''ज्ञान-धुरन्धर'' पाण्डे
ने भारतीय दर्शन का कचड़ा कैसे किया?
(अशोक कुमार पाण्डे द्वारा मार्क्सवादी अध्ययन चक्र में
फैलायी जा धुन्ध का आलोचनात्मक विवेचन)
(तीसरा भाग)
·
हण्ड्रेड
फ्लावर्स मार्क्सिस्ट स्टडी ग्रुप, दिल्ली
विश्वविद्यालय,
दिल्ली
अब हम पाण्डे जी के “मार्क्सवादी अध्ययन चक्र” के
तीसरे वीडियो पर आते हैं।
तीसरे वीडियो की शुरुआत में ही पाण्डे जी बताते हैं कि किताबें पढ़ने का कोई
विकल्प नहीं है और इस अध्ययन चक्र के ज़रिये उनका मकसद केवल मार्क्सवाद की एक
मोटी समझदारी बनानी है और माहौल बनाना है। हम
पहली दो किश्तों में देख चुके हैं कि पाण्डे जी कैसा माहौल बना रहे हैं। बल्कि
कहना चाहिए कि यह व्यक्ति हिन्दी जगत में जो थोड़ा माहौल है मार्क्सवाद को
जानने-समझने का, उसे भी खराब कर रहा है।
पाण्डे जी शुरू में मार्क्स की पुस्तक 'राजनीतिक
अर्थशास्त्र की समालोचना में योगदान' से एक उद्धरण पढ़ते हैं जिसमें
यह कहा गया है कि अस्तित्व के भौतिक साधन मनुष्यों की सामाजिक चेतना का निर्धारण
करते हैं। देखिये कि पाण्डे जी ने इसका क्या नतीजा निकाला है। वह कहते हैं कि
इसका अर्थ यह है कि आप जैसा खाना खाते हैं, आपके
घर में जैसे सामान और संसाधन हैं, जिस प्रकार के समाज
में आप हैं, वह तय करता है कि आपका बौद्धिक अस्तित्व कैसा होगा, आपकी
चेतना कैसी होगी! फिर से पाण्डे जी ने दिखलाया है कि उन्होंने मार्क्सवाद
का संजीदगी से कभी अध्ययन नहीं किया है। मार्क्स जब कहते हैं कि अस्तित्व के
भौतिक साधन तो उसका अर्थ यहां असल में उत्पादन के साधन व उत्पादक शक्तियों के
विकास के भौतिक स्तर से है। यहां मार्क्स अपनी इस बुनियादी ऐतिहासिक भौतिकवादी
थीसिस को विकसित कर रहे हैं कि भौतिक जीवन के उत्पादन व पुनरुत्पादन की
स्थितियां मनुष्य की चेतना का निर्धारण करती हैं। इस थीसिस को मार्क्स 'जर्मन
विचारधारा' के समय से ही विकसित कर रहे थे, इस
पर उन्होंने 'दर्शन की दरिद्रता' में
भी लिखा और इसे राजनीतिक अर्थशास्त्र के अध्ययन के साथ 'राजनीतिक
अर्थशास्त्र की समालोचना में योगदान' और 'पूंजी' में
सम्पूर्णता में पेश किया और ऐतिहासिक तथ्यों के साथ सिद्ध किया। मार्क्स 'जर्मन
विचारधारा' में लिखते हैं:
"This conception of history depends on our ability to expound the real
process of production, starting out from the material production of life
itself, and to comprehend the form of intercourse connected with this and
created by this mode of production (i.e. civil society in its various stages), as the basis of all history; and to
show it in its action as State, to explain all the different theoretical
products and forms of consciousness, religion, philosophy, ethics, etc. etc.
and trace their origins and growth from that basis; by which means, of course,
the whole thing can be depicted in its totality (and therefore, too, the
reciprocal action of these various sides on one another)." (Marx, 'German
Ideology')
इसी प्रकार मार्क्स 'दर्शन की दरिद्रता' में लिखते हैं:
"The hand-mill gives
you society with the feudal lord, the steam-engine gives you society with the
industrial capitalist." (Marx, 'Poverty of Philosophy)
और इसको सबसे उन्नत रूप में मार्क्स 'राजनीतिक अर्थशास्त्र की
समालोचना में योगदान' में इन शब्दों में कहते हैं, जिसे हमने पहले भी उद्धृत
किया था:
“अपने अस्तित्व के सामाजिक
उत्पादन में, मनुष्य अपरिहार्य रूप से ऐसे
निश्चित सम्बन्धों में बँधते हैं जो उनकी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं, यानी उत्पादन के सम्बन्ध जो उत्पादन की भौतिक
शक्तियों के विकास की निश्चित मंजिल के अनुरूप होते हैं। इन उत्पादन सम्बन्धों
का कुल योग समाज का वह आर्थिक ढाँचा, वह असली आधार होता है जिस पर क़ानूनी और राजनीतिक अधिरचना
खड़ी होती है तथा जिसके अनुरूप ही सामाजिक चेतना के निश्चित रूप होते हैं। भौतिक
जीवन की उत्पादन प्रणाली सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक जीवन की सामान्य प्रक्रिया को ढालती है। मनुष्य की चेतना
उसके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती, वरन् उसका सामाजिक अस्तित्व उसकी चेतना को निर्धारित करता
है।''
(मार्क्स, 'राजनीतिक अर्थशास्त्र की
समालोचना में योगदान')
जैसा कि आप देख सकते हैं कि
जब मार्क्स जीवन या अस्तित्व के उत्पादन व पुनरुत्पादन की भौतिक
परिस्थितियों/साधनों के द्वारा सामाजिक चेतना के निर्माण की बात कर रहे होते हैं, तो वे मूलत: यह बता रहे होते
