Sunday 14 June 2020

“मार्क्‍सवादी अध्‍ययन चक्र” के नाम पर बाँटे जा रहे अज्ञान, मूर्खता और झूठ का आलोचनात्‍मक विवेचन - दूसरा भाग


मार्क्‍सवाद के एक आत्‍मग्रस्‍त अज्ञानी ''शिक्षक'' द्वारा मार्क्‍सवाद के विकृतीकरण के विरुद्ध
(अशोक कुमार पाण्‍डे द्वारा मार्क्‍सवादी अध्‍ययन चक्र में फैलायी जा रही धुन्‍ध का आलोचनात्‍मक विवेचन)
(दूसरा भाग)

·        हण्‍ड्रेड फ्लावर्स मार्क्सिस्‍ट स्‍टडी ग्रुप, दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय, दिल्‍ली

अब हम पाण्‍डे जी के “मार्क्‍सवादी अध्‍ययन चक्र” के दूसरे वीडियो पर आते हैं।
पहले वीडियो में पाण्‍डे जी ने जिस अज्ञानता प्रसार का आरम्‍भ किया था, उसे वह दूसरे वीडियो में भी जारी रखते हैं।
दूसरे वीडियो में शुरुआत में ही पाण्‍डे जी एक किताब का नाम सुझाते हैं जिसे पढ़ना चाहिए। वह कहते हैं कि के. दामोदरन की एक पुस्‍तक है 'भारतीय दर्शन में क्‍या जीवित क्‍या मृत'। पहली बात तो यह है कि यह पुस्‍तक देवीप्रसाद चट्टोपाध्‍याय की है, न कि के. दामोदरन की। सम्‍भवत: बाद में पाण्‍डे जी को किसी ने इस गलती के बारे में बताया होगा, तो आगे के वीडियो में वह इसे ठीक करते हुए कहते हैं कि वह पुस्‍तक तो देवीप्रसाद चट्टोपाध्‍याय की है, के. दामोदरन की पुस्‍तक का नाम है 'भारतीय दर्शन परम्‍परा'यही इनकी अदा है! यह अगर कोई गलती भी ठीक करने चलते हैं, तो दूसरी ग़लती किये बिना ऐसा नहीं कर पाते। के. दामोदरन की पुस्‍तक का नाम 'भारतीय दर्शन परम्‍परा' नहीं है, बल्कि 'भारतीय चिन्‍तन परम्‍परा' है, जो पहली बार 1967 में अंग्रेजी में 'Indian Thought: A Critical Survey' के नाम से प्रकाशित हुई थी। लेकिन पाण्‍डे जी का अन्‍दाज़ ही कुछ ऐसा है!
इसके बाद वह बताते हैं कि समानता की चाहत मार्क्‍स से पहले भी मौजूद थी। जहां कहीं भी शोषण, उत्‍पीड़न व दमन होता है वहां समानता की चाहतें भी होती हैं। मार्क्‍स की विशेषता यह है कि वह केवल शोषण का विरोध नहीं करते हैं, बल्कि पूंजीवादी व्‍यवस्‍था का विश्‍लेषण भी करते हैं और अपने दार्शनिक उपकरणों के ज़रिये वर्ग संघर्ष का सिद्धान्‍त भी देते हैं। पहली बात तो यह है कि पूंजीवादी व्‍यवस्‍था का विश्‍लेषण करने वाले भी मार्क्‍स पहले व्‍यक्ति नहीं थे। स्‍वयं मार्क्‍स बताते हैं कि पूंजीवादी उत्‍पादन व्‍यवस्‍था के उदय के साथ राजनीतिक अर्थशास्‍त्र का एक अलग विज्ञान के रूप में उदय होता है और वह बताते हैं कि इस पूरी परम्‍परा में विलियम पेटी से लेकर रिकार्डो तक तमाम राजनीतिक अर्थशास्त्रियों ने एक ऐसी आर्थिक व्‍यवस्‍था को समझने का प्रयास किया जिसमें सामाजिक श्रम विभाजन को कोई शासक वर्ग धर्म और कानून के