में जानने की प्‍यास रखने वाले तमाम युवाओं को फंसाते रहते हैं। और ऊपर से विडम्‍बना यह है कि तमाम हिन्‍दी जगत के बुद्धिजीवी इस व्‍यक्ति के आपराधिक कारनामों पर सबकुछ जान कर भी चुप्‍पी साधे रहते हैं। नतीजतन, उसके भण्‍डाफोड़ का काम भी हम छात्रों को करना पड़ रहा है, जो कि मार्क्‍सवाद के विद्यार्थी हैं। क्‍योंकि पाण्‍डे की मूर्खताओं का खण्‍डन करने के लिए मार्क्‍सवाद के बुनियादी सिद्धान्‍तों की जानकारी ही पर्याप्‍त है क्‍योंकि यह व्‍यक्ति मार्क्‍सवाद के सिद्धान्‍तों के बारे में जानकारी रखना तो दूर, इतिहास, दर्शन आदि के बारे में उतनी जानकारी भी नहीं रखता जितना कि 12वीं के विद्यार्थी रखते हैं। अगर हमारी आलोचनाएं ग़लत हैं, तो पाण्‍डे को उनका लिखित रूप से खण्‍डन करना चाहिए था और सन्‍दर्भों व प्रमाणों के साथ उनको रद्द कर देना चाहिए था।
लेकिन हमारी आलोचनाओं में इंगित की गयी ग़लतियों पर कोई जवाब देने की बजाय पाण्‍डे जी गाली-गलौच पर उतर आए हैं, हमें ''गैंग'', ''धंधेबाज़'', ''चन्‍दाखोर'' आदि की संज्ञा दे रहे हैं। वैसे तो हम पाण्‍डे जैसे तत्‍व से इस बात की उम्‍मीद नहीं करते हैं कि वह क्रान्तिकारी संगठनों के काम करने के लेनिनवादी उसूलों का समझे, यह समझे कि क्रान्तिकारी संगठन उसूलन जनता के बीच से ही अपने संसाधनों को जुटाते हैं और यह महज़ कोई वित्‍तीय या आर्थिक प्रश्‍न नहीं है, बल्कि एक राजनीतिक प्रश्‍न है, जैसा कि लेनिन ने बताया है। ज़ाहिर है, किसी भी मध्‍यवर्गीय पतित बुद्धिजीवी और नौकरशाह के समान उसे यह प्रक्रिया ''धंधेबाज़ी'' और ''चन्‍दाखोरी'' ही दिखेगी, और इसी पैमाने से उसे लेनिन से लेकर माओ तक की पार्टियां/संगठन ''धंधेबाज़, चन्‍दाखोर गैंग'' ही नज़र आएंगे। हमें इस बात पर पाण्‍डे से कोई नाराज़गी नहीं है। यह तो उसकी राजनीतिक वर्गीय अवस्थिति है, जो उसके गन्‍दे मुंह से बजबजाकर निकल रही है। उसका कोई दोष नहीं है।
यही कारण है कि पाण्‍डे को गर्व है कि क्रान्तिकारी आन्‍दोलन से जो भी पतित तत्‍व निकाल बाहर किये जाते हैं, या डर कर भाग जाते हैं (जैसे कि स्‍वयं पाण्‍डे भाग गया था!) उनके लिए पाण्‍डे ने रोज़गार केन्‍द्र खोल रखा है। पाण्‍डे गर्व से घोषणा करता है कि ऐसे न जाने कितने लोगों को उसने नौकरियां दिलवाईं, इण्‍टर्नशिप दिलवाई, पढ़ाई करवाई, इत्‍यादि। मज़ेदार बात देखिये कि अपने आपको एक मार्क्‍सवादी कहने वाला यह व्‍यक्ति इस प्रकार की घिनौनी बातें भी आत्‍मधर्माभिमानता और गर्वबोध के साथ करता है! ऐसे व्‍यक्ति को यदि अब तक हमने ढोंगी, पतित, मूर्ख और अनपढ़ कहा है, तो पाठक समझ सकते हैं कि क्‍यों कहा है। हम तो यही कह सकते हैं कि ऐसे पतित तत्‍वों और भगोड़ों के लिए पाण्‍डे जी अपना रोज़गार केन्‍द्र चलाते रहें, उन्‍हें भी तो कहीं जीना है समाज में, उन्‍हें भी तो क्रान्तिकारी संगठनों और मार्क्‍सवाद को कलंकित करने का अपना काम जारी रखना है!
बहरहाल, पाण्‍डे जी हमारे ''गैंग'' की ख़बर लेने से पहले ''दो-तीन'' बातें शेयर करते हैं!
पाण्‍डे जी बताते हैं कि पहली बात तो यह है कि उन्‍होंने मार्क्‍सवाद को समझने के लिए जो प्रक्रिया अपनाई है वह यह है कि मार्क्‍सवादी दर्शन तक दर्शन का विकास पहुंचा कैसे, इसे पाश्‍चात्‍य दर्शन और भारतीय दर्शन के विकास के ज़रिये दिखलाएं। पाण्‍डे जी बताते हैं कि आज के वीडियो में वेदान्‍त के साथ भारतीय दर्शन पर चर्चा समाप्‍त होगी (हालांकि, यह भारतीय परिप्रेक्ष्‍य में यह नहीं दिखलाता है कि मार्क्‍सवादी दर्शन तक दर्शन का विकास कैसे पहुंचा) और अगले दो-तीन वीडियो में वह पाश्‍चात्‍य दर्शन के बारे में बताएंगे (!!)। अपने आप में इस योजना में कोई बुराई नहीं थी। बस अगर पाण्‍डे जी पढ़कर, समझकर सही से बताते तो हिन्‍दी जगत पर उनकी मेहरबानी होती! लेकिन हम पाण्‍डे जैसे व्‍यक्ति से इसकी उम्‍मीद करने की नादानी नहीं कर सकते हैं।
इसके बाद पाण्‍डे जी उस बिन्‍दु पर आते हैं, जिसे हमें इज्‍जत बचाने के लिए पेश किया गया 'अपोलोजिया' (apologia) कह सकते हैं। पाण्‍डे को पता है कि पिछले वीडियोज़ की जो आलोचना पेश की गयी है, उससे हिन्‍दी जगत के बौद्धिक दायरों व तमाम पढ़ने-लिखने वाले युवाओं में उसकी जमकर मट्टी पलीद हुई है। इसलिए वह कहता है कि आप उससे यह उम्‍मीद न करें कि आधे-एक घण्‍टे की वीडियो के आधार पर आप मार्क्‍सवादी दर्शन के विद्वान बन जाएंगे, मेरा काम तो बस उत्‍सुकता पैदा करना है और उसके अंग के तौर पर ही मैं कुछ किताबें बता देता हूं, ताकि आप पढ़ें, खुद शोध करें, और भी ज्‍यादा अच्‍छी किताबें पढ़ें। यह तो इस नये वीडियो का सबसे बड़ा चुटकुला हो गया! मतलब, इस आदमी ने जिन भी किताबों का नाम बताया, उसमें से 90 फीसदी ग़लत बताया। न जाने कितने ज्ञान के प्‍यासे युवा अब तक इस मूर्ख के बताने पर हावर्ड जिन की पुस्‍तक 'ए पीपल्‍स हिस्‍ट्री ऑफ दि वर्ल्‍ड' ढूंढ रहे होंगे (जो कि क्रिस हरमन की पुस्‍तक है, जिन की नहीं!), कितने लोग के. दामोदरन की पुस्‍तक 'भारतीय दर्शन परम्‍परा' ढूंढ रहे होंगे (जिसकी असल नाम है 'भारतीय चिन्‍तन परम्‍परा')! उसके बावजूद इस आदमी की बेशर्मी को देखिये! वह कह रहा है कि वह हर बार लोगों के स्‍वाध्‍याय के लिए कुछ अच्‍छी पुस्‍तकें बता देता है! अब तो हालत यह हो गयी है कि जब भी कोई महामूर्ख अपने ज्ञान पर इतराता है, तो वह हमें बिल्‍कुल पाण्‍डे की याद दिलाता है। पाण्‍डे को और किसी बात पर नहीं तो इस बात पर तो गर्व होना ही चाहिए उसने मूर्खता के नये प्रतिमान स्‍थापित कर दिये हैं, बल्कि कह सकते हैं कि वह स्‍वयं मूर्खता का एक जीता-जागता रूपक या मुहावरा बन गया है! घमण्‍ड और मूर्खता के इस बदबूदार मिश्रण का एक उदाहरण देखिये! जैसे कि पाण्‍डे बोलता है कि उसने ऐसे ही पढ़ना सीखा, उसने ऐसे ही गांधी को पढ़ा, नेहरू को पढ़ा, कश्‍मीर एयरपोर्ट (वैसे इस नाम का कोई एयरपोर्ट नहीं है, जो नाम है वह है शेख उल आलम इण्‍टरनेशनल एयरपोर्ट, जिसे श्रीनगर एयरपोर्ट भी कहा जाता है, लेकिन हम यहां सन्‍देह का लाभ दे देते हैं कि ज़बान फिसल गयी होगी) से उसने कश्‍मीर पर पांच पुस्‍तकें खरीदीं और वहां से शुरुआत करके आज वह दो-ढाई सौ पुस्‍तकें पढ़ चुका है। यदि घमण्‍डी व्‍यक्ति मूर्ख हो, तो वह विनम्रता का कितना भी चोगा ओढ़े, उसका घमण्‍ड उसके चोगे से लुढ़ककर गिर ही जाता है! कोई मार्क्‍सवादी व्‍यक्ति यदि कश्‍मीर पर दो-ढाई सौ पुस्‍तकें पढ़ेगा, तो वह 'कश्‍मीरनामा' जैसी सड़कछाप किताब नहीं लिख सकता है, जोकि चौर्यलेखन और पैराफ्रेजिंग से भरी हुई हो! कम-से-कम उसमें कुछ मौलिक शोध दिखाई देता। लेकिन पाण्‍डे की किताब हिन्‍दी जगत में कश्‍मीर पर लिखी गयी बेहद कम किताबों में से एक होने के कारण, और कुछ पाण्‍डे की नेटवर्किंग, रैकेटीयरिंग और मस्‍का-लगाओ-कला के कारण चर्चित हो गयी, जो कि बड़े दुख की बात है। जैसा कि हमने पहले भी कहा है, इस दो कौड़ी के सड़कछाप काम की असलियत को अनावृत्‍त करने का काम भी हम जल्‍दी ही करेंगे। लेकिन अभी इतना देखना काफी है कि मूर्खता और घमण्‍ड का संलयन कितना घातक हो सकता है, और किसी हद तक हास्‍यास्‍पद भी।
इसके बाद पाण्‍डे जी दिखला देते हैं कि उन्‍होंने मार्क्‍सवाद पर अध्‍ययन चक्र शुरू तो कर दिया है, लेकिन मार्क्‍सवाद के एक बुनियादी सिद्धान्‍त, यानी मार्क्‍सवादी ज्ञान मीमांसा से वह दूर-दूर तक वाकिफ नहीं हैं। इसे ज्ञान का मार्क्‍सवादी सिद्धान्‍त भी कहते हैं, जिसके बारे में माओ ने अपना प्रसिद्ध लेख 'व्‍यवहार के बारे में' लिखा है। पाण्‍डे जी बोलते हैं कि ''ज्ञान प्राप्ति का रास्‍ता अन्‍तत: किताबों से होकर जाता है।'' जिसने भी मार्क्‍सवाद का 'क ख ग' भी पढ़ा है वह जानता है कि ज्ञान का रास्‍ता शुरू भी व्‍यवहार से होता है, और उसे अपने सत्‍यापन, विकास और शोधन के लिए भी बार-बार व्‍यवहार से गुज़रना पड़ता है। यह सच है कि अपने विकास के हर नये स्‍तर पर परिष्‍कृत ज्ञान (यानी वैज्ञानिक रूप से सामान्‍यीकृत ज्ञान) व्‍यवहार के पथ को भी आलोकित करता है और क्रान्तिकारी आन्‍दोलन के लिए कई दौरों में एक क्रान्तिकारी सिद्धान्‍त की मौजूदगी का प्रश्‍न बुनियादी बन जाता है, लेकिन यह सिद्धान्‍त भी अपने औचित्‍य को व्‍यवहार का पथ आलोकित करके ही सिद्ध कर सकता है। किताबों की निश्चित ही ज्ञान की प्राप्ति की प्रक्रिया में एक अहम भूमिका होती है, लेकिन किताबों में दर्ज ज्ञान भी किसी न किसी के व्‍यवहार के सामान्‍यीकरण का परिणाम होता है और दूसरी बात यह कि किताबों से प्राप्‍त ज्ञान भी तभी जीवन्‍त रह सकता है जबकि उसे प्राप्‍त करने वाला सामाजिक व्‍यवहार से भी जुड़ा हो।
पाण्‍डे का ज्ञान का किताबवादी सिद्धान्‍त मार्क्‍सवाद से कोई सुदूरवर्ती सम्‍बन्‍ध भी नहीं रखता है, बल्कि एक प्रकार पाण्डित्‍यवाद है, मूर्खतापूर्ण पाण्डित्‍यवाद। मज़ेदार बात देखिये कि पाण्‍डे इसके बाद बोलता है कि इसीलिए वह कुछ किताबों के नाम अपने व्‍याख्‍यान के अन्‍त में बता देता है (जो कि हम देख चुके हैं, कि आम तौर पर ग़लत बताता है!)।
इससे भी मज़ेदार बात यह है कि वह कहता है कि अगर आप ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया को समझना चाहते हैं तो माओ का एक लेख पढ़ें जो कि ऑनलाइन आपको मिल जाएगा, जिसका नाम है 'ऑन एजुकेशन'पहली बात तो यह है कि यह कोई लेख नहीं है बल्कि नेपाली शिक्षाशास्त्रियों से बातचीत में माओ द्वारा कही गयीं कुछ संक्षिप्‍त बातों का ट्रांस्क्रिप्‍ट है, जो कि 1964 में माओ से मिले थे। इस ट्रांसक्रिप्‍ट का पूरा शीर्षक है: 'ऑन एजुकेशन: कन्‍वर्सेशन विद दि नेपालीज़ डेलीगेशन ऑफ एजुकेशनिस्‍ट्स'। और अब सबसे मज़ेदार बात: माओ ने आम तौर पर इसमें ज्ञानप्राप्ति की प्रक्रिया के बारे में कुछ नहीं कहा है, जिस लेख में उन्‍होंने ज्ञान प्राप्ति और उसके विकास की प्रक्रिया के बारे में आम तौर पर बात की है, वह है 'ऑन प्रैक्टिस' या 'व्‍यवहार के बारे में'। इसके अलावा, माओ ने 'ऑन एजुकेशन' में ठीक उसके उल्‍टी बात कही है, जो पाण्‍डे यहां कह रहा है। माओ ने बुर्जुआ शिक्षा व्‍यवस्‍था की आलोचना पेश करते हुए कहा है कि स्‍वयं चीन में भी अभी तक इस शिक्षा व्‍यवस्‍था को पूरी तरह बदला नहीं गया है जिसमें कि विद्यार्थी किताबी ज्ञान हासिल करते हैं, लेकिन वास्‍तविक दुनिया के बारे में उनका ज्ञान शून्‍य होता है। वे गेहूं और मक्‍का में फर्क नहीं कर सकते। इस मामले में इंजीनियरिंग के छात्र फिर भी यथार्थ से कहीं रिश्‍ता रखते हैं, उसके बाद शुद्ध विज्ञान के छात्रों का नम्‍बर आता है और सबसे बुरी हालत होती है बुर्जुआ शिक्षा व्‍यवस्‍था में सामाजिक विज्ञानों की, जिन्‍हें पूरी तरह किताबी तरीके से पढ़ाया जाता है और उसका वास्‍तविक दुनिया से कोई रिश्‍ता नहीं होता। माओ यहां ठीक इस बात का विरोध कर रहे हैं कि ज्ञान प्राप्ति का रास्‍ता अन्‍तत: किताबों से होकर जाता है, बल्कि वह इस बात की पुरज़ोर हिमायत कर रहे हैं कि किताबी ज्ञान अधूरा और अव्‍यावहारिक और इस रूप में बेकार होता है, कि वह वास्‍तविक दुनिया में सामाजिक व्‍यवहार से कटा होता है। तो मतलब पाण्‍डे ने माओ के 'ऑन एजुकेशन' को वास्‍तव में पढ़ा नहीं है, और ऐसे ही उसका नाम टपका दिया है ताकि लोग सोचें कि वह ज्ञानी है। यानी एक और झूठ! एक और पाखण्‍ड! अब आप ही सोचिये: क्‍या ऐसे पाखण्‍डी मसखरे को मार्क्‍सवाद पर स्‍टडी सर्किल चलानी चाहिए? क्‍या यह हिन्‍दी जगत के पाठकों के साथ अन्‍याय नहीं है? हम पाण्‍डे को सुनने वाले सभी युवाओं और बुद्धिजीवियों से ये ही प्रश्‍न पूछेंगे और कहेंगे कि खुद सोचिये।
इसके बाद पाण्‍डे जी हमारे ''गैंग'' पर आते हैं! यह उनके पूरे वीडियो का सबसे मज़ेदार हिस्‍सा है। वाकई! आप पूछेंगे क्‍यों? हम बताते हैं।
पहले तो पाण्‍डे जी ने यह बताने के लिए दिमाग़ में काफी मरोड़ पैदा की कि हमारा ''गैंग'' कोई मायने ही नहीं रखता, वह अमहत्‍वपूर्ण है, तुच्‍छ है, उसकी तो औक़ात ही क्‍या है, और यह कि पाण्‍डे जी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम कितनी आलोचनाएं लिखते हैं! लेकिन इसके बाद वह हमारे ''गैंग'' के बारे में कुत्‍साप्रचार और गालियों की बौछार करने में 15 मिनट ख़र्च कर देते हैं! हम तो समझ ही नहीं पाए कि मामला क्‍या है! अगर हम इतने मामूली हैं, कोई मायने नहीं रखते, कोई मतलब नहीं रखते, पाण्‍डे जी के लिए हम कुछ भी नहीं, हमारा कोई वजूद, कोई औकात नहीं, तो पाण्‍डे जी ने वेदान्‍त पर बनाए अपने 35 मिनट के वीडियो में हम तुच्‍छ, इनसिग्निफिकेण्‍ट, लोगों पर 15 मिनट क्‍यों ख़र्च कर दिये?