हैं कि भौतिक उत्पादन के साधन या उत्पादन की भौतिक स्थितियों (यदि आप 'पूंजी' पढ़ें, तो आप पाएंगे कि उत्पादन के
साधनों के लिए मार्क्स इन दोनों पदावलियों का इस्तेमाल करते हैं: conditions of production और means of production) के अनुसार ही सामाजिक चेतना
का निर्माण होता है। इस पूरी व्यापक ऐतिहासिक व
राजनीतिक अर्थशास्त्रीय बात को आप इस बात में अपचयित (reduce) नहीं कर सकते हैं कि आप जैसा खाना खाते हैं, जैसे कपड़े पहनते हैं, जैसे घर में रहते हैं, उससे आपकी चेतना का निर्माण होता है। आप इसे इस बात में भी अपचयित
नहीं कर सकते हैं कि 'जैसे समाज में आप रहते हैं', क्योंकि यह बेहद सामान्य
बात है, जिसका
उत्पादन के साधनों व उत्पादन के सम्बन्धों से अनिवार्यत: रिश्ता नहीं होता
है। मिसाल के तौर पर, यदि किसी देश में मज़दूरों को बेहतर रिहायश मिलने लगे
और बेहतर भोजन मिलने लगे तो उनकी सामाजिक चेतना पूंजीवादी/बुर्जुआ नहीं हो जाती
है। उसकी चेतना का निर्धारण मूलत: इस बात से होता है कि वह किस प्रकार के उत्पादन
सम्बन्धों में बंधा हुआ है, किस प्रकार की भौतिक उत्पादन पद्धति में काम करता है
और उत्पादक शक्तियों के विकास का क्या स्तर है। निश्चित तौर पर, एक दूसरे स्तर पर यह ज़रूर
होता है कि अलग-अलग व्यक्तियों की चेतना पर उनकी परवरिश की स्थितियों का असर
पड़ता ही है। लेकिन पहली बात तो यह है कि मार्क्स यहां अलग-अलग व्यक्तियों की चेतना की
बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि किसी समाज में मौजूद सामाजिक चेतना
की बात कर रहे हैं, जो कि उस समाज की उत्पादन पद्धति, उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादक
शक्तियों के विकास के स्तर से निर्धारित होती है। दूसरी बात यह है कि मार्क्स
के लिए सभी लोगों के परवरिश की स्थितियां, उनके खान-पान की स्थितियां, उनका रहन-सहन इत्यादि अपने
आप में कोई चीज़ नहीं हैं, बल्कि ये सारी स्थितियां समाज में मौजूद उत्पादन
पद्धतियों, उत्पादन
सम्बन्धों और उत्पादक शक्तियों के विकास के स्तर से ही निर्धारित और व्युत्पन्न
होती हैं। इसलिए पाण्डे जी ने मार्क्स की इतिहास की इस भौतिकवादी समझदारी पर
अपने गंजे दिमाग़ का उस्तरा इस तरह चलाया है कि यह एक सड़कछाप अखबारी समझदारी बन
गयी है, मसलन, 'जैसा खाना आप खाते हैं, वैसी आपकी चेतना बनती है।' फिर पाण्डे जी को सर्वहारा
चेतना निर्माण करने के लिए एक डायट चार्ट भी बनाकर भेज देना चाहिए! दूसरा, उन्हें सबसे पहले तो अपने
खान-पान, संसाधनों, इत्यादि को ऐसा बना देना चाहिए कि उनकी सर्वहारा
चेतना बन सके! कैसा मूर्ख आदमी है यह और कितना धृष्ट कि बिना
पढ़े-बिना समझे मार्क्सवाद पर अध्ययन चक्र लेने बैठ गया है!
पाण्डे जी इस बारे में एक मिसाल देकर
तुरन्त ही सारे सन्देह को दूर कर देते हैं कि वास्तव में उन्हें मार्क्स
द्वारा विकसित की गयी इतिहास की भौतिकवादी समझदारी के विषय में कुछ नहीं पता है। वह
कहते हैं कि देखिये कैसे लॉकडाउन होने पर सारे लेखक-प्रकाशक, और यहां तक कि प्रधानमन्त्री
महोदय पर सोशल मीडिया पर लाइव करने लगे, क्योंकि आज हमारे पास मोबाइल
और इण्टरनेट है! लॉकडाउन और मोबाइल और इण्टरनेट का होना
भौतिक परिस्थिति थी जिसने हमारे अन्दर सोशल मीडिया पर लाइव करने की चेतना का
निर्माण किया! यह है पाण्डे जी के अनुसार, मार्क्स की इतिहास की
भौतिकवादी समझदारी! इसमें सबसे प्रमुख बात जो कि मार्क्स की भौतिकवादी
समझदारी को अन्य सभी प्रकार के यांत्रिक, अधिभूतवादी व सतही किस्म के
भौतिकवाद से अलग करती है वह ग़ायब है: उत्पादन पद्धति, उत्पादन सम्बन्ध और उत्पादक
शक्तियों के विकास का स्तर। अन्य सभी ठोस परिस्थितियां मूलत: इन बुनियादी चीज़ों
के आधार पर ही तय होता हैं, पाण्डे जी के भोजन, पोशाक, घर, संसाधन और गाड़ी समेत! अब हम बहस में तीखे विशेषणों से क्षुब्ध हो जाने
वाले कोमल संवेदनाओं वाले अपने संजीदा युवा व बुद्धिजीवी साथियों से ही पूछेंगे कि
ऐसे आदमी को क्या कहें? हमें काफी सोचने पर जो सबसे कोमल विशेषण समझ में आया
वह यह है: 'प्रचण्ड मूर्ख।'
पाण्डे जी आगे बताते हैं कि यही बात कि
सामाजिक अस्तित्व सामाजिक चेतना को निर्धारित करता है, या इसका उल्टा होता है, भाववाद और भौतिकवाद के बीच का
अन्तर है। भाववाद मानता है कि चेतना अस्तित्व को निर्धारित करती है, जबकि भौतिकवाद मानता है कि
अस्तित्व से चेतना निर्धारित होती है। लेकिन
पाण्डे जी की इस परिभाषा से यह पहलू ग़ायब है कि मार्क्स का भौतिकवाद बस इतना ही
नहीं है। मार्क्स का भौतिकवाद बताता है कि भौतिक स्थितियों से निर्धारित होने
के बाद चेतना भौतिक स्थितियों को निर्धारित भी कर सकती है। यदि भौतिक परिस्थितियों