ज़रिये सचेतन तौर पर विनियमित नहीं करता है, लेकिन फिर भी इस व्‍यवस्‍था में अनियमितताओं के ज़रिये ही एक नियमितता भी सतत् उत्‍पादित और पुनरुत्‍पादित होती रहती है; इसका विनियमन किस प्रकार होता है? इन राजनीतिक अर्थशास्त्रियों का यही अन्‍वेषण मूल्‍य के सिद्धान्‍त की ओर ले जाता है। हालांकि एक उभरती बुर्जुआजी के विचारधारात्‍मक प्रतिनिधि होने के कारण ये राजनीतिक अर्थशास्‍त्री पूंजीवादी उत्‍पादन व्‍यवस्‍था में शोषण के मूल तक, मुनाफे के मूल तक और इसके पूंजीपति वर्ग के विभिन्‍न हिस्‍सों में बंटवारे के मूल तक नहीं पहुंच पाए, लेकिन उन्‍होंने पूंजीवादी उत्‍पादन पद्धति के विषय में बहुत-सी बहुमूल्‍य खोजें भी कीं। पहले पहलू, यानी उनकी असफलताओं को मार्क्‍स उनके चिन्‍तन का exoteric पहलू बताते हैं और उसकी आलोचना करते हैं और उनकी वैज्ञानिक खोजों को esoteric पहलू बताते हैं और उन्‍हें विकसित करते हैं। मार्क्‍स ने कहीं भी यह दावा नहीं किया कि पूंजीवादी उत्‍पादन व्‍यवस्‍था को समझने का प्रयास करने वाले वे पहले व्‍यक्ति थे। हां, वे पूंजीवादी उत्‍पादन व्‍यवस्‍था को सही रूप में सम्‍पूर्णता में समझने वाले पहले व्‍यक्ति थे और अपनी इन खोजों के आधार पर सर्वहारा वर्ग की मुक्ति का दर्शन, उसका राजनीतिक कार्यक्रम और रणनीति देने वाले भी पहले व्‍यक्ति थे।
अपनी ज्ञान वर्षा जारी रखते हुए पाण्‍डे जी बोलते हैं कि मार्क्‍स ने समानता के विमर्श को चिन्‍तन के केन्‍द्र में ला दिया। यह बात भी सही नहीं है। समानता का विमर्श अलग-अलग रूपों में समाज में बार-बार चिन्‍तन के केन्‍द्र में आता रहा है। जब भी समाज में वर्ग अन्‍तरविरोध तीखे होते हुए अपनी असम्‍भाव्‍यता के बिन्‍दु पर पहुंचते हैं, तो समानता का कोई न कोई विमर्श पैदा होता है और चिन्‍तन में केन्‍द्रीय स्‍थान ग्रहण कर लेता है। मिसाल के तौर पर, चीन के 19वीं सदी के ताईपिंग विद्रोह ने भी समानता का एक विमर्श पेश किया था। वह रूमानी और यूटोपियन था, यह एक दीगर बात है। ताईपिंग विद्रोहियों से यह उम्‍मीद करना भी अनैतिहासिक होगा कि वह समानता का वह विमर्श पेश कर पाते जो कि सर्वहारा वर्ग के उदय और उसके वर्ग संघर्षों के ऐतिहासिक अनुभवों के समाहार के बाद ही पेश किया जा सकता था, जो कि मार्क्‍स ने किया। इसी प्रकार फ्रांसीसी क्रान्ति ने भी एक समानता का विमर्श पेश किया था, जिसका केन्‍द्र-बिन्‍दु था राजनीतिक समानता, मसलन वोट देने का अधिकार, कानून के समक्ष समानता, और एक अमूर्त नैसर्गिक समानता, इत्‍यादि। यूटोपियाई समाजवादी मूलत: इसी अवधारणा से प्रेरित थे और मानते थे कि प्रबोधन के मानव (Men of Enlightenment) इसे समाजवाद के रूप में यथार्थ में तब्‍दील