दूसरी बात, पाण्‍डे जी इतना दांत क्‍यों पीस रहे हैं? वैसे तो पाण्‍डे जी ने ऐसा इसलिए भी किया होगा क्‍योंकि अगर उनको सिर्फ वेदान्‍त पर बोलना होता, तो उनका चुनौटी भर दिमाग़ उनको इतनी ही सामग्री दे पाता कि 15-20 मिनट ही बोल पाते, और वह भी ग़लत-सलत ही बोलते। अभी भी उन्‍होंने वेदान्‍त पर तो 15-20 मिनट ही बोला है, और उसमें भी तथ्‍यात्‍मक और अवधारणात्‍मक ग़लतियों की बौछार कर दी है। लेकिन 15 मिनट हम ''नाचीज़ लोगों'' पर बोलकर उन्‍होंने वीडियो को 35 मिनट का बना दिया! तो एक तरह से पाण्‍डे को हमें धन्‍यवाद देना चाहिए कि हमने उसे गाली-गलौच के ज़रिये वीडियो को लम्‍बा करने का एक मौका दे दिया! ख़ैर, पाण्‍डे का दर्द उसके शान्‍तचित्‍त रहने की नौटंकी को दग़ा दे गया है। उसने दांत पीस-पीसकर हमें गालियां देने और हमारे बारे में कुत्‍साप्रचार करने में जो 15 मिनट ख़र्च किये, उससे इतना तो जगजाहिर हो ही गया कि पाण्‍डे के लिए हम नाचीज़ तो नहीं हैं, जैसा कि वह दावा कर रहा है, और यह भी साबित हो गया कि पाण्‍डे हमारे द्वारा किये गये भण्‍डाफोड़ से थोड़ा हिल गया है! अब देखते हैं कि पाण्‍डे जी बोले क्‍या हैं!
पाण्‍डे जी बोलते हैं कि वेदान्‍त पर बात शुरू करने से पहले तीसरी अहम बात यह है, जिसे मैं यूट्यूब पर वीडियो में एडिट कर दूंगा (क्‍यों? फिर तो आपका वीडियो सिर्फ 15-20 मिनट का ही रह जायेगा, पाण्‍डे जी!), वह यह है कि बहुत से लोगों ने मुझे इनबॉक्‍स करके कहा है कि मैं इस पर बोलूं। फिर पाण्‍डे जी हमारे ''गैंग'' के बारे में मुंह से लीद करना शुरू करते हैं! वह बोलते हैं कि इस ''गैंग'' के सरगना ने अपने लोगों को लगाया है कि मेरा वीडियो सुनें और फिर कोई गुरू जी उनको 20-30-40 पेज की आलोचना लिखकर दें, जिसको वह फेसबुक व व्‍हाट्सएप के ज़रिये सबके इनबॉक्‍स में भेजें! पाण्‍डे जी कहते हैं कि मुझे उन लोगों से (यानी हमारे ''गैंग'' से!) कुछ नहीं कहना है! लेकिन इसके बाद पाण्‍डे जी गुस्‍से में काफी-कुछ कहते हैं। स्‍पष्‍ट है कि पाण्‍डे जी इज्‍जत बचाने का प्रयास कर रहे हैं, जिसका हमारे द्वारा उनके भण्‍डाफोड़ करने की वजह से फालूदा हो गया है! अगर उन्‍हें हमारे ऊपर 15 मिनट ख़र्च करने ही थे, तो बेहतर होता कि हमारे द्वारा पेश आलोचनाओं में उठाए गए सवालों का जवाब दे देते! लेकिन पाण्‍डे जी केवल दांत पीस-पीसकर और पानी पी-पीकर हमें कोसते हैं, वह भी पूरे 15 मिनट तक, वह भी तब जब कि हम उनके लिए कुछ मायने ही नहीं रखते, और वह ''हमसे कुछ नहीं कहना चा‍हते!'' कैसा ग़ज़ब का झूठा और ढोंगी है यह व्‍यक्ति!
पाण्‍डे जी कहते हैं कि हमारे ''गैंग'' को वह 25 वर्षों से जानते हैं। वह आश्‍चर्य में हैं कि हमारी पाण्‍डे जी में क्‍यों दिलचस्‍पी है? पाण्‍डे जी का दावा है कि वह तो हमें भूल चुके हैं! यह भी झूठ है। जो भी पाण्‍डे जी की फेसबुक वॉल को देखते हैं वह जानते हैं कि वह हमें भूले नहीं हैं। आये-दिन वह सबसे पतित किस्‍म के तत्‍वों के साथ मिलकर हमारे बारे में कुत्‍साप्रचार की मुहिम चलाते रहते हैं। क्रान्तिकारी संगठनों को जनता द्वारा सहयोग मिलने को वह चन्‍दाखोरी कहते हैं! हमारे ख़याल से क्रान्ति की उनकी परियोजना में क्रान्तिकारी संगठन/पार्टी फोर्ड फाउण्‍डेशन से पैसे लेकर क्रान्ति करेंगे, या फिर, 'कश्‍मीरनामा' जैसी सड़कछाप किताब लिखकर पैसे बटोरेंगे, या इण्‍टर्नशिप या ग्राण्‍ट लेकर क्रान्ति करेंगे! जहां तक गाली-गलौच का प्रश्‍न है, तो जिन्‍होंने भी हमारे द्वारा लिखित आलोचनाओं को अब तक पढ़ा है, वे जानते हैं कि हमने राजनीतिक विशेषणों का प्रयोग अवश्‍य किया है, लेकिन गाली-गलौच नहीं की है। हां, पाण्‍डे जी ज़रूर गाली-गलौच में लगातार ही संलग्‍न रहे हैं।
अब इस सवाल पर आते हैं कि पाण्‍डे जी में हमारी दिलचस्‍पी क्‍यों है? हमारी दिलचस्‍पी इसलिए है कि हम एक मार्क्‍सवादी अध्‍ययन समूह हैं और मार्क्‍सवाद के बारे में धुंध फैलाने, उसके बारे में मूर्खतापूर्ण बात करने और उसका विकृतिकरण करने वाले किसी भी व्‍यक्ति का खण्‍डन करना, उसकी आलोचना करना और मार्क्‍सवाद के विषय में ग़लत-सलत बातों को सप्रमाण और ससन्‍दर्भ रद्द करना हम अपना फ़र्ज़ मानते हैं। हमने अभी तक पाण्‍डे जी के व्‍याख्‍यानों की अपनी आलोचना में यही किया है। हमारी दिलचस्‍पी पाण्‍डे जी में नहीं, बल्कि तमाम संजीदा नौजवानों व बुद्धिजीवियों में उनके द्वारा फैलाये जा रहे मार्क्‍सवाद के विकृतिकरण के खण्‍डन में है। हर वोग्‍ट जैसे व्‍यक्ति में मार्क्‍स की क्‍या दिलचस्‍पी थी, या ड्यूहरिंग में एंगेल्‍स की क्‍या दिलचस्‍पी थी, या माख़ में लेनिन की क्‍या दिलचस्‍पी थी (हालांकि पाण्‍डे जैसे दरम्‍याने (mediocre) से भी गये-बीते व्‍यक्ति की तुलना वोग्‍ट, ड्यूहरिंग व माख़ से करना भी प्रहसनात्‍मक ही होगा!)? तो पाण्‍डे जी इस मुग़ालते में मत रहिये कि हमारी आपमें कोई दिलचस्‍पी है। 'हण्‍ड्रेड फ्लावर्स' की ओर से हम पहले भी मार्क्‍सवाद के विकृतिकरण के तमाम प्रयासों की आलोचनाएं रखते रहे हैं, क्‍योंकि हमारी दिलचस्‍पी मार्क्‍सवाद की क्रान्तिकारी और वैज्ञानिक अन्‍तर्वस्‍तु और उसकी सटीकता की रक्षा करने में है। अगर पाण्‍डे जी से कोई खुन्‍नस होती तो उनकी बखिया तो बहुत-से परिधिगत प्रश्‍नों पर पहले ही उधेड़ी जा सकती थी। आज हमने उनके मूर्खतापूर्ण व्‍याख्‍यानों की चीर-फाड़ करने का काम इसलिए हाथ में लिया है, क्‍योंकि पाण्‍डे जी क्रान्ति के विज्ञान यानी मार्क्‍सवाद का हिन्‍दी जगत में एक मूर्खता की अतिरेकपूर्ण हदों तक विकृत संस्‍करण फैला रहे हैं, जिसमें न तो सूचनाएं दुरुस्‍त हैं और न ही तर्क।
पाण्‍डे जी का मानना है कि हम मार्क्‍सवाद पैसे लेकर पढ़ाते हैं, जबकि वह फ्री में मार्क्‍सवाद का ज्ञान बांट रहे हैं और इसलिए हमारे ''धंधे'' को पाण्‍डे जी से ख़तरा है और इसीलिए हम उनके पीछे पड़े हुए हैं। पाण्‍डे जी अपने आपको एक निरीह बुद्धिजीवी के रूप में प्रस्‍तुत करते हैं, कि वह तो बस पढ़ते-लिखते हैं, न काहू से दोस्‍ती न काहू से बैर रखते हैं, और जाहि बिधि रखे राम ताहि बिधि रहते हैं! वह करुण स्‍वर में पूछते हैं कि ये लोग (यानी हमारा ''गैंग''!) क्‍यों उनके पीछे हाथ धोकर पड़ गया है? क्‍या इसीलिए कि पाण्‍डे जी हमारे ''गैंग'' का ''धंधा'' ख़राब कर रहे हैं, क्‍योंकि हमारा ''माल'' (यानी मार्क्‍सवाद का ज्ञान!) वह फ्री में बांटकर बाज़ार में उसकी कीमत गिरा रहे हैं? पाण्‍डे जी हर चीज़ के बारे में ऐसे ही सोचते हैं: ''धंधा'', ''माल'', ''नफा'', ''नुकसान'', वगैरह। इसलिए इससे आगे उनकी कूपमण्‍डूक दृष्टि जाती नहीं है। जहां तक 'हण्‍ड्रेड फ्लावर्स' ग्रुप का सवाल है, तो हमारे अध्‍ययन चक्र निशुल्‍क रूप से दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में पिछले पन्‍द्रह वर्षों से चलते हैं। लेकिन यदि कोई क्रान्तिकारी पार्टी अपने किसी बौद्धिक फोरम के ज़रिये मार्क्‍सवाद पर कार्यशालाओं का आयोजन करती है, उसमें दर्जनों लोगों के कई दिनों तक मार्क्‍सवाद में शिक्षण-प्रशिक्षण की व्‍यवस्‍था करती है, उनके एक स्‍थान पर रुकने, खाने-पीने का पूरा इन्‍तज़ाम करती है, और ऐसी कार्यशालाओं की लागत को पूरा करने के लिए भाग लेने वालों के लिए डेलीगेट फीस रखती है, तो इसमें समस्‍या क्‍या है? कोई क्रान्तिकारी पार्टी यदि मध्‍यवर्गीय प्रगतिशील इण्‍टेलिजेंसिया में ऐसी कार्यशालाओं का आयोजन करती है, तो वह दुनिया की तमाम शानदार कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों की परम्‍परा का ही निर्वाह कर रही है, जिससे पाण्‍डे जैसे बौद्धिक दुकानदार वाकिफ़ नहीं हैं! वह तो रटन्‍त विद्या के ज़रिये प्रतिस्‍पर्द्धी परीक्षाएं दे-देकर अन्‍तत: नौकरशाह बनने और फिर इस ओहदे के बल पर बौद्धिक दुनिया में रसूख बनाने की अपनी महत्‍वाकांक्षा को पूरा करने में लगे होते हैं और साथ ही क्रान्तिकारी आन्‍दोलन से निकाले गये, या भाग खड़े हुए तमाम पतित और कायर तत्‍वों के लिए शरणस्‍थली के निर्माण में व्‍यस्‍त रहते हैं! देश में तमाम विश्‍वविद्यालयों में ऐसे शिक्षक, छात्र, बुद्धिजीवी हैं, जिनके पास ऐसी कार्यशालाओं में शिरकत करने और उसके प्रतिनिधि शुल्‍क को देने की क्षमता है, और उन्‍हें देना भी चाहिए क्‍योंकि उनकी वर्ग अवस्थिति के मुताबिक ऐसा न करना मुफ्तखोरी होगा। लेकिन पाण्‍डे तो बौद्धिक जगत का परचूनिया ठहरा, उसे यह बात कहां से समझ आयेगी?