के सही वैज्ञानिक सामान्यीकरण के आधार पर कोई चेतना/सिद्धान्त निर्मित होता है
और वह व्यापक जनसमुदायों के बीच जड़ जमा लेता है, तो वह स्वयं एक भौतिक शक्ति
बन जाता है और भौतिक परिस्थितियों को बदल भी सकता है।
भाववाद के बारे में अपने ज्ञान के मोती
बिखेरना पाण्डे जी बन्द नहीं करते! वह कहते हैं कि भाववाद वह होता है जो कि
कहता है कि चेतना कहीं और निर्मित होती है और फिर वह हमें बनाती है, और सबकुछ पहले से तय होता है।
पहली बात तो यह है कि भाववाद यह कहता है
कि चेतना पदार्थ से स्वतन्त्र अस्तित्वमान होती है, वह ''कहीं निर्मित होती है'',
भाववाद अनिवार्यत: ऐसा नहीं कहता। भाववाद के क्लासिकीय संस्करण
तो यह कहते हैं कि यह चेतना अनादि-अनन्त होती है, वह अपने एक हिस्से को
परकीकृत कर भौतिक जगत का निर्माण करती है और अन्त में इस भौतिक जगत को उस परम
चेतना तक ही पहुंचना होता है, या हेगेल के शब्दों में, परम चेतना अपने आपको भौतिक
जगत में फिर से रियलाइज़ (वास्तवीकृत)
करती है और उसका आत्म-अलगाव (self-alienation) समाप्त होता है। इसमें
चेतना कहीं या कभी निर्मित हुई, इसकी कोई बात नहीं है। दूसरी बात यह कि पाण्डे जी
यहां फिर से भाववाद को नियतिवाद व नियतत्ववाद में अपचयित कर रहे हैं, जबकि ऐसा नहीं किया जा सकता
है। इसके बारे में हम पिछली दो किश्तों में विस्तार से लिख कर दिखला चुके हैं कि
भाववाद का हर संस्करण यह नहीं मानता है कि सबकुछ कहीं पर पहले से निर्धारित है।
बल्कि भाववाद के कुछ संस्करण तो यह कहते हैं कि कुछ भी तय नहीं है, कुछ भी तय नहीं किया जा सकता
है। मिसाल के तौर पर, अज्ञेयवाद (agnosticism), आदि।
पाण्डे जी इस बात का प्रमाण देने के लिए
कि सबकुछ पहले से तय नहीं होता है, कहते हैं कि सबकुछ आपकी परवरिश से तय होता है; जिस परिवेश में आपकी परवरिश
होती है उससे सबकुछ तय होता है। यह भी
सटीक नहीं है। पहली बात तो यह है, जिसका हम ऊपर जिक्र कर चुके हैं, जब मार्क्स भौतिक स्थितियों
की बात करते हैं, तो उनका अर्थ मूलत: उत्पादन के साधनों, उत्पादन के सम्बन्धों और
उत्पादक शक्तियों के स्तर से है; और ये ही स्थितियां व्युत्पन्न रूप में (in derivative form), अलग-अलग व्यक्तियों के
वैयक्तिक परवरिश आदि को निर्धारित करती हैं; ये परवरिश की स्थितियां अपने
आप में पूर्व-प्रदत्त नहीं होतीं, बल्कि जीवन के उत्पादन व पुनरुत्पादन की स्थितियों
से निर्धारित होती है। इस बात को गोल कर
दिया जाय और बस अलग-अलग लोगों के परवरिश के परिवेश की बात में अस्तित्व की भौतिक
परिस्थितियों को अपचयित कर दिया जाये,
तो इस पूरी थीसिस की असली अन्तर्वस्तु
ही ग़ायब हो जायेगी और मार्क्सवाद की वैसी ही गंजी किस्म की समझदारी बनेगी,
जैसे कि पाण्डे की है।
पाण्डे
जी की आदत है कि वह हर चीज़ के बारे में काफी उदाहरण देते हैं, जो कि एक समझदार आदमी के लिए अच्छी आदत होती है, विशेष तौर पर यदि वह शिक्षण के काम को अंजाम दे रहा
हो। लेकिन एक मूर्ख आदमी के साथ यह किस प्रकार बन्दर के हाथ में उस्तरा बन जाता
है, उसे देखिये। मतलब यह आदमी
मुंह खोलते ही मूर्खता भरी बातें बोलता है। पाण्डे जी कहते हैं,
''जब पितृसत्तात्मक समाज की रचना की
गयी...''। माने कि किसने की? पुरुषों ने? शासक वर्ग ने? (लेकिन पितृसत्ता तो किसी भी स्थापित व संस्थाबद्ध
शासक वर्ग के अस्तित्व में आने से पहले ही अस्तित्व में आ चुकी थी) इतिहास का
कोई प्राथमिक स्तर पर खड़ा विद्यार्थी भी जानता है कि पितृसत्ता उत्पादन सम्बन्धों
व उत्पादक शक्तियों के द्वन्द्व के विकास की एक निश्चित मंजिल पर अस्तित्व में
आई। यह एक सामाजिक प्रक्रिया थी, जिसमें यह स्वत:स्फूर्त रूप से विकसित हुई। इसकी
किसी ने सचेतन तौर पर रचना नहीं की थी! जब समाज में अधिशेष का उत्पादन नहीं हुआ
था,
तो मातृप्रधान व पितृप्रधान
समाज दोनों के ही उदाहरण मिलते थे, जो कि इस बात पर निर्भर करते थे कि कबीले किस उत्पादक
गतिविधि के ज़रिये अपने जीवन का पुनरुत्पादन कर रहे थे। जैसा कि मार्क्स व
एंगेल्स ने बताया था, वर्गविहीन कबीलाई समाज में श्रम विभाजन लैंगिक आधार
पर होता था। इसमें ज्यादातर कबीले शिकारी व कन्द-मूल एकत्र करने वाले थे या
पशुचारी खानाबदोश घुमन्तू कबीले थे। जहां पर कन्द-मूल एकत्र करने की गतिविधि ज्यादा
महत्वपूर्ण थी, वहां
स्त्रियों की स्थिति कबीले के जेण्डर सम्बन्धों में अधिक प्रधान थी, जहां शिकार की गतिविधियां
किन्हीं कारणों से अधिक प्रधान थीं, वहां पुरुषों की स्थिति ज्यादा प्रधान
थीं। लेकिन इन दोनों ही प्रकार के वर्गविहीन कबीलाई समाजों में ये जेण्डर सम्बन्ध
बहुत तरल स्थिति में थे और प्रधानता का अर्थ किसी भी रूप में पितृसत्ता का वह रूप