करेंगे, जो कि पूंजीपति वर्ग नहीं कर सका था। लेकिन उनकी अवधारणा फ्रांसीसी क्रान्ति द्वारा पेश समानता की अवधारणा के सीमान्‍तों का अतिक्रमण नहीं करती थी। समानता के इस आदर्श विमर्श का क्‍या हुआ, जब क्रान्तिकारी पूंजीपति वर्ग द्वारा वह यथार्थ में उतारा गया, इसके बारे में एंगेल्‍स ने 'समाजवाद: काल्‍पनिक और वैज्ञानिक' में विस्‍तार से बताया है। मार्क्‍स ने समानता की जो अवधारणा पेश की वह निश्चित तौर पर उनकी प्रतिभा के विषय में भी बहुत कुछ बताती है, लेकिन साथ ही यह भी सच है कि यह अवधारणा इतिहास की उस मंजिल में ही पेश की जा सकती थी, जिसमें कि वह की गयी। इसलिए मार्क्‍स समानता के विमर्श को चिन्‍तन के केन्‍द्र में लाने वाले पहले व्‍यक्ति नहीं थे और न ही वह ऐसा कोई दावा करते थे। समानता का विमर्श अलग-अलग रूपों में इतिहास में बार-बार ही चिन्‍तन के केन्‍द्र में आता है, जब वर्गों का संघर्ष तत्‍कालीन व्‍यवस्‍था को एक असम्‍भाव्‍यता के बिन्‍दु पर पहुंचाता है। यह स्‍पार्टकस के विद्रोह से लेकर चीनी क्रान्ति तक होता आया है और आगे भी होगा। लेकिन समानता की ये अवधारणाएं एक नहीं हैं, अलग-अलग हैं, क्‍योंकि ये अवधारणाएं भी इतिहास द्वारा उपस्थित सीमाओं के भीतर ही अस्तित्‍व में आती हैं। लेकिन पाण्‍डे जी समानता की किसी जेनेरिक अवधारणा की बात कर रहे हैं, जो कि ऐतिहासिक तौर पर अमूर्त और अर्थहीन है। मार्क्‍स अपने युग के वर्ग संघर्षों का वैज्ञानिक समाहार करके किसी ऐसी समानता का महज़ कोई विमर्श नहीं पेश करते हैं, जिसे हासिल किया जाना है, बल्कि वह वैज्ञानिक तौर पर यह दिखलाते हैं कि आज तक के वर्ग संघर्षों का इतिहास सिद्ध करता है कि मानव समाज यदि वर्गों के संघर्ष के ज़रिये बर्बरता में पतित नहीं होता, तो वह कम्‍युनिस्‍ट समाज की ओर ही जायेगा। इसीलिए मार्क्‍स ने कहा था:
"Communism is for us not a state of affairs which is to be established, an ideal to which reality [will] have to adjust itself. We call communism the real movement which abolishes the present state of things. The conditions of this movement result from the premises now in existence." (Marx, German Ideology)
इसके बाद पाण्‍डे जी बताते हैं कि यह मार्क्‍स द्वारा समानता के विमर्श को चिन्‍तन के केन्‍द्र में लाने का ही नतीजा था कि उनके बाद किसी भी दार्शनिक/चिन्‍तक आदि ने खुले तौर पर यह दावा नहीं किया वे असमानता के समर्थक हैं, बल्कि सबको ऊपरी तौर पर यह कहना पड़ा कि उनका दर्शन समानता का ही पक्षधर है। यह दावा कोई ऐसा व्‍यक्ति ही कर सकता है जिसे कि 19वीं सदी के उत्‍तरार्द्ध, 20वीं सदी और 21वीं सदी के पहले