पाण्‍डे जी यदि मार्क्‍सवाद पर सही जानकारी देने वाली कक्षाएं चलाते तो हमें कोई आपत्ति नहीं होती, उल्‍टे हम भी कुछ लोगों को उसमें पढ़ने के लिए भेज देते! लेकिन हम उनके अभी तक के व्‍याख्‍यानों के बारे में यह सन्‍दर्भों और प्रमाणों सहित दिखला चुके हैं कि इस बहुरूपिये को मार्क्‍सवाद का 'क ख ग' भी नहीं आता है। इसके व्‍याख्‍यानों में काम की बात कम और बौद्धिक लीद ज्‍यादा होती है। ऐसे में, हम ऐसे व्‍यक्ति का भण्‍डाफोड़ न करें तो क्‍या करें? मार्क्‍स ने एक बड़े मार्के की बात कही थी जो कम्‍युनिस्‍टों को हमेशा याद रखनी चाहिए: ''किसी गलती का खण्‍डन किये बिना छोड़ देना बौद्धिक बेईमानी होता है।''
इसके बाद पाण्‍डे जी मध्‍यवर्गीय श्रोताओं की उस नस को छेड़ने का प्रयास करते हैं, जो कि निम्‍न पूंजीपति वर्ग के ईमानदार बौद्धिक तत्‍वों में भी अक्‍सर मौजूद होती है। वह कहते हैं कि हम लोग अपने आपको ब्रह्म समझते हैं और मानते हैं कि हमारे पास ही मार्क्‍सवाद का पूरा ज्ञान है! हम जैसे लोग, बकौल पाण्‍डे, मानते हैं कि मार्क्‍स, एंगेल्‍स, लेनिन, स्‍तालिन और माओ, यानी पांचों महान शिक्षकों ने उसी प्रकार हमारे कान में अपना ज्ञान फूंका है, जैसे कि ब्राह्मण पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने पुत्रों के कान में ज्ञान फूंकते हैं और इस प्रकार वह ज्ञान उनकी इज़ारेदारी बना रहता है, विशेष ज्ञान बना रहता है। पाण्‍डे जी का दावा है कि वह तो सामान्‍य ज्ञान में विश्‍वास रखते हैं, विशेष ज्ञान में नहीं, और उसका समाजीकरण करते रहते हैं (अपने मार्क्‍सवादी स्‍टडी सर्किल द्वारा!)। काश, पाण्‍डे जी ऐसा ही करते! वह समाजीकरण तो कर रहे हैं, लेकिन अफ़सोस, ज्ञान का नहीं, बल्कि अपनी मूर्खता और चुगदपने का! कम्‍युनिस्‍ट ऐसे ''समाजीकरण'' के खिलाफ़ होते हैं! वह मार्क्‍स की इस उक्ति में यक़ीन करते हैं कि ''अज्ञान एक राक्षसी शक्ति है और मुझे डर है कि यह आने वाले समय में बहुत-सी त्रासदियों का कारण बनेगा।''
खैर, पाण्‍डे जी अपने ''ज्ञान के समाजीकरण'' का जो उदाहरण देते हैं, वह भी आंख खोलने वाला है। वह कहते हैं कि उनके पिता जी बिच्‍छू का डंक निकाला करते थे। उसका तरीका पाण्‍डे जी विस्‍तार से बताते हैं कि जहां भी डंक लगा हो, वहां स्‍टार का चिन्‍ह बनाते जाइये और फिर इससे ज़हर बाहर हो जाता है। वह बताते हैं कि उनके पिता जी ने सैंकड़ों के डंक निकाले थे। पाण्‍डे जी कहते हैं कि यदि यही काम कण्‍ठी और माला पहनकर मंत्र पढ़कर किया जाय, तो वह विशिष्‍ट ज्ञान हो जाता है। पाण्‍डे जी कहते हैं कि मैं तो जिसका डंक निकालूंगा उसको बता दूंगा कि डंक कैसे निकालते हैं ताकि दोबारा डंक लगे तो मेरे पास लाने की ज़रूरत ही न पड़े! इस सारे रूपक में एक ही गड़बड़ है: पाण्‍डे जी हिन्‍दी जगत के असावधान युवाओं के लिए, जो कि बौद्धिक दायरों में ज्ञान की तलाश में विचरण करते रहते हैं, एक ख़तरनाक बौद्धिक बिच्‍छू हैं। और अब तक वह बहुतों को डस भी चुके हैं। और अब ऑनलाइन भी डस रहे हैं, अपने महामूर्खतापूर्ण अध्‍ययन चक्र के ज़रिये! हम तो बस डंक निकालने का काम कर रहे हैं और वह भी सप्रमाण और ससन्‍दर्भ ताकि आगे इनके द्वारा डसे गये युवा इनके मूर्खता के ट्रैप में न फंसें!
इस प्रकार की बातें कि हम तो अपने आपको 'ब्रह्म' समझते हैं, घमण्‍डी हैं, ये हैं-वो हैं, बेकार की बातें हैं। पाण्‍डे जी, यह तो बताओ कि हमने तुम्‍हारी जो आलोचनाएं लिखी हैं, उनमें ग़लत क्‍या है? क्‍या तुमने वह ग़लतियां की हैं या नहीं? तिलचट्टे के समान इधर-उधर न भागिये, ग़लती से पलट गये, तो खड़े नहीं हो पाएंगे! सीधे-सीधे सवालों का सीधा-सीधा जवाब दीजिये कि हमारी आलोचनाओं में आपकी जो मूर्खतापूर्ण ग़लतियां प्रदर्शित की गयी हैं, वे आपने की हैं, या नहीं की हैं। नहीं की हैं, तो सप्रमाण और ससन्‍दर्भ जवाब दीजिये। और यदि की हैं, तो अगले अध्‍ययन चक्र में श्रोताओं को इस सच्‍चाई से अवगत कराइये। फिर चाहें हम ''गैंग'' हों, ''धन्‍धेबाज़'' और ''चन्‍दाखोर'' हों, चाहें अपने आप को 'ब्रह्म' मानते हों, या घमण्‍डी हों, यह तो बताइये कि हमने जो बातें कहीं हैं आपके व्‍याख्‍यान के बारे में वह ग़लत हैं या सही! बाकी सारी बातें करने, गाली-गलौच करने, और फिर अपनी पूंछ झण्‍डे की तरह लहराते हुए भागने का कोई फ़ायदा नहीं है। मार्क्‍सवादियों के लिए यह महत्‍वपूर्ण नहीं होता कि कौन बोल रहा है, बल्कि यह महत्‍वपूर्ण होता है कि क्‍या बोल रहा है।
इसलिए जो मुद्दा ही नहीं है, उस पर बेकार की 'ता-ता थैया' बन्‍द करें और असल सवालों का जवाब दें। यह इसलिए भी ज़रूरी है क्‍योंकि आपके ही अनुसार हम हर साल ''15-20 लड़कों को फंसा लेते हैं!'' क्‍या आपका कर्तव्‍य नहीं है, कि आप उनको भी बचाएं? उनके 4-5 साल बरबाद होने का इन्‍तज़ार क्‍यों कर रहे हैं, जब वह खुद आन्‍दोलन को छोड़कर आपके कन्‍धे पर रोने जाएंगे और आप उनको नौकरियां, इण्‍टर्नशिप दिलवाने वाले अच्‍छे दलाल की भूमिका निभाएंगे? अभी ही हमारे द्वारा आपकी आलोचना की प्रत्‍यालोचना कर उन्‍हें दिखला दें कि आप मूर्ख, चुगद और अज्ञानी नहीं हैं! उन्‍हें दिखला दीजिये कि हमारी आलोचनाएं ग़लत हैं, हमें मार्क्‍सवाद की समझदारी नहीं है, हम अज्ञानी हैं और आपके अध्‍ययन चक्र में जो बताया जा रहा है, वही सही है! लेकिन पाण्‍डे जी यह करने की बजाय गंवारों की तरह पूछ रहे हैं: 'तो क्‍या आप ही सबसे बड़े विद्वान हैं? आप अपने आपको ही ब्रह्म समझते हैं?' छोडिये ये बेकार की बातें कि हम खुद को क्‍या समझते हैं, आपको क्‍या समझते हैं, आप खुद को क्‍या समझते हैं, हमें क्‍या समझते हैं। मुद्दे पर बात कीजिये और यदि आप अपने अध्‍ययन चक्र में कचरा नहीं फैला रहे हैं, बल्कि सही बातें बता रहे हैं, और उनकी हमारी आलोचना ग़लत है, तो उसे सप्रमाण और ससन्‍दर्भ ख़ारिज कर दीजिये!
पाण्‍डे जी बोलते हैं कि सच्‍चा ज्ञानी तो बताता है कि मैंने दो-चार किताबें पढ़ी हैं और मुझे ऐसा समझ आया है, आप भी मुझे बताइये कि मैं कौन-सी किताब पढूं! पाण्‍डे जी का दावा है कि वह भी ऐसा ही करते हैं और उन्‍होंने भी दो-चार किताबें पढ़ी हैं। लेकिन सच्‍चाई तो यह है कि पाण्‍डे जी ने दो-चार किताबें तो दूर माओ का 'व्‍यवहार के बारे में' लेख भी नहीं पढ़ा है। अगर पढ़ा होता तो यह नहीं बोलते कि ज्ञान का रास्‍ता अन्‍तत: किताबों से होकर जाता है!
दूसरी बात, पाण्‍डे जी ने जानबूझकर यह विनम्रता का चोगा ओढ़ा है। अब ज़रा आप इन महोदय के अध्‍ययन चक्र के पहले, दूसरे और तीसरे वीडियो को याद करिये। क्‍या यह आदमी ऐसी कोई विनम्रता दिखा रहा था? यह तो बोल रहा था कि मैंने सात दिन में 'पूंजी' पढ़ डाली, मार्क्‍सवाद मैंने काफी पढ़ा हुआ है, मैं रोज़ा लक्‍जेमबर्ग की संग्रहीत रचनाएं अंग्रेजी में पढ़ता हूं (जो पूरी छपी ही नहीं है अभी तक!)। अब जब‍ इसके झूठे ज्ञान, खोखले घमण्‍ड और धंधेबाज़ी का भण्‍डाफोड़ हो गया तो यह विनम्र बनने का नाटक कर रहा है!
पाण्‍डे को लगता है कि वह तो मौलिक चिन्‍तक है, लेकिन यदि युवाओं के एक मार्क्‍सवादी समूह ने उसके पाखण्‍ड का जनाज़ा निकाल दिया, तो उसमें उनके किसी ''गुरू'' का हाथ होगा। इसी को हम पाण्‍डे का घमण्‍ड कहते हैं। पाण्‍डे जैसे मूर्ख की सच्‍चाई दुनिया के सामने उजागर करने के लिए किसी वरिष्‍ठ कॉमरेड की आवश्‍यकता नहीं है। हम विश्‍वविद्यालय के कुछ नौजवान जो मार्क्‍सवाद में रुचि रखते हैं और उसका अध्‍ययन करते हैं, इस काम के लिए पर्याप्‍त हैं। जिस प्रकार की महामूर्खतापूर्ण और बचकाना बातें पाण्‍डे ने अब तक अपने अध्‍ययन चक्रों में की हैं, उसे सुनकर कोई भी मार्क्‍सवाद से परिचित व्‍यक्ति यह बात समझ सकता है!