नहीं था, जो
कि वर्ग समाज में अस्तित्व में आया। पहली बार नियमित तौर पर अधिशेष उत्पादन के
साथ वर्ग अस्तित्व में आये, वर्गीय प्रभुत्व की निरंतरता को सुनिश्चित करने के
लिए उत्तराधिकार का प्रश्न अस्तित्व में आया और वैसे ही स्त्री एकल विवाह की
प्रथा अस्तित्व में आयी। इसी के साथ स्त्रियों को घरों की चौहद्दी में कैद करने
और इस प्रकार के जेण्डर सम्बन्धों के औचित्यकरण (justification) व वैधीकरण (legitimation) करने वाली पितृसत्तात्मक
विचारधाराओं का जन्म हुआ। यह पूरी प्रक्रिया कोई ''कर नहीं रहा था'' बल्कि यह सामाजिक विकास की एक
स्वत:स्फूर्त ऐतिहासिक वस्तुगत प्रक्रिया थी, जो कि समाज और प्रकृति की उस
अन्तर्क्रिया के साथ ही शुरू हो गयी थी, जोकि मनुष्य अपने जीवन के उत्पादन व
पुनरुत्पादन के लिए अनिवार्यत: करते हैं। निश्चित तौर पर, एक बार जब सामाजिक उत्पीड़न
की ऐसी व्यवस्थाएं अस्तित्व में आ जाती हैं, तो इसके लाभप्राप्तकर्ता
उसका सचेतन तौर पर प्रयोग करते हैं, उन्हें विस्तारित करते हैं और उसकी हिफ़ाज़त करते
हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि किसी/किन्हीं पुरुषों या शासक वर्गों ने
सचेतन तौर पर पितृसत्ता की रचना की। यह पितृसत्ता के मूल, उद्भव और विकास की गलत व्याख्या
होगी। लेकिन पाण्डे जी ने जैसे ''मार्क्सवाद''
की एक नयी रचना ही कर डाली है, उसी प्रकार उन्हें लगता है कि पितृसत्ता की किसी ने
रचना की थी।
आगे पाण्डे जी अपने बौद्धिक स्ट्रिप्टीज़
को जारी रखते हुए कहते हैं कि ''आधुनिक काल में जब स्त्रियों ने इसके खिलाफ आवाज़
उठाई तो यह स्थिति बदल गयी!'' पहली बात तो यह है पितृसत्ता
आज भी मौजूद है, बस
मध्यकाल या उससे पहले की पितृसत्तात्मक व्यवस्थाओं से यह अन्तर है कि यह
पूंजीवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था है। सामन्ती काल में सामन्ती
पितृसत्तात्मक व्यवस्था थी, और दास व्यवस्था के दौर में दास व्यवस्था के साथ
सामंजस्य रखने वाली पितृसत्तात्मक व्यवस्था थी। हर नयी शोषण-आधारित उत्पादन
व्यवस्था पहले से मौजूद सामाजिक उत्पीड़न के विभिन्न रूपों को अपने बुनियादी
तर्क और गतिकी के अनुसार बदलती है, उसे अपने साथ तन्तुबद्धीकृत (articulate) करती है। पूंजीवादी व्यवस्था
ने पितृसत्ता के साथ, नस्लवाद के साथ, एण्टी-सेमिटिज्म के साथ और
हमारे देश के विशिष्ट सन्दर्भ में जाति व्यवस्था के साथ यही किया है। ये सामाजिक
उत्पीड़न के ऐसे रूप हैं, जो पूंजीवाद के अस्तित्व में आने से पहले से
विद्यमान थे (नस्लवाद सीमित अर्थों में इसका अपवाद है क्योंकि जिसे हम नस्लवाद
कहते हैं वह मूलत: पूंजीवाद के साथ ही अस्तित्व में आया, हालांकि इसके कुछ भ्रूण रूप
पूंजीवाद की ओर संक्रमण की शुरुआत में ही सामने आ गये थे)। इन्हें पूंजीवादी उत्पादन
व्यवस्था ने अपने साथ तन्तुबद्धीकृत किया। मार्क्स 'पूंजी' में बताते हैं कि किस प्रकार
स्त्री श्रम का पूंजीवाद ने समाजीकरण किया और उसमें आधुनिक मशीनरी व कारखाना व्यवस्था
की क्या भूमिका थी। इसके विस्तार में हम यहां नहीं जा सकते हैं, लेकिन रुचि रखने वाले पाठक 'पूंजी' का वह हिस्सा पढ़ सकते हैं, जिसमें उन्होंने कारखाना व्यवस्था
के विकास और स्त्री व बाल श्रम के समाजीकरण और पूंजीवादी शोषण की बात की है (अध्याय
15,
'पूंजी', पहला खण्ड)। इसलिए आधुनिक काल में स्त्रियों ने यदि बड़े
पैमाने पर अपने राजनीतिक हकों (जैसे मताधिकार), सामाजिक हकों (जैसे पुनरुत्पादन सम्बन्धी अधिकार, आदि) और आर्थिक हकों (जैसे कि समान काम के लिए समान
वेतन, उत्तराधिकार के अधिकार, आदि) के लिए आवाज़ उठाई, तो इसका एक भौतिक व ऐतिहासिक सन्दर्भ था। पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था
एक सीमित अर्थ में औरतों के श्रम का समाजीकरण करती है, हालांकि उसे आम तौर पर चूल्हे-चौखट
की गुलामी से मुक्त किये बगैर। नतीजतन, औरतों को पूंजीवादी शोषण और पितृसत्तात्मक
उत्पीड़न दोनों को ही झेलना पड़ता है। लेकिन यह समाजीकरण और बहुत सी चीज़ें भी
पैदा कर देता है, जैसे कि स्त्रियों को शिक्षा मिलती है (क्योंकि
पूंजीवाद को केवल सस्ता श्रम ही नहीं बल्कि पढ़े-लिखे मज़दूर चाहिए होते हैं, क्योंकि वे अधिक उत्पादक
होते हैं), वे
घरों से एक हद तक बाहर निकलती हैं, उनमें वर्ग भावना का विकास होता है, उनमें अपनी उत्पीड़़न के
विरुद्ध भावना का विकास होता है और यही कारण था कि पूंजीवाद के विकास के बाद ही
दिदेरो, वॉल्स्टनक्राफ्ट, फूरिये, बेबेल आदि जैसे चिन्तकों ने
स्त्रियों की स्वतन्त्रता और समानता की बात की और पहली बार अपनी स्वतन्त्रता
के लिए स्त्रियों की आवाज़ को इतिहास में अभूतपूर्व गूंज के साथ सुना गया। तो आधुनिक काल में यदि स्त्रियों ने बड़े