दो दशकों में आये दर्शनों के इतिहास के बारे में शून्‍य जानकारी हो। ज्ञान का भण्‍डार होने की सारी नौटंकी के बावजूद इस मूर्ख व्‍यक्ति की असलियत सामने आ ही जाती है। क्‍या इसे पता नहीं कि मार्क्‍स के बाद नियत्‍शे, स्‍पेंगलर, कार्ल श्मिट, हाईडेगर जैसे दार्शनिक पैदा हुए और वॉन माइसेज़, हायेक, आदि जैसे अर्थशास्‍त्री पैदा हुए, जिन्‍होंने खुले तौर पर समानता के मूल्‍यों का विरोध किया? ये तो केवल चन्‍द नाम हैं। ऐसे दर्जनों नाम गिनाये जा सकते हैं। सवाल यह है कि ऐसा मूर्खतापूर्ण दावा करने की आवश्‍यकता ही क्‍या थी? दिक्‍कत यह है कि सियार को कितने भी पक्‍के रंग में रंग दीजिये, हुंआने से बाज़ तो आयेगा नहीं! यही मूर्खों की आदत होती है! वे मार्क ट्वेन की इस सलाह को कभी नहीं मानते हैं: ''चुप रहकर अपनी मूर्खता के बारे में सन्‍देह बनाये रखना, मुंह खोलकर हर प्रकार के सन्‍देह को समाप्‍त कर देने से बेहतर है।'' आगे बढ़ते हैं।
आगे पाण्‍डे जी समानता के विमर्श की अपनी जेनेरिक समझदारी को व्‍यापक करते हुए अम्‍बेडकर और नारीवादी आन्‍दोलन द्वारा पेश समानता के विमर्श को भी गिन देते हैं। इन दोनों की मार्क्‍स की समानता की अवधारणा से कोई तुलना ही नहीं है। पहली बात तो यह है कि अम्‍बेडकर की समानता की अवधारणा मुश्किल से फ्रांसीसी क्रान्ति की अवधारणा तक पहुंच पाती है। हम मुश्किल से इसलिए कह रहे हैं कि आपको यह पता होगा कि डा. अम्‍बेडकर ने आज़ादी के बाद सामन्‍तों, रजवाड़ों और ज़मीन्‍दारों की सम्‍पत्ति को बिना मुआवज़े के छीनने का विरोध किया था क्‍योंकि वे सभी की निजी सम्‍पत्ति की पवित्रता में यकीन करते थे। उनका कहना था कि इन भूस्‍वामियों को सरकारी बाण्‍ड्स दिये जाने चाहिए, क्‍योंकि उनकी ज़मीनें ली जाएंगी। यह भूमि सुधार का मॉडल फ्रांसीसी क्रान्ति के भूमि सुधार के मॉडल से भी पीछे था, जोकि बिना मुआवज़ा ज़मींदारों के समूचे परजीवी वर्ग के सम्‍पत्ति हरण की बात करता था। अम्‍बेडकर का समानता का मॉडल ड्यूई के व्‍यवहारवाद से प्रेरित था, जोकि जैकोबिनों के समानता के मॉडल से भी पीछे था, उसकी वैज्ञानिक समाजवाद के समानता के मॉडल से तो कोई तुलना ही नहीं की जा सकती है। हम दावे से कह सकते हैं कि पाण्‍डे ने अम्‍बेडकर के मौलिक लेखन को नहीं पढ़ा है। वरना उसे पता होता कि श्रम और पूंजी के सम्‍बन्‍धों के बारे में उनकी एक पूरी समझदारी थी जो कि ड्यूई के व्‍यवहारवाद और फेबियनिज्‍म से आती थी। जिस समानता की बात अम्‍बेडकर करते थे, वह बुर्जुआ औपचारिक राजनीतिक समानता से आगे कहीं नहीं जाती थी, बल्कि बुर्जुआ राजनीतिक समानता के भी आमूलगामी मॉडलों से वह पीछे ही थी। मार्क्‍स के समानता और असमानता के विमर्श