इसके बाद पाण्‍डे जी झूठों पर उतर आते हैं। वह कहते हैं कि हमारे ''गैंग'' के किसी वरिष्‍ठ व्‍यक्ति ने कभी अल्‍थूसर या ग्राम्‍शी को मूर्ख कहा, सबको मूर्ख कहा, वगैरह। या तो पाण्‍डे जी को यह दिखलाना चाहिए कि ऐसा हममें से किसी ने भी कहां कहा या लिखा है। और अगर वह नहीं दिखला पाते हैं, तो यह स्‍पष्‍ट हो जायेगा कि वह सफेद झूठ बोल रहे हैं। उल्‍टे हमने तो अपनी पत्र-पत्रिकाओं में इन चिन्‍तकों के योगदानों के सकारात्‍मक पहलुओं के बारे में और साथ ही उनके नकारात्‍मक पहलुओं की भी चर्चा की है। तो फिर पाण्‍डे क्‍या बात कर रहा है? स्‍पष्‍ट है कि वह हिन्‍दी जगत के लोगों के बीच झूठ बोलकर हमारे बारे में एक ग़लत राय बनाने की कोशिश कर रहा है। जहां तक रामविलास शर्मा का प्रश्‍न है, तो हमने उनकी विस्‍तृत आलोचना लिखी है, कहीं मूर्ख तो कहा नहीं है। पाण्‍डे उस आलोचना से असहमत है, तो उसे ज़रूर प्रत्‍यालोचना लिखनी चाहिए! लेकिन पाण्‍डे को ऐसा कुछ नहीं करना है। वह हिन्‍दी जगत के एक शातिर बौद्धिक दलाल और चार सौ बीस के समान धुंध फैला रहा है, क्‍योंकि उसके धंधेबाज़ी की दुकान की असलियत हमारी आलोचनाओं से उजागर हो रही है।
इसके बाद पाण्‍डे जी अपना आपा खो बैठते हैं! वह हम लोगों को नीच, गलीज़, न जाने क्‍या-क्‍या बोलते हैं (हालांकि हमारे द्वारा पेश आलोचना के एक भी बिन्‍दु पर कुछ नहीं बोलते) और फिर उनके मुंह से निकल जाता है (जैसा कि आपा खोने पर अक्‍सर होता है) कि हम लोगों ने (यानी हमारे ''गैंग'' ने!) न जाने कितने परिवार बरबाद कर दिये! यहां पाण्‍डे जी के सरोकार की असली बात निकल गयी। वह भारतीय समाज में परिवारों को बचाने के पवित्र मिशन पर निकले हुए हैं। वह घूमते रहते हैं, इधर-उधर देखते रहते हैं कि कहीं कोई परिवार अपने बच्‍चे के क्रान्ति में शिरकत करने से बरबाद तो नहीं हो गया, कोई नौजवान कहीं थका-हारा नज़र आ रहा है, कोई पतित व्‍यक्ति कहीं किसी संगठन से निकाला गया है, कोई कायर व्‍यक्ति (पाण्‍डे की ही तरह!) डर कर कहीं आन्‍दोलन से भागा है, तो पाण्‍डे जी अपनी रेहड़ी लेकर उसके पास पहुंच जाते हैं! उसे नौकरी दिलवाने, इण्‍टर्नशिप दिलवाने की पेशकश करते हैं, उसके परिवार को बचाते हैं। भारतीय समाज में परिवार की पवित्रता के बारे में कम्‍युनिस्‍ट कोई सरोकार नहीं रखते। हमारा सरोकार व्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता और समाज की प्रगति से होता है, जिसे कि हमारे पितृसत्‍तात्‍मक पारिवारिक ढांचे में कुचलकर रख दिया जाता है। पूंजीवादी पितृसत्‍तात्‍मक परिवारों को बचाने के लिए किसी मार्क्‍सवादी को अधकपारी क्‍यों होगी? स्‍वतंत्रता, प्रगति और क्रान्ति के प्रति इतना सरोकार दिखाने वाले पाण्‍डे के पेट में ''परिवारों के बरबाद होने'' से इतना मरोड़ क्‍यों उठ रहा है? यह आदमी तो ''कबिरा खड़ा बाज़ार में...'' का हामी बनता है! यहां भी इस आदमी का पाखण्‍ड खुलकर सामने आ गया है।
इसके बाद पाण्‍डे गांधी का एक किस्‍सा सुनाता है कि उनके पास एक गालियों भरा कई पेज का पत्र आया तो कैसे उन्‍होंने उसमें लगे पिन को निकाल कर पत्र को बहा दिया क्‍योंकि उसमें सिर्फ गालियां थीं। फिर पाण्‍डे बोलता है कि हमारी आलोचना के साथ भी वह यही करता है! अब इससे तो कई सवाल उठते हैं। पहला तो यह है कि अगर हमारी आलोचना इतनी 'इनसिग्निफिकेंट' थी, तो आपने 35 मिनट के वीडियो में पन्‍द्रह मिनट हमारे ऊपर क्‍यों खर्च किये? आपको भी बस पिन निकालकर रख लेना चाहिए था गांधी जी की तरह! लेकिन यहां तो आपने ही गाली-गलौच पर 15 मिनट ख़र्च कर दिये! जाहिर है कि आपके दिमाग़ में खलबली मची हुई है और आपने अपने दिमाग को ठण्‍डा दिखाने का कितना भी प्रयास किया, लेकिन इस वीडियो में अन्‍तत: आपने दांत पीसना शुरू ही कर दिया और आपके मुंह से गाली-गलौच निकलने ही लगी!
दूसरी बात, हमने तो आलोचना लिखी और उसमें सबूतों के साथ दिखलाया कि आप मूर्ख हैं और आपको मार्क्‍सवाद का 'क ख ग' भी नहीं आता, तो आप उसका जवाब दें, हमने कोई गालियों से भरा पत्र तो भेजा नहीं था। उल्‍टे इस वीडियो में लगातार गालियों की बौछार तो आप कर रहे हैं। स्‍पष्‍ट है कि पाण्‍डे सकपका गया है और अब बेख़याली में ऊल-जुलूल बक रहा है।
गाली-गलौच करके अपनी भड़ांस निकालने के बाद (हम इसके लिए उसे माफ करते हैं, बेचारे के धंधे पर चोट पड़ी है और इसीलिए इतना पिनपिनाया हुआ है!) पाण्‍डे जी इस वीडियो के विषय पर आते हैं, जो है वेदान्‍त। इस बार पाण्‍डे जी काफी सावधान हैं, जैसा कि हमने पहले भी इंगित किया था। इस बार वह अपने 'मन की बात' करने की बजाय पढ़-पढ़कर बोल रहे हैं। इसके लिए वह एक किताब और अपने बनाये कुछ खर्रों का इस्‍तेमाल कर रहे हैं, हालांकि वह खर्रे भी ठीक से नहीं बना पाए हैं। इसी से पता चलता है कि भारत में सिविल सर्विसेज़ की परीक्षाओं का स्‍तर कितना गिर गया है कि पाण्‍डे जैसा आदमी जिसे नकल के लिए खर्रे बनाने भी नहीं आते, उसे मर-गिर कर पास कर लेता है! खैर, अब पाण्‍डे जी की ज्ञान वर्षा पर आते हैं।
पाण्‍डे जी बोलते हैं कि वेदान्‍त शब्‍द के दो अर्थ होते हैं, पहला जो कि तैत्‍तरेय अरण्‍यक में बताया गया है, यानी यह कि वेद जिस ध्‍वनि से आरम्‍भ होते हैं, उसी से समाप्‍त होते हैं। यानी कि उनमें एक निरंतरता होती है। वैसे जहां तक वेदान्‍त दर्शन का सरोकार है, 'वेदान्‍त' शब्‍द का यह अर्थ नहीं होता है। पाण्‍डे जी कहते हैं कि मैं ज्‍यादा विस्‍तार में नहीं जाऊंगा, बस मोटी-मोटी चीज़ें बताऊंगा। वैसे आगे पाण्‍डे जी जो बोलते हैं, उससे श्रोता समझ जाते हैं कि न तो पाण्‍डे जी की विस्‍तार में जाने की औक़ात है और न ही उनकी मोटी-मोटी चीज़ें भी सही बताने की औकात है। फिर वह कहते हैं कि वह वेदान्‍त दर्शन के सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं पर ज्‍यादा केन्द्रित करेंगे। लेकिन जब वह ऐसा करते हैं तो आप पाते हैं कि इन्‍हें वेदान्‍त दर्शन और बाद में अद्वैत वेदान्‍त दर्शन के ऐतिहासिक सन्‍दर्भों के विषय में कुछ पता नहीं है, और वह दोनों को ही गड्ड-मड्ड कर देते हैं। ज्ञात हो कि ये दोनों ऐतिहासिक सन्‍दर्भ बिल्‍कुल भिन्‍न थे। औपनिषदिक वेदान्‍त दर्शन का आरम्‍भ कबीलाई समाज के पतन और वर्ग समाज के उद्भव और विकास के दौरान होता है और उसका उत्‍तरवर्ती हिस्‍सा सामन्‍ती दौर के आरम्‍भ होने तक जाता है। जबकि शंकर का अद्वैत वेदान्‍त भारतीय इतिहास के उस दौर में होता है जबकि सामन्‍ती व्‍यवस्‍था पूर्ण परिपक्‍वता हासिल कर चुकी थी और सामाजिक वर्ग विभाजन और उसके साथ संगति रखने वाले जातिगत विभाजन को उसके सर्वाधिक अमानवीय रूप में देखा जा सकता था। लेकिन पाण्‍डे जी को यह समझ में नहीं आता है। जैसा कि हम पहले के पाण्‍डे के व्‍याख्‍यानों में देख चुके हैं, इस आदमी को भारतीय इतिहास और दर्शन के अलग-अलग दौरों के बारे में सिफ़र जानकारी है। इस पर हम आगे आएंगे।
पाण्‍डे जी बताते हैं कि वैदिक साहित्‍य के चार अंग हैं: पहला तो स्‍वयं चार वेद, जिन्‍हें संहिताएं कहते हैं, दूसरा ब्राह्मण ग्रंथ, तीसरा अरण्‍यक और चौथा और आखिरी हिस्‍सा है उपनिषद। इन उपनिषदों के ज्ञान को ही वेदान्‍त कहा गया। फिर पाण्‍डे जी बताते हैं कि राहुल सांकृत्‍यायन की पुस्‍तक दर्शन-दिग्‍दर्शन नोट कर लें, उसमें राहुल ने आदिकालीन वेदान्‍त के बारे में भी बताया है और शंकर के वेदान्‍त के बारे में भी।
पाण्‍डे जी राहुल के हवाले से बताते हैं कि उपनिषदों की रचना एक लम्‍बे समय के दौरान ''पन्‍द्रहवीं ईसा पूर्व से पांचवीं-छठीं सदी ईसवी में'' की गयी। जैसा कि हमने पहले बताया था कि पाण्‍डे जी को सन् पढ़ने नहीं आता है। पहली बात तो यह है कि पन्‍द्रहवीं ईसा पूर्व का अर्थ हुआ 15 BC. लेकिन अगर पाण्‍डे जी का मतलब 15th c. BC है, तो इन्‍होंने निश्चित ही कुछ ग़लत पढ़ लिया है। क्‍योंकि प्राचीनतम उपनिषदों की रचना भी आठवीं सदी ईसा पूर्व से शुरू होती है, न कि पन्‍द्रहवीं सदी ईसा पूर्व से। पन्‍द्रहवीं सदी ईसा पूर्व से लेकर करीब ग्‍यारहवीं सदी ईसा पूर्व तक तो ऋग्‍वेद के रचना का काल है! यानी, पाण्‍डे जी को उपनिषदों की रचना का सही काल तक नहीं पता है, लेकिन खट्टी डकारों के साथ औपनिषदिक वेदान्‍त पर क्‍लास लेने बैठ गये हैं! अब हम पाठकों से ही पूछते हैं: इस आदमी को बौद्धिक बौना, पाखण्‍डी, मूर्ख न कहें तो क्‍या कहें?
इसके बाद पाण्‍डे जी बताते हैं कि वेदान्‍त के तीन प्रस्‍थानक या स्रोत माने जाते हैं: उपनिषद, बादरायण या व्‍यास का ब्रह्मसूत्र और गीता। पाण्‍डे जी यह भी बताते हैं कि आम तौर पर वेदान्‍त को शंकर का ही अद्वैत वेदान्‍त मान लिया जाता है, मगर ऐसा नहीं है। लेकिन ताज्‍जुब है कि वह इनके बीच के फर्क के बारे में कुछ भी नहीं बताते हैं, न ही वह यह बताते हैं कि औपनिषदिक आदिकालीन वेदान्‍त से शंकर का अद्वैत वेदान्‍त किस प्रकार अलग है। इसके बाद वह बताते हैं कि वेदान्‍त दर्शन की कई धाराएं थीं, लेकिन वह मुख्‍य रूप से शंकर के अद्वैत की ही चर्चा करेंगे क्‍योंकि वही ज्‍यादा प्रचलित है।
इसके बाद पाण्‍डे जी शंकर के अद्वैत के बारे में बताना शुरू करते हैं। आप देखते हैं कि पाण्‍डे जी एक्‍सटेम्‍पोर बोलना छोड़ चुके हैं! वह लगातार पढ़कर बोल रहे हैं! इसी वजह से हमने कहा था कि इस नये वीडियो में पाण्‍डे का आत्‍मविश्‍वास डगमगाया हुआ है और वह काफी सावधान हो गये हैं। उनके भी यह समझ में आया है कि जब वह 'मन की बात' करते हैं, तो उनकी प्रतिस्‍पर्द्धा केवल नरेन्‍द्र मोदी से होती है! इसलिए अब वह 'मन की बात' करने की बजाय, किताबों से पढ़कर बोल रहे हैं ताकि कोई ग़लती न हो। लेकिन इसके बावजूद वह ग़लतियां कर ही बैठते हैं, जैसा कि हम आगे देखेंगे।
पाण्‍डे जी अपने टीपे हुए खर्रों से पढ़कर बताते हैं कि अद्वैत दर्शन में सबसे अहम भूमिका ब्रह्म की है, जो कि परम तत्‍व है, एकमात्र वास्‍तविक वस्‍तु है, और उसके अलावा कोई चीज़ असली नहीं है। ब्रह्म निर्गुण है, निष्क्रिय है, दिव्‍य है, अनन्‍त है, सत है, चित है, आनन्‍द है, अज्ञेय है। आप इसे प्रमाणों से हासिल नहीं कर सकते क्‍योंकि यह प्रमाणों से परे है। इसके बाद पाण्‍डे जी चार्वाक की याद दिलाते हुए कहते हैं कि कैसे चार्वाकों का यह मानना था कि जो प्रमाणों से सिद्ध नहीं हो सकता, वह सत्‍य नहीं है। लेकिन ब्रह्म प्रमाणों से परे है। पाण्‍डे जी के अनुसार, अद्वैत की यही शिक्षा हमें बचपन से दी जाती है।
पाण्‍डे जी बताते हैं कि अद्वैत वेदान्‍त के लिए ब्रह्म ही अन्तिम सत्‍य, एकमात्र सत्‍य है। दूसरी अहम चीज़ है माया, जो कि न वास्‍तविक है और न ही अवास्‍तविक, बल्कि वह अनिर्वचनीय है (वैसे, ब्रह्म भी अद्वैत वेदान्‍त के लिए अनिर्वचनीय ही है, हालांकि वह वास्‍तविक है)। फिर पाण्‍डे जी पूछते हैं कि माया क्‍या है? उत्‍तर है कि जो भी दिख रहा है वह माया है क्‍योंकि उनका रूप बदलता रहता है। इसके बड़े मज़ेदार उदाहरण दिये गये हैं, जैसे कि हम रस्‍सी को सांप समझ लेते हैं, तो यह सब ऐसे हैं...पाण्‍डे जी बताते हैं कि अद्वैत वेदान्‍त के अनुसार ये हमारे अज्ञान के प्रतीक हैं, ये अवास्‍तविक हैं। यहां पर पाण्‍डे जी थोड़ा एक्‍सटेम्‍पोर बोल गये और यहीं पर उन्‍होंने ग़लती कर दी। अभी थोड़ी देर पहले ही उन्‍होंने बताया कि जो दृश्‍य है, या जो माया है, वह न तो वास्‍तविक है और न ही अवास्‍तविक, जो कि सही था, क्‍योंकि शंकर का अद्वैत वेदान्‍त यही कहता है। लेकिन अब वह कह रहे हैं कि जो माया है वह अवास्‍तविक है। अद्वैत वेदान्‍त माया को न तो वास्‍तविक मानता है और न ही अवास्‍तविक और पाण्‍डे का पहले वाला खर्रा सही था! इसकी वजह यह है कि अद्वैत वेदान्‍त जो दृश्य है, उसमें भी ब्रह्म को देखता है और जो दृश्‍य है उसे पूरी तरह अवास्‍तविक कहने का अर्थ होगा, ब्रह्म को अवास्‍तविक कहना। और उसे वास्‍तविक कहने का अर्थ होगा, वस्‍तु जगत की वास्‍तविकता को स्‍वीकार करना! इसलिए शंकर ने इस अन्‍तरविरोध को दूर करने के लिए ही यह कहा कि यह अनिर्वचनीय ख्‍याति (indescribable knowledge) है, जो न तो वास्‍तविक कही जा सकती है और न ही अवास्‍तविक। लेकिन पाण्‍डे जी खर्रे बनाने में थोड़ी ग़लती कर गये हैं! पहले वाला खर्रा सही था, जिसमें यह बात कही गयी है कि माया न तो वास्‍तविक है और न ही अवास्‍तविक। लेकिन फिर दूसरे खर्रे में पाण्‍डे जी अपने 'मन की बात' पर उतर आये हैं, और कहते हैं कि माया पूर्णत: अवास्‍तविक है। इस वास्‍तविक और अवास्‍तविक के अन्‍तरविरोध को ही दूर करने के लिए शंकर के अद्वैत वेदान्‍त में तमाम द्रविड़ प्राणायाम किये गये हैं, जैसे परमार्थिक व व्‍यावहारिक का अन्‍तर करना, आदि। लेकिन पाण्‍डे जी ने जल्‍दी-जल्‍दी खर्रे बनाने में थोड़ी ग़लती कर दी। खैर।
इसके बाद पाण्‍डे जी फिर दिखलाते हैं कि अगर कोई मूर्ख खर्रे बनाकर भी परीक्षा देना चाहे, तो उसमें ग़लती कर बैठता है और ग़लत जगह पर ग़लत खर्रे से चेंपाचांपी कर देता है! पाण्‍डे जी बोलते हैं कि अद्वैत वेदान्‍त में तीसरा अहम पहलू है ईश्‍वर, और उसके बाद आते हैं जीव, जगत और मोक्ष। फिर वह कहते हैं, "ईश्‍वर जो है is superimposition of the nature of recollection of the appearance of which have seen before."