पैमाने पर पितृसत्ता के विरुद्ध आवाज उठायी तो इसके पीछे भी एक ऐतिहासिक सन्दर्भ
है, जिसे पाण्डे जी नहीं समझते
हैं। यह न समझा जाय तो यह बताया ही नहीं जा सकता है कि पितृसत्ता के हज़ारों वर्ष
से मौजूद होने के बावजूद पहली बार व्यापक पैमाने पर और जबर्दस्त आन्दोलन के रूप
में स्त्रियों ने अपनी गुलामी के खिलाफ आवाज़ आधुनिक काल में ही क्यों उठायी? लेकिन ऐसा भी नहीं है कि
आधुनिक काल से पहले स्त्रियों ने पितृसत्ता के विरुद्ध बोला ही नहीं था। फिर भी
इस बिन्दु पर पाण्डे को संदेह का लाभ दे देते हैं कि उसका शायद यह मतलब नहीं
होगा, और
वह बोलचाल की भाषा में ऐसा बोल गया है। लेकिन
फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि पाण्डे को पितृसत्ता के उदय और उसके विरुद्ध
संघर्ष के भौतिक कारणों और ऐतिहासिक सन्दर्भ के बारे में कोई समझदारी नहीं है।
इसके बाद पाण्डे जी एक बार फिर से भाववाद
को पुरोहितवाद और अध्यात्मवाद में अपचयित करते हैं जिसकी हम पहले ही आलोचना लिख
चुके हैं, इस
मूर्खता का दुबारा यहां खण्डन करना ज़रूरी नहीं है।
इसके बाद पाण्डे जी फिर अपना विनम्रता का
झीना दुपट्टा ओढ़ते हैं कि मैं भाववाद और भौतिकवाद के बारे में बस इतना ही बता
सकता था (बस,
इतना ही!?) इसके आगे के जटिल प्रश्नों का मैं जवाब नहीं दे
सकता, आप
उसके लिए किताबें पढ़ें। इस बात में कोई दिक्कत नहीं है कि कोई बेहद संक्षेप में
भाववाद और भौतिकवाद की बुनियादी अवधारणाओं और उनके बीच फर्क के बारे में बताये।
बिल्कुल बताया जा सकता है। लेकिन असल बात यह है कि आप सही बताएं। आप हिन्दी जगत
के ज्ञान के लिए प्यासे और उसका क्रान्तिकारी उपयोग करने की चाहत रखने वाले तमाम
युवाओं पर इस प्रकार मूर्खताओं, अज्ञान और अधूरे ज्ञान की बारिश करेंगे, तो ज़ाहिर है, उसका विरोध भी करना पड़ेगा। लेकिन
पाण्डे जी को इन बातों से क्या मतलब? वह तो हिन्दी जगत के नये
मार्क्सवादी बुद्धिजीवी बनने के लिए छरियाए हुए हैं और ज़मीन पर लोट गये हैं! ऐसी अवस्था में बच्चे जिस
प्रकार ऊल-जुलूल बकते हैं, पाण्डे जी भी उसी प्रकार लगातार ऊल-जुलूल
बके जा रहे हैं। आगे बढ़ते हैं।
पाण्डे जी इसके बाद पहले वीडियो में की
गयी एक तथ्यात्मक गलती को दुरुस्त करते हुए बताते हैं कि 'भारतीय दर्शन में क्या जीवित
क्या मृत'
दामोदरन की किताब नहीं है, बल्कि देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय की पुस्तक है, और के. दामोदरन की पुस्तक का
नाम है 'भारतीय
दर्शन परम्परा'! हम पिछली किश्त में बता चुके हैं कि दामोदरन की पुस्तक का नाम है: भारतीय
चिन्तन परम्परा। इस प्रकार से पाण्डे अपनी गलती ठीक करता है!
इन पुस्तकों के अलावा, पाण्डे जी राहुल सांकृत्यायन
की 'दर्शन-दिग्दर्शन' को पढ़ने का सुझाव देते हैं
(वैसे हम दिखलाएंगे कि अगर पाण्डे जी ने उपरोक्त तीन पुस्तकों को भी ठीक से
पढ़ा होता, तो
वह भारतीय दर्शन के ऊपर चर्चा में वैसी भयंकर मूर्खताएं नहीं करते जो उन्होंने की
हैं;
उन पर हम आगे आएंगे)। और इसके
अलावा, वह
राधाकृष्णन की दर्शन का परिचय देते हुए लिखी गयी पुस्तक का हवाला देते हैं और
कहते हैं कि जो ज्यादा गहन रूप में जानना चाहते हैं वह इस पुस्तक को पढ़ें, जो कि कई खण्डों में है! पहली बात तो यह है कि ज्यादा
गहन तरीके से दर्शन के मूल सवालों पर जानने के लिए मार्क्सवाद में दिलचस्पी रखने
वाले अध्येताओं के लिए राधाकृष्णन की पुस्तक कतई मुफीद नहीं है। राधाकृष्णन
खुद ही एक भाववादी चिन्तक थे और दर्शन के जानकार मार्क्सवादी लेखकों, सिद्धान्तकारों, आदि की इस पुस्तक के बारे में बहुत ही बुरी राय है।
दूसरी बात, उनकी पुस्तक दो ही खण्डों
में है, कई खण्डों में नहीं, जैसा कि पाण्डे बता रहा है। जाहिर है, उसने यह पुस्तक पढ़ी नहीं है, और किसी पुस्तक की 'बिब्लियोग्राफी' या 'सजेस्टेड रीडिंग्स' से इस पुस्तक का नाम उठाकर इसने चेंप दिया है।
इसके आगे पाण्डे जी भारतीय दर्शन पर आते
हैं। इसके पहले वह बताते हैं कि भाववाद और भौतिकवाद के बीच संघर्ष मनुष्य के
सोचने-विचारने के साथ ही शुरू हो गया था और यह एक गलत धारणा रही है कि भारतीय
दर्शन का अर्थ केवल वेदान्त है, हालांकि दर्शनों के संघर्ष में वेदान्त विजयी रहा।
साथ ही, यह
भी एक गलत धारणा है कि पूरा पश्चिमी दर्शन भौतिकवादी रहा है। दोनों ही जगहों पर
इनके बीच संघर्ष जारी रहा है। यह सच है। इसके बाद पाण्डे जी भारत के छह प्राचीन
दर्शनों पर चर्चा शुरू करते हैं। बीच में वह यह बताना नहीं भूलते कि अपनी पुस्तक
में वह इन पर चर्चा करते हैं और आप उनकी पुस्तक से भी यह पढ़ सकते हैं और कहीं और
से भी यह पढ़ सकते हैं!