यहीं पाण्‍डे जी अपना चुगदपना दिखा गये! यह शंकर के अद्वैत के अनुसार ईश्‍वर की परिभाषा नहीं है, बल्कि जगत की परिभाषा है। वैसे भी पाण्‍डे जी जो पढ़ रहे थे, उसके अर्थ पर थोड़ा ध्‍यान देते तो समझ जाते कि यह ईश्‍वर की अद्वैत-वेदान्‍ती परिभाषा हो ही नहीं सकती है, क्‍योंकि यह ''देखे गये दृश्‍य की प्रतीति की स्‍मृति की प्रकृति का अत्‍यारोपण'' है, यानी वह जो दिखता है लेकिन वास्‍तविक या अवास्‍तविक नहीं है, बल्कि माया है। लेकिन पाण्‍डे जी जब खर्रे बना रहे थे, तो गलती से पेज पलट गया होगा और कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा हो गया। पाण्‍डे जी को बेकार में दिखलाना था कि वह अंग्रेजी में पुस्‍तकों का अध्‍ययन करते हैं (उनके पास तो रोज़ा लक्‍जेमबर्ग की ऐसी संग्रहीत रचनाएं तक अंग्रेजी में हैं जो कि अभी तक पूरी छपी तक नहीं हैं!) तो उन्‍होंने अंग्रेजी में एक उद्धरण पढ़ दिया और वह भी ग़लत जगह पर! इसकी क्‍या ज़रूरत थी पाण्‍डे जी? यह तो औपनिवेशिक मानसिकता है। क्‍योंकि अगर आपने अनुवाद करके हिन्‍दी में पढ़ा होता तो इस बात की एक आत्‍यंतिक नगण्‍य सही पर सम्‍भावना मौजूद थी, कि शायद आपको लग जाता कि यह तो ईश्‍वर की परिभाषा हो नहीं सकती है! लेकिन आप मानेंगे कहां? आपको तो विद्वत्‍ता दिखलानी है! करवा ली न बेकार में बेइज्‍जती! लेकिन अब चूंकि पाण्‍डे को इस अंग्रेजी उद्धरण का मतलब समझ नहीं आया, तो वह बोलता है कि आप इसमें ज्‍यादा डीटेल में न जाएं, बस वह समझ लें जो हिरयन्‍ना साहब कहते हैं कि यदि ब्रह्म को व्‍यक्ति-रूप दे दिया जाय तो उसे ईश्‍वर कहा जाता है, हालांकि वह भी वास्‍तविक नहीं है और वास्‍तविक तो केवल ब्रह्म ही है। कई बार इस आदमी की बौद्धिक कुण्‍ठा और उछल-फांद देखकर हंसी भी आती है।
फिर पाण्‍डे जी बताते हैं कि इसके बाद जगत आता है (जिसकी परिभाषा उन्‍होंने ईश्‍वर की परिभाषा की जगह पर चेंप दी!), फिर जीव आता है और अन्‍त में मोक्ष आता है। इस पूरी प्रक्रिया में ब्रह्म ही सत्‍य है, वास्‍तविक है, और बाकी सब या तो माया है या ब्रह्म का प्रतिबिम्‍बन। फिर पाण्‍डे जी अद्वैत शब्‍द कैसे बना इसका मतलब बताते हैं कि चूंकि जो भी दिख रहा है वह सच में नहीं है बल्कि वह ब्रह्म की ही अभिव्‍यक्ति या अवास्‍तविक है, इसलिए इसमें कोई द्वैतवाद नहीं है और इसीलिए इसे अद्वैतवाद कहा गया है।
इसके बाद पाण्‍डे जी कुछ उदाहरणों से इसे समझाने का दावा करते हैं, लेकिन उन्‍हें अपने खर्रे नहीं मिलते हैं। फिर वह दामोदरन की किताब (जिसका सही नाम अभी तक पाण्‍डे जी ने नहीं बताया है), देवीप्रसाद चट्टोपाध्‍याय की किताब (भारतीय दर्शन: एक सरल परिचय), हिरियन्‍ना की पुस्‍तक (पता नहीं कौन-सी, क्‍योंकि हिरियन्‍ना की कई पुस्‍तकें हैं, जिनमें से दो विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं: 'दि एसेंशियल्‍स ऑफ इण्डियन फिलॉसफी' और 'दि आउटलाइंस ऑफ इण्डियन फिलॉसफी') और राहुल की पुस्‍तक 'दर्शन दिग्‍दर्शन' पढ़ने की सलाह देते हैं, जिनमें से एक भी पुस्‍तक स्‍पष्‍ट तौर पाण्‍डे ने पूरी नहीं पढ़ी है, अन्‍यथा वह कम-से-कम उपनिषदों की रचना का पूरा कालखण्‍ड तो सही बता ही पाते। इसके बाद वह प्रो. चट्टोपाध्‍याय का एक उद्धरण पढ़ते हैं जिसमें वह बताते हैं कि अद्वैत को अद्वैत क्‍यों कहते हैं: ''अद्वैत शब्‍द का अर्थ है, दूसरे का न होना। प्रस्‍तुत मतवाद का यह नाम इसलिए पड़ा क्‍योंकि इसमें एक ब्रह्म अर्थात शुद्ध चैतन्‍य आत्‍मा छोड़कर किसी दूसरे तत्‍व को वास्‍तविक नहीं माना गया है।''
इसके बाद ''कुछ मजेदार'' बताने का वायदा करके पाण्‍डे जी काफी देर तक कुछ ढूंढते हैं, लेकिन उनको मिलता नहीं है। ऐसा बौड़म नकलची स्‍कूली छात्रों के साथ भी हो जाता है! वे खर्रे तो टीप-टीपकर बना लेते हैं, लेकिन चूंकि उनका कंसप्‍ट ही क्लियर नहीं होता, इसलिए किस खर्रे को कहां चेंपना है, यह मौके पर समझ नहीं पाते हैं। उसके बाद पाण्‍डे जी को समझ में आ जाता है कि खर्रों में कुछ गड़बड़ हो गयी है इसलिए बोलते हैं कि इस बात को छोड़ते हैं, इस पर बाद में चर्चा कर लेंगे, इससे बहुत डिस्‍टर्ब हो रहा है! यहां पर भी आप देख सकते हैं कि पाण्‍डे जी एक्‍टेम्‍पोर बोलने का साहस खो बैठे हैं। उन्‍हें खर्रा नहीं मिला तो उन्‍होंने उस विषय पर बोलने का आइडिया ही ड्रॉप कर दिया! लेकिन जब मूर्ख घमण्‍डी भी हो, तो इस प्रकार के संयम और सावधानी को भी वह ज्‍़यादा समय तक नहीं बरत पाता है, जैसा कि हम आगे देखेंगे।
फिर पाण्‍डे जी कहते हैं कि अब वह वेदान्‍त दर्शन के उदय के कारणों और ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि पर चर्चा करेंगे। जैसा कि हम अब तक देखते आये हैं कि पाण्‍डे जी को इतिहास के बारे में उतना ही पता है जितना नरेन्‍द्र मोदी को बादलों और रडार के बारे में पता है! जब भी वह इतिहास पर चर्चा में घुसते हैं, तो कचरा कर देते हैं और अपनी बड़ी बेइज्‍जती करवाते हैं। इस बार भी पाण्‍डे जी ने इस मनोरंजन से हमें वंचित नहीं किया है। आइये देखते हैं कैसे।
पाण्‍डे जी गम्‍भीरता के भावों के साथ तर्जनी उठाकर पूछते हैं कि आखिर यह दर्शन उभरा क्‍यों, इसकी ज़रूरत क्‍या पड़ी? फिर वह कहते हैं कि एक बात जान लीजिये कि वेदों का जो पूरा दौर था...फिर पाण्‍डे जी अचानक रुक कर कहते हैं कि नहीं, पहले गीता पर चर्चा कर लेते हैं...फिर बोलते हैं कि नहीं, पहले वेदों पर ही बात कर लेते हैं! (पाण्‍डे जी तय नहीं कर पा रहे हैं कि कौन-सा खर्रा पहले डील करें!) पाण्‍डे जी बोलते हैं कि वेदों का जो पूरा दौर था वह पिछड़े हुए उत्‍पादन का दौर था, इसलिए उसके स्‍तोत्रों में हमेशा अन्‍न, भोजन वगैरह की मांग की गयी है; वजह यह है कि यह कबीलाई समाज का दौर था और कुछ अतिरिक्‍त पैदा नहीं होता था, बस काम लायक ही पैदा होता था। पहले इतनी बातों पर बात कर लेते हैं, फिर आगे देखेंगे कि पाण्‍डे जी ने इतिहास के क्षेत्र में और क्‍या फूल खिलाए हैं।
पहली बात तो यह है कि वेदों का पूरा दौर कबीलाई समाज का दौर नहीं था, जैसा कि पाण्‍डे जी को लगता है। ऋग्‍वेद के दौर, जिसे कि प्रारंभिक वैदिक काल भी कहा जाता है, को ही हम कबीलाई समाज व वर्ग-विहीन समाज का दौर कह सकते हैं। इस दौर के अन्‍त तक ही कबीलाई समाज का ढांचा टूटने लगा था, वर्गों का बनना शुरू हो चुका था, और चातुर्वण्‍य व्‍यवस्‍था के रूप में ये वर्ग विभाजन प्रतिबिम्बित भी हो रहा था। यही कारण है कि ऋग्‍वेद में बाद में जोड़े गये अंग यानी 'पुरषसूक्‍त' के दसवें मण्‍डल में पहली बार चार वर्णों की व्‍यवस्‍था का पहला जिक्र मिलता है। इस समय तक, यानी लगभग 10वीं सदी ईसा पूर्व तक यह वर्ग विभाजन सुदृढ़ीकृत नहीं हुआ था और भ्रूण अवस्‍था में था। यजुर्वेद के दौर का अन्‍त आते-आते, वर्गों का विभाजन सुदृढ़ हो चुका था, समाज में शूद्रों की स्थिति अधीनस्‍थ या दासवत वर्ग कही हो चुकी थी, वैश्‍य मुख्‍यत: मुक्‍त किसान वर्ग के रूप में सामने आ चुके थे, और क्षत्रिय व ब्राह्मण वर्चस्‍वशील स्थिति में पहुंच चुके थे। यही वजह थी कि यजुर्वेद के अन्तिम हिस्‍से के तौर पर ही ब्राह्मण ग्रन्‍थों की शुरुआत हो जाती है, जिसमें पहली बार समाज के वर्ग विभाजन और उसके वैधीकरण को स्‍पष्‍ट तौर पर देखा जा सकता है। इसके बाद अरण्‍यक आते हैं, जो कि वैदिक काल में ही आते हैं। प्रो. चट्टोपाध्‍याय के अनुसार, अरण्‍यकों में ही पहली बार आदि-दार्शनिक अनुमानों (proto-philosophical speculations) की झलक मिलती है, जो यह दिखलाता है कि समाज में अब वर्ग पैदा हो चुके थे, मानसिक और शारीरिक श्रम का विभेद पैदा हो चुका था और शासक वर्ग के विचारकों के पास दर्शन के लिए समय था। ऋग्‍वैदिक काल में कोई दर्शन नहीं था। जो कविताएं, श्‍लोक, श्रुतियां उसमें मौजूद हैं, विशेष तौर पर, उसके आरंभिक हिस्‍सों में, वे सभी व्‍यावहारिक व उत्‍पादक व्‍यवहार से जुड़ी हुई हैं और उनका एक प्रकार्यात्‍मक मूल्‍य (functional value) है, क्‍योंकि इनकी रचना के साथ उत्‍पादक या जीवन के संघर्ष में लगे लोगों को आत्‍मविश्‍वास और भरोसा मिलता था, कि वे अपने लक्ष्‍य में सफल होंगे। लेकिन अभी शुद्ध चेतना का कोई फेटिश मौजूद नहीं था और नतीजतन शुद्ध दर्शन व चिन्‍तन ऋग्‍वैदिक काल के लोगों के लिए एक अकल्‍पनीय चीज़ थी।
अरण्‍यक के बाद आते हैं उपनिषद जिनकी रचना की शुरुआत आठवीं-सातवीं सदी ईसा पूर्व से होती है। ब्राह्मण ग्रन्‍थों में अभी शासक वर्ग की सत्‍ता का स्थिरीकरण होने की समस्‍या साफ दिखलाई देती है। यानी तब तक शासक वर्ग अस्तित्‍व में आने लगे थे, लेकिन उनकी सत्‍ता अभी स्थि‍रीकृत नहीं हुई थी। प्रो चट्टोपाध्‍याय के शब्‍दों में अभी भी दार्शनिक पूर्ण रूप में सामने नहीं आया था और ब्राह्मण अभी भी आदिम कर्मकाण्‍डों के कब्रिस्‍तान में बड़बड़ा रहा था।
ये उपनिषद थे, जिसमें दार्शनिक, शासक वर्ग के विचारकों के एक ऐसे सुदृढ़ीकृत सामाजिक संस्‍तर के रूप में सामने आता है, जिसकी चेतना भौतिक उत्‍तरजीविता की अनिवार्यता द्वारा थोपे गये बन्‍धनों से कमोबेश मुक्‍त हो चुकी थी। इस दौर में हम स्‍पष्‍ट तौर पर शुद्ध दार्शनिक स्‍पेक्‍युलेशंस को देख पाते हैं। उपनिषद वेदों के साहित्‍य का अन्तिम हिस्‍सा है और इसी रूप में उन्‍हें वेदान्‍त भी कहा गया, यानी, वेदों का अन्‍त। औपनिषदिक दर्शन में कालान्‍तर में भाववादी चिन्‍तन की धारा हावी होती गयी। चट्टोपाध्‍याय बताते हैं कि उपनिषदों के दार्शनिकों में ही एक ऐसी धारा भी थी, जो कि चेतना को भौतिक विश्‍व से काटती नहीं थी, बल्कि उससे जोड़कर देखती थी। मिसाल के तौर पर, उद्दालक आरुणि, जिनकी रचना हमें छान्‍दोग्‍य उपनिषद में मिलती हैं, जो कि पुराने उपनिषदों में से एक है। लेकिन औपनिषदिक काल की प्रगति के साथ, शासक वर्गों की सत्‍ता के सुदृ‍ढ़ीकरण के साथ, दमित वर्गों के दमन के ढांचागत होने के साथ, यह औपनिषदिक चिन्‍तन परम्‍परा कमज़ोर पड़ती गयी। याज्ञवल्‍क्‍य जैसे चिन्‍तक प्रतिष्ठित होते गये (सातर्वी सदी ईसा पूर्व) जो चेतना को भौतिक जगत से स्‍वतन्‍त्र मानते हैं और मानते हैं उसे भाषा में अभिव्‍यक्‍त सिर्फ इस रूप में किया जा सकता है: ''नेति, नेति'', यानी क्‍या नहीं है।
तो पाण्‍डे जी का यह कहना कि पूरा वैदिक काल कबीलाई समाज का दौर था जिसमें अभी वर्ग नहीं बने थे, भोजन और अन्‍न की कामना ही प्रभुत्‍वशाली थी, यह दिखलाता है कि पाण्‍डे जी एक बार फिर से बिना किसी तैयारी के अध्‍ययन चक्र लेने बैठ गये हैं। पाण्‍डे जी, किसी विषय पर व्‍याख्‍यान देने के लिए सिर्फ टीपा-टीपी करके खर्रे बनाने से काम नहीं चलता है, बल्कि उस समूचे विषय को सांगोपांग और उसके ऐतिहासिक सन्‍दर्भ के साथ समझना और एक स्‍पष्‍ट अवधारणा विकसित करना अनिवार्य होता है।
इसके बाद पाण्‍डे जी आर्यों के भारत आगमन पर बोलते हैं और यहां भी इन्‍होंने इतिहास के साथ काफी दुर्व्‍यवहार किया है। उनका कहना है कि जब आर्य भारत आये तो उनका मूल निवासियों के साथ संघर्ष हुआ और सम्‍भवत: इसे ही देवासुर संघर्ष के रूप में जाना जाता है। सच यह है कि आर्य एक लहर में नहीं बल्कि दो मुख्‍य लहरों में भारत आये। पहली लहर के आर्यों का मूलनिवासियों से मुख्‍य तौर पर संघर्ष नहीं हुआ, बल्कि वे उनके साथ मिश्रित हो गये। इन मूल निवासियों में सुवीरा जायसवाल के अनुसार हड़प्‍पा घाटी सभ्‍यता के बचे-खुचे तत्‍व भी थे और इसके अलावा अन्‍य जनजातियां थीं। आर्यों की जो दूसरी लहर आई, जिन्‍हें वैदिक आर्य कहा गया, उन्‍होंने ही इस मिश्रित आबादी को दस्‍यु, दासअसुर की संज्ञा दी। लेकिन अभी इन शब्‍दों का वह अर्थ निर्मित नहीं हुआ था, जिन्‍हें हम आज जानते हैं, यानी इनका अर्थ लुटेरा, गुलाम या दानव नहीं था। वास्‍तव में, ऋग्‍वेद में असुर शब्‍द का प्रयोग इहलौकिक देवताओं के लिए प्रयोग किया गया है। इन दास कबीलों के साथ आर्यों का केवल संघर्ष नहीं हुआ, बल्कि कई जगहों पर उनका मिश्रण हुआ। लेकिन संघर्ष का पहलू प्रधान था। लेकिन यह मूलनिवासियों मात्र से संघर्ष नहीं था, बल्कि मूल निवासियों व पहली लहर में आये आर्यों की मिश्रित आबादी, यानी दास आबादी के साथ संघर्ष था। इन दास कबीलों की पराजय के साथ और उन्‍हें अधीनस्‍थ बनाए जाने के साथ शूद्र वर्ण अस्तित्‍व में आया था। यह सब ऋग्‍वैदिक काल के अन्तिम दौर में ही हो रहा था। इतिहास के इस पूरे दौर के बारे में भी पाण्‍डे जी गम्‍भीर अध्‍ययन की बजाय सुनी-सुनाई बातों पर चलते हैं।
अब पाण्‍डे जी आदिम समाज में वर्गों के बनने के अपने चक्रीय सिद्धान्‍त पर आते हैं! वह बोलते हैं कि औपनिषदिक काल आते-आते आर्यों की सामाजिक संरचना में बहुत से बदलाव आते हैं। वे अब स्‍थायी खेती को अपना चुके होते हैं, पहली बार अतिरेक का उत्‍पादन होता है (वैसे अति‍रेक शब्‍द का अर्थ होता है extreme न कि अतिरिक्‍त उत्‍पादन; अतिरिक्‍त उत्‍पादन के लिए जो सही तकनीकी शब्‍दावली है, वह है अधिशेष) और फिर यह सवाल खड़ा हो जाता है कि इस अतिरेक (अधिशेष) उत्‍पादन पर किसका कब्‍ज़ा हो। पाण्‍डे जी कहते हैं कि एक तरीका यह होता है कि बराबर-बराबर सभी लोगों में इसका बंटवारा हो जाये (ऐसा कोई युग नहीं था और न होगा जिसमें कि अधिशेष का बराबर बंटवारा हो; कम्‍युनिस्‍ट समाज में भी लोगों को आवश्‍यकता के अनुसार प्राप्‍त होगा, न कि सबको बराबर-बराबर बांटा जाएगा) या फिर दूसरा तरीका यह होता है कि जब अधिशेष उत्‍पादन पहली बार शुरू होता है तो ''एक वर्चस्‍वशाली वर्ग उस पर कब्‍ज़ा कर लेता है''!
अब आप स्‍वयं पाण्‍डे जी की तर्क-प्रणाली देखिये! यानी एक वर्चस्‍वशाली वर्ग पहले से ही मौजूद था! तो वह कैसे बना था, वह कहां से आया था, पाण्‍डे जी की चुटिया से? वर्चस्‍वशाली वर्ग बनता ही अधिशेष पर कब्‍ज़ा करने से है, तो पहली बार जब अधिशेष का उत्‍पादन शुरू हुआ तो वर्चस्‍वशाली वर्ग पहले से कहां से मौजूद था? वर्गों की अस्तित्‍व की व्‍याख्‍या पाण्‍डे जी वर्गों के अस्तित्‍व से करते हैं। वर्चस्‍वशाली वर्ग अधिशेष पर कब्‍ज़ा करके पैदा हुआ था। तो पहली बार अधिशेष के उत्‍पादन पर जिसने कब्‍ज़ा किया, वह कौन था? पाण्‍डे जी तर्जनी उठाकर बताते हैं कि वह वर्चस्‍वशाली वर्ग था! अब आप ही बताएं कि क्‍या ऐसा मूर्ख आदमी मार्क्‍सवाद पढ़ा सकता है? आरम्भिक वैदिक कबीलाई समाज में ही एक श्रम विभाजन मौजूद था, जो कि अपने आप में वर्ग नहीं था, बल्कि वर्गों से पहले का एक सामाजिक संस्‍तरीकरण था, जैसा कि प्रो. रामशरण शर्मा ने दिखलाया है। लेकिन ब्राह्मण्‍य, राजन्‍य या विश, यानी जो तीन सामाजिक संस्‍तर कबीलाई आरंभिक वैदिक समाज में थे, उनका उत्‍पादन के अधिशेष पर कोई संस्‍थाबद्ध नियंत्रण नहीं था, क्‍योंकि कोई अधिशेष उत्‍पादन ही नहीं था, इसलिए इन सामाजिक संस्‍तरों को वर्ग की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। जब अधिशेष उत्‍पादन शुरू हुआ तो योद्धा संस्‍तर और पुरोहित संस्‍तर पहले से मौजूद आदिम श्रम विभाजन के कारण ऐसी स्थिति में थे, कि वे अधिशेष पर अधिपत्‍य स्‍थापित कर सकें। इस समय तक शूद्र वर्ण भी पैदा हो चुका था। लेकिन पाण्‍डे जी ने वर्गों के पैदा होने का एक नया ही सिद्धान्‍त दे डाला है: शासक वर्ग जो कि पहले से ही मौजूद होता है, वह अधिशेष पर कब्‍ज़ा करके शासक वर्ग बन जाता है! ऐसे आदमी को मूर्ख न कहा जाय तो क्‍या कहा जाय। यह तो 'दौड़' फिल्‍म के चाको जी वाली बात कर रहा है!
पाण्‍डे जी कहते हैं कि जो वर्ण व्‍यवस्‍था में शीर्ष पर थे, उन्‍होंने अधिशेष पर कब्‍ज़ा किया और वे शक्तिशाली होते गये। यहां भी यह याद रखना ज़रूरी है (जो कि पाण्‍डे नहीं समझता है) कि वर्ण अपने मूल बिन्‍दु पर वर्ग ही थे और वे इस रूप में अस्तित्‍व में आए ही वर्गों के पैदा होने के साथ थे। अधिशेष के पैदा होने से पूर्व वैदिक समाज में वर्ग/वर्ण व्‍यवस्‍था ने कोई संस्‍थाबद्ध आर्थिक रूप लिया ही नहीं था। स्‍थायी खेती, लोहे की खोज और इसके साथ अधिशेष उत्‍पादन के नियमित तौर पर होने की शुरुआत के साथ सैंकड़ों वर्षों की प्रक्रिया में वर्ग अस्तित्‍व में आये। उससे पहले ब्राह्मन्‍य, राजन्‍य और विश वर्ग नहीं थे। अधिशेष उत्‍पादन के शुरू होने और शूद्रों के वर्ण के पैदा होने के साथ वर्गों की व्‍यवस्‍था और वर्ण व्‍यवस्‍था पैदा हुई। इससे पहले हारे हुए कबीलों को अधीनस्‍थ बनाने की बजाय या तो उनके लोगों को मार दिया जाता था या वे आर्यों में ही सम्मिलित हो जाते थे, जैसा कि सुवीरा जायसवाल, रामशरण शर्मा और डी.डी. कोसाम्‍बी जैसे इतिहासकारों ने दिखलाया है।
आगे पाण्‍डे जी से यह भी सुनिये कि दलित जातियों का उद्भव कैसे होता है। यहां भी पाण्‍डे जी ने ऐसे आविष्‍कार किये हैं, जिससे सभी मार्क्‍सवादी इतिहासकार चकित हो गये होते।
पाण्‍डे जी कहते हैं कि जो कबीले हारे उन्‍हें दास बनाया गया, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वणिक वर्ग थे, वे एक हो गये, और जो हारे हुए कबीले दास बनाए गए थे उन्‍हें दलित का दर्जा दिया गया और इस चातुर्वण्‍य व्‍यवस्‍था में उन्‍हें सबसे निचला दर्जा मिला। जैसा कि आप देख सकते हैं कि पाण्‍डे जी को इतना भी नहीं पता है कि दलित या अस्‍पृश्‍य जातियां चौथा वर्ण नहीं थे। पाण्‍डे जी यहां चातुर्वण्‍य व्‍यवस्‍था के जिस वर्ण की बात कर रहे हैं वह है शूद्र वर्ण, जिसे कि वह दलित जातियां समझ बैठे हैं। अस्‍पृश्‍य जातियां वर्ण व्‍यवस्‍था के चारों संस्‍तरों के भी नीचे थीं। सभी जानते हैं कि अस्‍पृश्‍यता की शुरुआत औपनिषदिक काल के आरंभ में हुई ही नहीं थी। यह प्रक्रिया ही प्राचीन जनपदों के बनने के दौर में शुरू हुई, हालांकि अभी स्‍पष्‍ट तौर पर संस्‍थाबद्ध रूप में अस्‍पृश्‍यता पैदा नहीं हुई थी और यह प्रक्रिया तीसरी सदी ईसवी से अपने चरम पर पहुंची जब बड़ी संख्‍या में अस्‍पृश्‍य जातियां वर्ण-जाति व्‍यवस्‍था में शामिल हुईं। इन जातियों के लिए दलित शब्‍द का इस्‍तेमाल तो आधुनिक काल में शुरू होता है। उस समय ब्राह्मणवादी रचनाओं में इनके लिए 'पंचम', 'अन्‍त्‍यज' जैसे शब्‍दों का प्रयोग किया जाता था। प्रो. विवेकानन्‍द झा ने इस पर सबसे अच्‍छा मार्क्‍सवादी शोध किया है और दिलचस्‍पी रखने वाले पाठक उनकी नयी पुस्‍तक 'चाण्‍डालाज़' का अध्‍ययन कर सकते हैं। जिनकी बात पाण्‍डे जी यहां कर रहे हैं, वे दलित नहीं बल्कि शूद्र हैं। औपनिषदिक काल से पहले ही, यानी ऋग्‍वैदिक काल के अन्‍त से ही हारने वाले कबीलों की आम आबादी को शू्द्र वर्ण में शामिल करने की प्रक्रिया जारी थी। पंचम वर्ण या अन्‍त्‍यज जातियों का उद्भव काफी बाद में होता है। यहां हम फिर देखते हैं कि भारतीय इतिहास की इन बेहद बुनियादी बातों का भी पाण्‍डे को ज्ञान नहीं है, जिसके बारे में इतिहास पढ़ने वाले स्‍कूली बच्‍चे भी जानते हैं। हम फिर से पाठकों और पाण्‍डे के श्रोताओं से पूछेंगे कि ऐसे व्‍यक्ति को क्‍या नाम देना चाहिए?