पाण्डे जी बताते हैं कि उपरोक्त छह
दर्शनों के अलावा तीन और दर्शन हैं: चार्वाक, बौद्ध और जैन।
पाण्डे जी पहले दर्शन की बात करते हैं, यानी मीमांसा और बताते हैं कि यह निरीश्वरवादी भी है और
आस्तिक भी। ऐसा क्यों है इसके बारे में पाण्डे जी ने ठीक से रिसर्च नहीं किया।
एक वर्गीकरण के अनुसार उन दर्शन धाराओं को आस्तिक कहा गया जो कि वेदों की वैधता
में भरोसा रखते थे। मीमांसा ऐतिहासिक तौर पर एक प्रतिगामी प्रवृत्ति थी, क्योंकि उसका मकसद था कर्मकाण्ड का तर्कपोषण करना।
कर्मकाण्ड इस संसार में आनन्द के लिए व अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए
आवश्यक कहे गये हैं। इस रूप में मीमांसा कर्मकाण्ड का समर्थन करती है जबकि इसके
विपरीत धारा ज्ञानकाण्ड भी वेदों की वैधता को प्रश्नों से इतर मानती है, लेकिन वह कहती है कि यथार्थ कुछ नहीं है, बल्कि माया/भ्रम है। सुख, दुख सब माया है। लेकिन फिर इस दुनिया में उन आकांक्षाओं की
पूर्ति के लिए कर्मकाण्ड की अवधारणा गैर-ज़रूरी हो जाती है, जिन इच्छाओं-आकांक्षाओं के लिए कर्मकाण्ड का सुझाव दिया
जाता है;
साथ ही, कर्मकाण्ड करने वाले पुरोहित ब्राह्मण वर्ग के भौतिक हितों
पर चोट पड़ती है। वास्तव में, मीमांसा वेदों की व्याख्या के इस भाववादी धड़े का खण्डन
करती है। कुमारिल ने सबसे प्रभावी और तर्कपूर्ण ढंग से इसका खण्डन किया है, और देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय के अनुसार, तकनीकी रूप से भाववाद का यह खण्डन शानदार है। लेकिन साथ ही
चट्टोपध्याय बताते हैं कि मीमांसा के दर्शन में एक अन्तरविरोध है। यह ईश्वर, आत्मा, मोक्ष जैसी भाववादी धारणाओं के प्रति तटस्थ है। यह भी
वेदों के प्रश्नेतर होने को मानता है और उसके कर्मकाण्डीय पहलू की दार्शनिक
भाववादी ज्ञानकाण्डीय पहलू से हिफाजत करता है। लेकिन बाद के मीमांसा दार्शनिकों
द्वारा मोक्ष व ईश्वर की धारणा को लाकर इस अन्तरविरोध को दूर करने का प्रयास
किया गया,
जो कि असफल रहता है, क्योंकि मीमांसा के मूल दर्शन में इन प्रश्नों के प्रति एक
तटस्थता मौजूद है और जिन आधारों पर कर्मकाण्डीय धारा का समर्थन करते हुए भाववाद
का निषेध किया गया था उनसे अब मोक्ष, ईश्वर, आत्मा आदि की अवधारणाओं का मतभेद सामने आता है। चट्टोपाध्याय
के निम्न शब्द मीमांसा दर्शन के इस अन्तरविरोध को स्पष्ट कर देते हैं:
''कुमारिल के दर्शन का यही अन्तरविरोध है। उन्होंने भाववाद
के खण्डन में जो योगदान किया, वह निस्सन्देह बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसके साथ, भाववाद को उन्होंने अस्वीकार इस कारण नहीं किया कि वह अन्धविश्वास
के विरोध में विज्ञान का, आस्था के विरोध में तर्कबुद्धिवाद का, धर्मोन्मुखता के विरोध में सेक्युलरिज्म का और गतिरोध के
विरुद्ध प्रगति का समर्थन करना चाहते थे। इसका सीधा अर्थ यह है कि भाववादी
विचारधारा से दार्शनिक मुक्ति हासिल करने के लिए उन्होंने जो कुछ किया उसके
बावजूद,
वह स्वयं भाववाद की सैद्धान्तिक उपशाखाओं
से, जैसे परम्परावाद, आस्थावाद, अंधविश्वास और मिथकप्रियता से, उबर नहीं पाये। ऐसी स्थिति में क्या भाववाद के विरुद्ध
उनके वाद-विवाद भाववाद के प्रतिपक्ष के ठोस सारभाग का अंग माने जा सकते हैं? निश्चय ही नहीं। लेकिन तब क्या उनका इस प्रतिपक्ष से कोई
सम्बन्ध नहीं?
निश्चय ही, इसका उत्तर सकारात्मक है। तब इस प्रतिपक्ष में भाववाद के
प्रति उनके निषेध का स्थान कहां है? उसका स्थान इसके ठोस सारभाग में नहीं, बल्कि इसकी परिधि पर है।'' (देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, 'भारतीय दर्शन में क्या जीवित क्या मृत', पृष्ठ 226)
साथ ही यह भी
स्पष्ट है कि मीमांसा के बाद के प्रवर्तकों द्वारा मोक्ष और आत्मा की अवधारणाओं
को मीमांसा दर्शन में घुसाया जाना कोई वेदान्ती षड्यंत्र नहीं था जैसा कि पाण्डे
को लगता है,
हालांकि वेदान्तियों ने अपने रूप से
आरम्भिक मीमांसा दर्शन की व्याख्याएं भी की थीं। यह मीमांसा दर्शन के आन्तरिक
अन्तरविरोध थे,
जो कि उसके बाद के प्रवर्तकों को वेदान्त
दर्शन से मोक्ष व आत्मा की अवधारणा ग्रहण करने की ओर ले जाते हैं। प्रो.
चट्टोपाध्याय लिखते हैं:
''...यह स्पष्ट है कि पूर्व-मीमांसा में न तो
मुक्ति-सम्बन्धी अवधारणा का और न मुक्त रूप में कल्पित आत्मा का उल्लेख है।
मीमांसकों को अपने मूल सैद्धान्तिक पूर्वाधारों के लिए इनकी कोई आवश्यकता नहीं
पड़ती। लेकिन परवर्ती काल के माीमांसक ढुलमुलाने लगते हैं और मोक्ष में रुचि
विकसित करना चाहते हैं। ऐसा करते समय उन्हें मोक्ष-सम्बन्धी वेदान्तवादी
दृष्टिकोण चुनने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखायी देता, भले ही उनके अपने मूल सिद्धान्तों से यह कितना ही असंगत क्यों
न हो।''
(वही, पृ. 584)
लेकिन पाण्डे
जी को इन तथ्यों से क्या मतलब? वह तथ्यों
जैसी बेकार चीज़ के लिए अपनी हवाबाज़ी कैसे छोड़ सकते हैं? इसलिए वह दावा करते हैं कि जिस प्रकार आर.एस.एस. इतिहास का
पुनर्लेखन कर सत्य को विकृत करता है, वैसे ही वेदान्तियों ने मीमांसा दर्शन के साथ किया!