पाण्‍डे जी आगे बोलते हैं कि इन दलितों (वास्‍तव में शूद्रों!) की आवश्‍यकता पड़ती थी श्रमिक वर्ग के रूप में और इसीलिए गीता या मनुस्‍मृति कभी भी वर्ण व्‍यवस्‍था पर समझौता नहीं करते। यहां भी यह याद रखना आवश्‍यक है (जो कि पाण्‍डे नहीं समझ पाता है) कि हालांकि वैश्‍यों को वर्ण व्‍यवस्‍था में द्विज का दर्जा हासिल था, लेकिन शुरुआत में वे प्रमुख किसान जाति थे और इस रूप में वे भी क्षत्रियों व ब्राह्मणों द्वारा शोषण का शिकार थे, जो कि पूर्णत: परजीवी वर्ग थे। निश्चित रूप से, शूद्र सर्वाधिक बर्बर दमन का शिकार थे और उनकी भूमिका दास व अधीनस्‍थ श्रमिकों की थी, जो कि प्राचीन जनपदों के दौर और फिर मौर्य काल में थोड़ी बदलती है, जब वैश्‍य मुख्‍य रूप से व्‍यापारी वर्ग बन जाते हैं और शूद्र निर्भर व मुक्‍त किसान आबादी में तब्‍दील होते हैं। लेकिन पाण्‍डे जी से इन बारीकियों की जानकारी की उम्‍मीद करना आकाशकुसुम की अभिलाषा के समान है।
इसके बाद पाण्‍डे जी फिर से मेहनताने (wage) की श्रेणी को औपनिषदिक काल में पहुंचा देते हैं। पाण्‍डे जी कहते हैं कि वर्ण व्‍यवस्‍था शासन करने वाले लोगों के अनुकूल थी क्‍योंकि वह उन्‍हें एक बड़ा श्रमिक वर्ग मुहैया कराती थी जो कि बिना किसी उम्‍मीद के और ''बिना किसी मेहनताने'' के काम करता था। पहली बात तो यह है कि शूद्र श्रमिक आबादी इतनी दासवत नहीं थी जितना पाण्‍डे जी बता रहे हैं, और बुद्ध द्वारा ही उनके काल में शूद्र विद्रोह का जिक्र मिलता है और फिर मौर्य काल और उसके बाद ऐसे कई शूद्र किसान विद्रोहों का जिक्र मिलता है। इसी काल को ब्राह्मणवादियों ने पुराणों में 'कलियुग' की संज्ञा दी, जब निम्‍न वर्ण अपनी कर्तव्‍यों का निर्वहन बन्‍द कर देता है। इसके बारे में रामशरण शर्मा ने बहुत ही उत्‍कृष्‍ट शोध कार्य किया है।
दूसरी बात यह है कि शूद्रों को ''मेहनताना'' नहीं मिल सकता था क्‍योंकि वैसे आर्थिक सम्‍बन्‍ध उस समय पैदा ही नहीं हुए थे। शूद्र या तो दासवत श्रमिक की भूमिका निभाते थे (जैसे कि मौर्य काल से पहले और कुछ हद तक मौर्य काल में) या वे सामन्‍ती दौर के आरम्‍भ से निर्भर व अधीनस्‍थ किसानों की भूमिका निभाते थे। वे मज़दूर नहीं थे, जिन्‍हें मेहनताना मिले। लेकिन पाण्‍डे की ऐसी ग़लती पर हमें कोई ताज्‍जुब नहीं है! जो व्‍यक्ति प्राचीन काल में वैश्‍यों के कारखानों में काम करने वाले शूद्र मज़दूरों की कल्‍पना कर सकता है, वह कुछ भी कर सकता है! ऐसे व्‍यक्ति को वज्र मूर्ख न कहें तो क्‍या कहें? जब तुम्‍हें भारतीय इतिहास का रत्‍ती भर ज्ञान नहीं है, तो फिर अध्‍ययन चक्र चलाकर हिन्‍दी जगत में अज्ञान का अन्‍धकार क्‍यों फैला रहे हो? और जो तुम्‍हारी ग़लती को हिन्‍दी जगत के पाठकों, श्रोताओं आदि के समक्ष अनावृत्‍त करता है, उसे तुम ''गैंग'', आदि बोलने लगते हो! पाण्‍डे, क्‍या इससे पता नहीं चलता कि तुम बौद्धिक जगत के एक धंधेबाज परचूनिये हो?
पाण्‍डे जी आगे बोलते हैं कि आप लोगों ने अगर मेरे पहले के वीडियो देखे होंगे तो आपको पता होगा कि इस पूरे दौर में कई ऐसे दर्शन पैदा हुए जो चातुर्वण्‍य व्‍यवस्‍था और ब्राह्मणों के प्राधिकार को चुनौती दे रहे थे। पाण्‍डे जी यहां अपनी पुरानी ग़लतियों पर पर्दा डालने का प्रयास कर रहे हैं! पुराने वीडियो जिन्‍होंने देखे हैं और उनकी हमारे द्वारा आलोचना जिन्‍होंने पढ़ी है, वे जानते हैं कि पाण्‍डे जी ने पिछले वीडियो व्‍याख्‍यानों में ऐसी भयंकर मूर्खताएं की हैं जो इतिहास के प्रति उनके पूर्ण अज्ञान को प्रदर्शित करता है। मिसाल के तौर पर, पिछले वीडियो व्‍याख्‍यानों में से एक में उन्‍होंने चार्वाकों को सामन्‍ती युग, यानी गुप्‍त काल में पहुंचा दिया, प्राचीन जनपदों को मौर्य काल में पहुंचा दिया और इसी प्रकार की तमाम ग़लतियां की हैं। ऐसा करने के बाद इतनी शर्म तो पाण्‍डे में होनी चाहिए थी कि अपने पुराने वीडियो व्‍याख्‍यानों का सन्‍दर्भ नहीं देना चाहिए! लेकिन पाण्‍डे जी घमण्‍डी और मूर्ख होने के साथ जिद्दी और ढीठ भी हैं और कोई उनकी ग़लतियों को उनकी आंखों में उंगली डालकर भी इंगित करे तो उन्‍हें स्‍वीकार करने और दुरुस्‍त करने की बजाय, गाली-गलौच पर उतर आते हैं।
खैर, पाण्‍डे जी आगे कहते हैं कि ब्राह्मणों व वर्ण व्‍यवस्‍था को चुनौती देने वाले दर्शनों में बौद्ध दर्शन अन्तिम कड़ी था। यह भी तथ्‍यत: सही नहीं है। प्राचीन जनपदों के काल के आरम्‍भ होने से भी पहले से ऐसे भौतिकवादी दर्शनों की श्रृंखला शुरू हो गयी थी और यह बौद्ध दर्शन के काल के आगे भी जारी रही। यह अवश्‍य है कि बौद्ध दर्शन सामाजिक तौर पर इनमें से सर्वाधिक प्रभावी सिद्ध हुआ। लेकिन यहां पर एक समस्‍या है। पाण्‍डे जी ने अपने एक पिछले वीडियो व्‍याख्‍यान में दावा किया था कि बौद्ध धर्म ने वास्‍तव में वर्ण व्‍यवस्‍था को कोई चुनौती नहीं दी थी और न ही उसमें भौतिकवाद था। हमने अपनी आलोचना में दिखलाया था कि बौद्ध धर्म ने विचारधारात्‍मक स्‍तर पर वर्ण व्‍यवस्‍था और ब्राह्मणों को चुनौती दी थी, हालांकि सामाजिक स्‍तर पर वह अर्थपूर्ण रूप में ऐसा नहीं कर पाया था, और आरंभिक बौद्ध दर्शन में अविकसित द्वन्‍द्ववाद के साथ-साथ आदिम भौतिकवाद के तत्‍व भी थे। लेकिन पाण्‍डे जी पहले जो कह रहे थे और अब जो कह रहे हैं, उसमें अन्‍तर है। लगता है पिछली बार किसी और किताब से टीपा-टीपी की थी और इस बार किसी और से की है!
दूसरी बात यह है कि बौद्ध दर्शन लोकप्रिय इसलिए हो गया क्‍योंकि वह उस दौर की सामाजिक-आर्थिक ज़रूरतों के अनुकूल था, जबकि ब्राह्मणवादी धर्म उत्‍पादक शक्तियों के विकास में अपने अपव्‍ययी कर्मकाण्‍डवाद के कारण एक बाधा बन गया था। यह किस रूप में हुआ उसे जानने के लिए आप रामशरण शर्मा की पुस्‍तक 'मैटीरियल कल्‍चर एण्‍ड सोशल फॉर्मेशंस इन एंशण्‍ट इण्डिया' पढ़ सकते हैं। इस प्रक्रिया में बौद्ध धर्म राजकीय धर्म भी बन गया क्‍योंकि इसने ब्राह्मणवाद को विचारधारात्‍मक स्‍तर पर चुनौती दी थी। बाद में, बौद्ध धर्म के विरुद्ध ब्राह्मणवादी प्रतिक्रिया का आरंभ ब्राह्मणवाद की पुरानी वर्चस्‍वशील स्थिति को हासिल करने का प्रयास था। इस प्रक्रिया में ब्राह्मणवाद ने ऐसी बहुत-सी चीज़ों को बौद्ध धर्म से अपना लिया और उन्‍हें एक अलग रूप दे दिया, जिनके कारण बौद्ध धर्म एक विशेष ऐतिहासिक दौर में सामाजिक रूप से सबसे प्रभावी और वर्चस्‍वशाली बन गया था। जैसे कि जीव हत्‍या का विरोध और अहिंसावाद। शंकर का काल यानी आठवीं सदी ईसवी आते-आते ब्राह्मणवाद बौद्ध धर्म को परास्‍त कर चुका था और उसकी पराजय को शंकर के अद्वैत ने बस पूरा करने की औपचारिकता को अंजाम दिया। पाण्‍डे जी को भी अपने खर्रों से इतना पता है। वह बोलते हैं कि इसके बाद अद्वैत वेदान्‍त दर्शन पूरे बौद्धिक जगत पर हावी हो गया और उसकी मान्‍यताएं समाज में सहज ज्ञान बन गयीं।
इसके आगे पाण्‍डे जी जो बोलते हैं उससे समझ में आ जाता है कि उन्‍हें आदिकालीन वेदान्‍त और शंकर के अद्वैत वेदान्‍त में अन्‍तर नहीं पता है। वह कहते हैं कि मैं आपको अद्वैत वेदान्‍त के मूल और उन सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के बारे में बताया जिनमें वह पैदा हुआ। लेकिन अगर आप पीछे जाएं तो आप पाते हैं कि पाण्‍डे जी ने अद्वैत वेदान्‍त के उदय की सामाजिक-आर्थिक पृष्‍ठभूमि के बारे में तो कुछ बताया ही नहीं, वह तो कबीलाई समाज के पतन और वर्गों के पैदा होने के दौर के बारे में बता रहे थे, जो कि आदिकालीन वेदान्‍त दर्शन के भाववाद के उदय की सामाजिक-आर्थिक पृष्‍ठभूमि था। वह भी उन्‍होंने ग़लत बताया क्‍योंकि उनको लगता है कि समूचा वैदिक काल ही कबीलाई समाज का काल है, जबकि ऐसा केवल ऋग्‍वैदिक काल के बारे में ही कहा जा सकता है।
इसके अलावा भी उन्‍होंने औपनिषदिक वेदान्‍त दर्शन के ऐतिहासिक सन्‍दर्भ के विषय में और भी बहुत सारी मूर्खतापूर्ण बातें कहीं, जिनका हम ऊपर जिक्र कर चुके हैं। उसके बाद वह सीधे अद्वैत वेदान्‍त दर्शन पर पहुंच गये और कहा कि मैं उसके ऐतिहासिक सन्‍दर्भ के बारे में बता रहा था! लेकिन अद्वैत वेदान्‍त दर्शन और शंकर के युग और ऐतिहासिक सन्‍दर्भ के बारे में तो पाण्‍डे जी ने कुछ बताया ही नहीं! वह दौर तो राजनीतिक तौर पर गुप्‍तकाल के बाद के दौर में तमाम क्षेत्रीय सामन्‍ती राजवंशों के उदय और उनके बीच संघर्ष का दौर था। उत्‍तर भारत में कन्‍नौज को लेकर पाल वंश, गुर्जर-प्रतिहार और राष्‍ट्रकूट राज्‍य में संघर्ष जारी था। दक्षिण भारत में भी इस दौर में कई शक्तियों का उदय और सुदृढ़ीकरण हुआ जैसे चोल, चालुक्‍य, चेर, पाण्‍ड्य आदि। सामाजिक तौर पर यह दौर जाति व्‍यवस्‍था और विशेष तौर पर अस्‍पृश्‍यता (जिसे पाण्‍डे जी ने आरंभिक औपनिषदिक काल में पहुंचा दिया है!) के सबसे नग्‍न रूपों के उदय और सुदृढ़ीकरण का दौर था। आर्थिक तौर पर, यह सामन्‍ती उत्‍पादन पद्धति की परिपक्‍वता का दौर था।