इसके बाद, पाण्डे जी सांख्य दर्शन पर आते हैं। सबसे पहले तो वह उसके
काल के बारे में ही गलत बताते हैं। वह कहते हैं कि यह ''छठी-सातवीं ईसा पूर्व'' के दौर में पैदा हुआ। सच यह है कि सांख्य
दर्शन के जन्म लेने का काल छठी सदी ईसा पूर्व है। चूंकि छठी सदी ईसा पूर्व को 6th c. BC लिखा जाता है, इसलिए पाण्डे
जी गलती से c. को देखना भूल गये हैं और बोलते हैं कि यह
छठीं-सातवीं ईसा पूर्व में पैदा हुआ! अध्ययन चक्र
ले डालने और हिन्दी जगत में जो गम्भीर युवा विवेक पल्लवित हो रहा है उस पर अपने
''अशोकीय मार्क्सवाद'' का तुषारापात कर डालने की जल्दी में पाण्डे यह देखना भूल
जाता है! वैसे तो यह कोई बड़ी सैद्धान्तिक गलती नहीं है, लेकिन फिर भी ऐतिहासिक तौर पर विषय-वस्तु को समझने की
वांछनीयता के मद्देनज़र यह बड़ी भूल ही मानी जायेगी।
इसके बाद पाण्डे जी दावा करते हैं कि छठी-सातवीं ईसा पूर्व
में (??!!) कबीलाई समाज विघटित हो रहा था और
वाणिज्यिक समाज पैदा हो रहा था, और इसमें भौतिकवाद की आवश्यकता थी और इसीलिए इस समय
भौतिकवादी चिन्तन पैदा हुआ। बहुत
जल्दी-जल्दी में पढ़ते हैं, पाण्डे जी।
अगर देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय को ही ठीक से पढ़ा होता कि प्राचीन भारतीय भौतिकवाद
और वैदिक विचारधारा, दोनों ही
आरंभिक आद्य-भौतिकवाद से पैदा हुए थे। आद्य-भौतिकवाद का प्रमुख रूप था तन्त्रवाद। न सिर्फ भारत
में बल्कि अन्य समाजों में भी कबीलाई समाज के दौर में विभिन्न प्रकार के
आद्य-भौतिकवाद के रूप पाए जाते थे। भारत भी इसका अपवाद नहीं था। भारत में तन्त्रवाद
से ही आरंभिक सांख्य दर्शन छठीं सदी ईसा पूर्व में पैदा हुआ। इसके संस्थापक
दार्शनिक कपिल मुनि के जन्म की तिथि प्रो. रामशरण शर्मा अपनी पुस्तक 'इण्डियाज़ एंशण्ट पास्ट' में 580 ईसा पूर्व के आस-पास बताते हैं। शुरुआती सांख्य
दर्शन,
जैसा कि प्रो. चट्टोपाध्याय बताते हैं, तन्त्रवाद के आद्य-भौतिकवाद (proto-materialism) से काफी कुछ लेता है। कबीलाई समाज के पतन
के साथ और आरंभिक 16 कबीलाई गणराज्यों के उदय व राज्य-निर्माण की प्रक्रिया के
एक मुकाम पर पहुंचने के साथ आरंभिक वैदिक समाज के आद्य-भौतिकवाद के आधार पर ही उत्तर-वैदिक
काल का भाववाद और सांख्य जैसा भौतिकवाद दोनों ही विकसित हुए। छठी सदी ईसा पूर्व
से लेकर तीसरी सदी ईसवी के बीच भौतिकवादी दर्शनों जैसे कि लोकायत, सांख्य, न्याय, वैशेषिक आदि का विकास क्यों हुआ? प्रो. रामशरण शर्मा इसके दो कारण बताते हैं: पहला था
लोहा-आधारित हल कृषि का विकास और उसके अधिशेष के बूते शहरी सभ्यता व वाणिज्यिक व्यवस्था
का विकास। तीसरी सदी ईसवी तक भौतिकवाद का औपनिषदिक भाववाद से संघर्ष चलता रहा, लेकिन उसके बाद भाववाद की विजय हुई, जिसके पीछे मूल कारण था राजनीतिक वर्ग संघर्ष में
प्रतिक्रिया की शक्तियों की निर्णायक विजय और सामन्तवाद का गुप्त साम्राज्य के
उदय के साथ मज़बूती से स्थापित हो जाना। प्रो. शर्मा लिखते हैं:
"The schools of
philosophy with emphasis on materialism developed in the period of an expanding
economy and society between 500 BC and 300 AD. The struggle against the
difficulties presented by nature in founding settlements and leading day-to-day
life in the Gangetic plains and elsewhere led to the origin and growth of
iron-based agricultural technology, the use of metal money, and the thriving of
trade and handicrafts. The new environment gave rise to a scientific and
materialistic outlook which was principally reflected in Charvaka’s philosophy
and also figured in that of several traditional schools.
"By
the fifth century AD, materialistic philosophy was overshadowed by the
exponents of idealistic philosophy who constantly criticized it and recommended
the performance of rituals and cultivation of spiritualism as a path to
salvation; they attributed worldly phenomena to supernatural forces. This view
hindered the progress of scientific inquiry and rational thinking. Even the
enlightened found it difficult to question the privileges of the priests and
warriors. Steeped in the idealistic and salvation schools of philosophy, the
people could resign themselves to the inequities of the varna-based social
system and the strong authority of the state represented by the king." (R.
S. Sharma, 'India's Ancient Past')
लेकिन पाण्डे
जी बोलते हैं कि चूंकि भौतिक विकास हो रहा था इसलिए भौतिकवाद की ज़रूरत थी और
इसीलिए उसका विकास हुआ। इस तर्क से आज की दुनिया को बिल्कुल भौतिकवादी हो जाना
चाहिए! पाण्डे जी एक जटिल ऐतिहासिक प्रक्रिया
का भोंड़ा सरलीकरण करते हैं और उसमें राजनीतिक वर्ग संघर्ष और समाज की वर्ग गतिकी
को गोल कर जाते हैं। भौतिक विकास निश्चय ही भौतिकवाद के विकास की ज़मीन तैयार
करता है, लेकिन यदि वर्ग संघर्ष की पूरी प्रक्रिया
में प्रतिक्रिया का पहलू हावी होता है, तो भाववाद का पहलू हावी हो जाता है क्योंकि शासक वर्गों को
अपने वर्चस्व को सुनिश्चित करने के लिए भाववादी विचारधाराओं को संस्थाबद्ध तौर
पर स्थापित और प्रभुत्वशाली बनाना अनिवार्य होता है और इसके लिए अगर उन्हें
बल-प्रयोग भी करना पड़े तो वे करते हैं। पाण्डे जी सत्य के अंश को पकड़ते हैं और
उसका भोंड़े किस्म का सामान्यीकरण कर देते हैं।
इसके बाद पाण्डे जी योग दर्शन के बारे में बताते हैं कि यह
और कुछ नहीं है बल्कि सांख्य दर्शन में ईश्वर की अवधारणा को जोड़ देने से पैदा
हुआ दर्शन था। यह मोटा-मोटी ठीक है, हालांकि यह भी एक अतिसरलीकरण है। लेकिन इस पर ज्यादा विचार
करने की आवश्यकता नहीं है। इसके बाद पाण्डे जी वैशेषिक दर्शन का जिक्र करते हैं, जिसकी शुरुआत करने वाले कणाद थे। इस दर्शन का काल पाण्डे
जी छठी सदी ईसवी से दसवीं सदी ईसवी के बीच बताते हैं। यह गलत है। कणाद के जीवन काल
को लेकर बहस है,
लेकिन इसके बारे में इतनी सहमति है कि 200
ईसवी पूर्व से लेकर 300 ईसवी के बीच में कभी उनका जन्म हुआ था। प्रो चट्टोपाध्याय
के अनुसार ईसाई कैलेण्डर के आरंभिक वर्षों के दौरान कणाद पैदा हुए थे। जो भी हो
वैशेषिक दर्शन की शुरुआत छठीं सदी ईसवी से पहले हो चुकी थी। पाण्डे जी ने जहां से भी यह सूचना टीपी है, या तो वह स्रोत गलत है या पाण्डे जी फिर संख्याओं को
पढ़ने में कुछ भूल कर रहे हैं। इसके बाद पाण्डे जी न्याय दर्शन का जिक्र करते हैं, लेकिन उसके बारे में ज्यादा कुछ बोलते नहीं हैं।
तीसरे वीडियो के अन्त में पाण्डे जी कहते हैं कि ये सभी
दर्शन अपनी तरह से सत्य के अनुसंधान में लगे हुए थे। लेकिन पाण्डे जी इतनी सी
बात पर अपना वीडियो खत्म कर दें, ऐसा कैसे हो सकता है? वह कहते हैं कि वैशेषिक दर्शन का प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन के पांच चरण के लॉजिकल सिलॉजिज्म (पाण्डे इस शब्द
का इस्तेमाल नहीं करता है क्योंकि अभी तक के उसके उद्गारों को सुनकर यह स्पष्ट
तौर पर लगता है कि उसे इसके बारे में पता ही नहीं होगा!) से अरस्तू ने तीन चरण उठा लिये थे (!) या फिर उन्हें अपने से सूझा होगा! ऐसी अटकलबाज़ी
भी कोई कैसे कर सकता है। अरस्तू का जन्म कणाद से पहले हुआ था। चूंकि वैशेषिक
प्राचीन भारतीय दर्शन में तर्कशास्त्र का प्रवर्तक था और अरस्तू प्राचीन यूनानी
दर्शन में तर्कशास्त्र के एक बड़े प्रवर्तक थे, इसलिए जाहिर है कि उनके चिन्तन में कुछ समानान्तर तत्व
पाए ही जाएंगे। लेकिन यह किस प्रकार की सस्ती अटकलबाज़ी है कि अरस्तू ने वैशेषिक
दर्शन के तार्किक सिलॉजिज्म से तीन तत्व उठा लिये थे? वैसे भी ऐतिहासिक तौर पर इसे सिद्ध कर
पाना असम्भव है। दरअसल, पाण्डे ने हिरियन्ना की पुस्तक 'आउटलाइंस और इण्डियन फिलॉसफी' के वैशेषिक वाले अध्याय के पन्ने कुछ ज्यादा ही जल्दी
में पलट गया है,
जिसमें हिरियन्ना वैशेषिक व अरस्तू के
दर्शनों के तर्कशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं। लेकिन जाहिर है कि
हिरियन्ना ऐसी कोई अटकलबाज़ी नहीं करते। हिरियन्ना यह लिखते हैं:
"The following is a typical Indian
syllogism :
1. Yonder mountain has fire. 2. For it has smoke. 3. Whatever has smoke has fire, e.g. an
oven. 4. Yonder mountain has smoke such as is
invariably accompanied by fire. 5. Therefore yonder mountain has fire.
"The syllogism stands for what was
described above as 'reasoning for another,' i.e. reasoning for convincing
another. This explains for instance the statement of the conclusion at the
outset known as the pratijfia -or proposition. It is intended to draw attention
to the point under consideration and keep the discussion within limits. In a
purely logical syllogism unmixed with rhetorical appurtenances it is admitted
that the first two or the last two of the five members (avayava) may be
dropped. Dropping the first two and taking the last three, we shall contrast
the Indian syllogism with the well-known Aristotelian one: (i) The first is the
major premise. It does not stand by itself but is supported by an example. This
step in inference seems to have consisted originally of only the example. It is
even now designated udaharana or 'illustration/ The general statement was
introduced later. That is, according to early Indian logicians, reasoning even
when restricted to the sphere of the sensuous was taken to be from particulars
to particulars. In its present form the statement implies that it was realized
in course of time that reasoning proceeds from particulars to particulars
through the universal. This innovation is now commonly ascribed to the Buddhist
logician Dihnaga.
"(ii) The Indian logician is not content
to leave the universal proposition by itself. He illustrates it by an example.
This is, no doubt, due to an historical circumstance, viz. a change in the view
taken of the character of the inferential process. But by retaining the example
in the major premise even in its changed form, he desires to point out that it
is a generalization derived from observation of particular instances. In other
words the reasoning process, as represented by the above syllogism, is not
purely deductive but inductive-deductive.
"(iii) In the next step we have a
synthesis of the major and minor premises. In the Aristotelian syllogism, the
two stand apart although there is the middle term to link them together. The
Nyaya-Vaiesika syllogism makes this connection quite explicit by bringing all
the three terms together in the same proposition. The formulation of the
conclusion then becomes very simple indeed. The doctrine lays special stress on
this synthesis, but other doctrines like the Vedanta do not agree with it, and
refuse to accept the synthesis as necessary." (M. Hiriyanna, 'Outlines of
Indian Philosophy')
लेकिन पाण्डे जी को अपने ज्ञान प्रदर्शन को कुछ आकर्षक
बनाने के लिए,
उसके कुछ यूनीक सेलिंग प्वाइंट स्थापित
करने के लिए थोड़ा 'सरप्राइज़
एलीमेण्ट'
डालना है, तो वह कुछ भी फेंक रहे हैं।
पाण्डे जी द्वारा ज्ञान
के अमृत वर्षण के नाम पर जो गंध और कीचड़ की बारिश कर रहे हैं, उसके विश्लेषण का काम
उनके चौथे और पांचवे वीडियो की आलोचनात्मक विवेचना के रूप में जारी रहेगा। इतना
पढ़ने के बाद तो गम्भीर पाठकों को हमारे साथ भी बहुत गहरी सहानुभूमि होनी चाहिए
कि एक ज़रूरी राजनीतिक दायित्व निर्वाह के लिए हमें निरन्तर किस असहनीय यन्त्रणा
से गुज़रना पड़ रहा है।
No comments:
Post a Comment