इस प्रक्रिया में पाण्‍डे जी यह भी दिखला देते हैं कि उन्‍हें यह पता ही नहीं है कि आरंभिक औपनिषदिक वेदान्‍त और अद्वैत वेदान्‍त में बहुत अन्‍तर है। इसके बारे में आप देवीप्रसाद चट्टोपाध्‍याय और के. दामोदरन दोनों की ही पुस्‍तकों यानी 'भारतीय दर्शन में क्‍या जीवन्‍त है और क्‍या मृत' और 'भारतीय चिन्‍तन परम्‍परा' में पढ़ सकते हैं। पाण्‍डे जी का दावा है कि उन्‍होंने ये दोनों किताबें पढ़ी हैं (तभी तो वह इनकी अनुशंसा करते हैं, हालांकि वह आज तक दामोदरन की पुस्‍तक का सही नाम तक नहीं बता पाए हैं!) लेकिन स्‍पष्‍ट है कि उन्‍होंने नहीं पढ़ी हैं, वरना उन्‍हें यह अन्‍तर पता होता। आरंभिक औपनिषदिक काल का वेदान्‍त, जिसके एक प्रमुख चिन्‍तक याज्ञवल्‍क्‍य हैं, भारतीय भाववादी दर्शन का एक बेहद अहम पड़ाव है, और शंकर का अद्वैत दर्शन इसी को अपने स्रोत के रूप में देखता है, लेकिन सच्‍चाई यह है कि अद्वैत वेदान्‍त आरंभिक औपनिषदिक वेदान्‍त या जिसे आदिकालीन वेदान्‍त कहा जाता है, से बेहद भिन्‍न था। हम यहां इस अन्‍तर के विस्‍तार में नहीं जा सकते हैं और यहां इसकी आवश्‍यकता भी नहीं है, क्‍योंकि जब पाण्‍डे जी ने इसके बारे में अपने ज्ञान के मोती बिखेरे ही नहीं हैं और इन दोनों को ही गड्डमड्ड कर दिया है, तो यहां इतना ही इंगित करना पर्याप्‍त है। जो पाठक इसमें दिलचस्‍पी रखते हैं वे ऊपर बताईं गईं दोनों पुस्‍तकें पढ़ सकते हैं।
इसके बाद पाण्‍डे जी दिखलाते हैं कि किस प्रकार एक बुरे नकलची बच्‍चे की तरह उन्‍होंने खर्रे भी ठीक से नहीं बनाए हैं। वह कहते हैं कि अब वह बताएंगे कि किस प्रकार अद्वैत वेदान्‍त ने जो तमाम भौतिकवादी दर्शन थे उनको अपने अन्‍दर समेट लिया। इसके बाद वह अपने खर्रे ढूंढते हैं, जो कि उन्‍हें मिलते नहीं। कई बार नकलची बच्‍चे भी भूल जाते हैं कि कौन-सा वाला खर्रा कहां छिपाया था! मोजे में या चड्डी में! अन्‍तत: जब पाण्‍डे जी को खर्रा नहीं मिलता है, तो वह गीता पर बात शुरू कर देते हैं। यहां बस इतना और जिक्र कर देना उपयोगी होगा कि अद्वैत वेदान्‍त ने भौतिकवादी दर्शनों को ''अपने भीतर समेटा'' नहीं बल्कि उनका एक भाववादी पाठ पेश किया, उनका सहयोजन किया और उनका ग़लत तरीके से हस्‍तगतीकरण किया। खैर, आगे बढ़ते हैं।
इसके बाद पाण्‍डे जी गीता के एक 'कन्‍फ्यूजन' की बात से गीता पर बात शुरू करते हैं। उसमें जब अर्जुन को कृष्‍ण तमाम दलीलें देकर भी सहमत नहीं कर पाते हैं तो अपने ईश्‍वरीय विकराल रूप को प्रस्‍तुत करते हैं और वही बातें ईश्‍वर के मुंह से बुलवाई जाती हैं और फिर अर्जुन सन्‍तुष्‍ट हो जाते हैं। पाण्‍डे जी के अनुसार दर्शन को धर्म के ज़रिये वैध ठहराने का यह पहला प्रयास था। यह दावा वैसे तो बिल्‍कुल सटीक नहीं है, लेकिन इस पर लम्‍बी चर्चा यहां अनुपयोगी होगी।
इसके बाद पाण्‍डे जी बताते हैं कि वैदिक दर्शन जो कि विरोधी मतों के प्रहारों से घायल था, गीता उन सबको भाववादी मोड़ देकर अपने में समेट लेती है जैसे कि सांख्‍य, योग, इत्‍यादि। पहली बात तो यह है कि कोई एक वैदिक दर्शन नहीं है। ऋग्‍वेद जो कि आरंभिक वैदिक युग में रचित है, में कोई स्‍पष्‍ट और सुसंगत दर्शन था ही नहीं, जैसा कि प्रो. चट्टोपाध्‍याय बताते हैं। अभी समाज में कोई वर्ग नहीं थे और इसलिए वह खाली समय भी नहीं था, जिसमें शासक वर्ग के विचारक दार्शनिक चिन्‍तन करते हैं। यह दौर ऐसे ऋग्‍वैदिक कवियों का दौर था, जिनकी रचनाएं सामाजिक उत्‍पादक व्‍यवहार से जुड़ी हुई थीं और सामाजिक उत्‍पादन में उनका एक प्रकार्यात्‍मक मूल्‍य था, जैसा कि हम ऊपर दिखला चुके हैं। वैदिक काल के उत्‍तरार्द्ध और औपनिषदिक काल में वास्‍तव में दर्शन और दार्शनिक चिन्‍तन का उदय और सुदृ‍ढ़ीकरण होता है। प्रो. चट्टोपध्‍याय के अनुसार, समाज के वर्गों में विभाजन के साथ दार्शनिक चिन्‍तन की शुरुआत होती है, जिसके भ्रूण रूप यजुर्वेद के अन्‍त में एपेण्डिक्‍स के रूप में जोड़े गये ब्राह्मण ग्रन्‍थों में देखी जा सकती है और अरण्‍यक व उपनिषद का दौर आते-आते शासक वर्ग भी स्थिरीकृत हो चुका था और उनके विचारकों द्वारा दार्शनिक चिन्‍तन की परम्‍परा भी सुस्‍थापित हो चुकी थी। इसलिए किसी एक वैदिक दर्शन की बात विकीपीडिया पढ़े हुए लोग करते हैं, तो समझ में आता है, लेकिन पाण्‍डे जी ने तो ''काफी मार्क्‍सवाद पढ़ा है'' और दामोदरन, चट्टोपाध्‍याय, हिरियन्‍ना आदि की पुस्‍तकों का भी वह अध्‍ययन कर चुके हैं! उनके मुंह से ऐसी बात कैसे निकल रही है? इसलिए क्‍योंकि पाण्‍डे जी ने इनमें से एक भी पुस्‍तक का सांगोपांग अध्‍ययन नहीं किया है और वह एक बौद्धिक बहरूपिया हैं, जो हिन्‍दी जगत के अशंकालु (unsuspecting) व असावधान युवाओं को बेवकूफ बनाकर अपनी दुकानदारी चला रहे हैं।
पाण्‍डे जी गीता की रचना के काल और शंकर के अद्वैत वेदान्‍त दर्शन के काल को भी गड्ड-मड्ड कर देते हैं, जिनमें करीब 900 से 1000 साल का अन्‍तर है। दूसरे गीता में अन्‍तर्निहित अन्‍तरविरोध (जिसके बारे में पाण्‍डे जी ने अपना खर्रा पूरी तरह से दामोदरन की पुस्‍तक से टीपकर बनाया है) और शंकर के अद्वैत दर्शन में मौजूद अन्‍तरविरोध एक ही नहीं थे और न ही वह किसी एक वेदान्‍त दर्शन का सामान्‍य अन्‍तरविरोध हैं, क्‍योंकि, जैसा कि हम ऊपर दिखला चुके हैं, आदिकालीन वेदान्‍त और शंकर के अद्वैत वेदान्‍त दर्शन में कई महत्‍वपूर्ण अन्‍तर हैं और यह होना स्‍वाभाविक भी है। एक की शुरुआत आठवीं-सातवीं सदी ईसा पूर्व में होती है और दूसरे की शुरुआत आठवीं सदी ईसवी में होती है। जाहिर है, हर दार्शनिक धारा के ही समान ये दर्शन भी अपने समय का विचारधारात्‍मक प्रतिबिम्‍बन या उत्‍पाद थे। ऐसे में, उनमें यह बात सामान्‍य होने के अलावा कि दोनों ही भाववादी थे, (हालांकि आरंभिक औपनिषदिक वेदान्‍त में कई भाववाद-विरोधी व तार्किक धाराएं भी थीं, जिन पर स्‍पष्‍ट रूप से भौतिकवादी चिन्‍तन का असर था, जिनमें से कुछेक का हम ऊपर उल्‍लेख कर चुके हैं), कई बेहद अहम भिन्‍नताएं थीं, जैसा कि प्रो चट्टोपाध्‍याय व दामोदरन दोनों ही स्‍पष्‍टता से दिखलाते हैं।
इसके बाद पाण्‍डे जी कहते हैं कि यदि आप लोग शंकर के दर्शन के तकनीकी पहलुओं को समझना चाहते हैं तो फिर के. दामोदरन की पुस्‍तक (जिसका सही नाम पाण्‍डे जी को पता नहीं है!), डी. पी. चट्टोपाध्‍याय की पुस्‍तक, हिरियन्‍ना की पुस्‍तक (कौन सी?), राधाकृष्‍णन की पुस्‍तक पढ़ें, उसके सामाजिक-आर्थिक सन्‍दर्भ के बारे में मैंने बता दिया है! यह तो हमने देखा ही है कि पाण्‍डे जी ने क्‍या बताया है! जिस आदमी को लगता कि उपनिषदों की रचना ''15वीं ईसा पूर्व'' (जैसा कि हमने पहले भी दिखलाया है और इस बार भी, पाण्‍डे जी को पुस्‍तकों में सन् पढ़ने भी नहीं आता है) से शुरू हुई, वह बैठकर औपनिषदिक वेदान्‍त दर्शन पर अध्‍ययन चक्र चला रहा है। हिन्‍दी जगत के लिए पाण्‍डे एक पनौती के समान है। लगातार चुगदपने भरा अज्ञान फैलाने में लगा हुआ है! अब चूंकि पाण्‍डे को भी पता है कि वह लाख सावधान रहे, पढ़कर बोले या खर्रे बनाए, कुछ गड़बड़ तो करेगा ही! इसलिए वह खुद ही अन्‍त में बोलता है कि कोई गलती हो तो आप कमेण्‍ट्स में लिख दें, कोई सवाल हों तो कमेण्‍ट्स में लिख दें। अब गलतियां इतनी ज्‍यादा हैं कि उन्‍हें कोई कमेण्‍ट्स में लिखने बैठेगा तो पाण्‍डे जी कमेण्‍ट्स सेक्‍शन पढ़ते-पढ़ते बुढ़ा जाएंगे।
इसके बाद पाण्‍डे जी अपने चुगदपने के लिए हम पर नाराज़ हो जाते हैं! अन्‍त में, वह फिर से कुछ मिनट हमारे ''गैंग'' पर खर्च करते हैं और कहते हैं कि इसे देखिये और जाकर 20 पेज का कोई नया पर्चा लिखिये। पाण्‍डे जी को यह लगता है कि वह दांत पीसकर, पिनपिनाकर एक नकली खिसयानी मुस्‍कराहट के साथ ऐसा बोलेंगे तो हम उनके अज्ञान का अंधकार फैलाने वाले व्‍याख्‍यान के बारे में शायद नहीं लिखेंगे! लेकिन हम क्‍या करें, पाण्‍डे जी? हम भी मजबूर हैं। एक मार्क्‍सवादी अध्‍ययन समूह होने के नाते हिन्‍दी जगत के जिज्ञासु और संजीदा युवाओं के प्रति यह अन्‍याय हम चुपचाप देखते नहीं रह सकते हैं और हालांकि यह पूरी कवायद हमारे लिए काफी ऊबाऊ है, फिर भी हमें आपकी ''बौद्धिक'' नौटंकी और धंधेबाज़ी की पोल खोलनी ही पड़ेगी और जब-जब आप यह कुत्सित कार्य करेंगे, तब-तब हमें ऐसा करना पड़ेगा। कम-से-कम तब तक जब तक कि सभी सोचने-समझने वाले लोगों में यह एक स्‍थापित तथ्‍य बन जाए कि आप एक ''बौद्धिक'' बहरूपिये, धंधेबाज़ और मूर्ख हैं। वैसे अभी ही तमाम लोगों के लिए यह एक स्‍थापित तथ्‍य बन चुका है। सैंकड़ों लोगों को आपकी असलियत के बारे में पता चल चुका है और आने वाले समय में हम सैंकड़ों तक इस सच्‍चाई को पहुंचाएंगे भी। चाहें आप अपनी नकली मुस्‍कराहट के साथ दांत पीसते-पीसते पोपले ही क्‍यों न हो जाएं। अगर आप सही पढ़ा रहे हैं, तो आप ये ''गैंग-वैंग'' करना छोडि़ये और यह सप्रमाण और ससन्‍दर्भ बताइये कि हमारी आलोचना कैसे ग़लत है। यह कुत्‍साप्रचार और गाली-गलौच से आपको कोई लाभ नहीं हानि ही होगी। अगर आप नहीं दिखला पाते कि हमारी आलोचना ग़लत है और अपने ''गैंग'' के प्रलाप और ''परिवार बचाओ'', ''रिटायर्ड पतित तत्‍वों को नौकरी दिलवाओ'' इत्‍यादि का हल्‍ला जारी रखते हैं, तो साबित हो जायेगा कि हमारे द्वारा की गयी आलोचनाएं सही हैं और आप एक निकृष्‍ट किस्‍म के बौद्धिक दलाल, धंधेबाज़, मूर्ख, पतित और बहरूपिये हैं जो हिन्‍दी जगत के लोगों को मूर्ख बनाकर अपनी दुकान चला रहे हैं।


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