के मूल में उत्‍पादन सम्‍बन्‍ध हैं, उत्‍पादन के साधनों के मालिकाने का प्रश्‍न है और वह बताते हैं कि यदि उत्‍पादन के साधनों पर निजी मालिकाने की व्‍यवस्‍था बनी रहती है, तो किसी भी प्रकार की राजनीतिक समानता व्‍यापक मेहनतकश अवाम के लिए महज़ औपचारिक समानता बनकर रह जायेगी। इस बुनियादी प्रश्‍न को लिबरल बुर्जुआ विचारधारा की एक विशिष्‍ट धारा ड्यूईवादी व्‍यवहारवाद के अनुयायी डा. अम्‍बेडकर उठाते ही नहीं हैं। सामाजिक क्रान्ति, सामाजिक समानता, राजनीतिक समानता का उनका विमर्श कहीं भी इस बुनियादी प्रश्‍न को वास्‍तविक और प्रभावी रूप में नहीं उठाता है।
जहां तक नारीवादी आन्‍दोलन द्वारा पेश समानता के मॉडल की बात है, तो ऐसा कोई एक मॉडल है ही नहीं। नारीवादी आन्‍दोलन का एक हिस्‍सा मार्क्‍सवाद और जेण्‍डर असमानता की ऐतिहासिक भौतिकवादी अवधारणा से प्रेरित था। उसकी भी अपनी कमियां थीं, लेकिन वह इतना मानता था कि जेण्‍डर असमानता निजी सम्‍पत्ति और वर्ग के साथ अस्तित्‍व में आयी थी और उसके साथ ही समाप्‍त हो सकती है। इसके अलावा अन्‍य नारीवादी चिन्‍तन धाराएं भी थीं, जैसे कि केट मिलेट, जो कि परिवार को ही सारे फसाद की जड़ मानती थीं और यह मानती थीं कि यदि परिवार का नाश होगा तो ही पितृसत्‍ता का नाश होगा। लेकिन परिवार स्‍वयं वर्ग समाज की एक इकाई होता है और उसका रिश्‍ता ही निजी सम्‍पत्ति से और उत्‍तराधिकार के प्रश्‍न से होता है, यह बात केट मिलेट के नारीवादी चिन्‍तन में पर्याप्‍त जगह नहीं पाती थी। इसके अलावा लकां के मनोविश्‍लेषण के सिद्धान्‍तों से प्रेरित नारीवाद की भी एक धारा थी जैसे कि इरिगेरे और सिक्‍सू। इसके अलावा, बुर्जुआ नारीवाद की ऐसी धाराएं भी थीं जो कि समानता के पूरे विमर्श को बॉडी पॉलिटिक में लाकर अपचयित (reduce) कर देतीं थीं। इन सभी की समानता की अवधारणाएं भिन्‍न थीं और दूसरी बात यह है कि मार्क्‍स की समानता की अवधारणा से इनकी कोई तुलना नहीं हो सकती है। लेकिन कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा, पाण्‍डे जी ने क्‍या खूब जोड़ा!
ज्ञान की इतनी बमबारी करने के बाद पाण्‍डे जी धमकी देते हैं कि उनकी लगभग एक 200 पेज की किताब आ रही है, जिसमें वह मार्क्‍स के जीवन, दर्शन, राजनीतिक अर्थशास्‍त्र सब पर अपने विचार रखेंगे! हिन्‍दी जगत को इस विपदा से बचने की पूरी कोशिश करनी चाहिए! खैर, हम भी इस पुस्‍तक का इन्‍तज़ार कर रहे हैं।
कहीं न कहीं पाण्‍डे जी को यह अहसास है कि कोई भी मार्क्‍सवादी दर्शन, राजनीतिक अर्थशास्‍त्र और ऐतिहासिक भौतिकवाद से परिचित व्‍यक्ति उनकी उपरोक्‍त बकवास पर बस हंस कर रह जाएगा, इसलिए वह अपने झोले में से फिर से विनम्रता का एक झीना दुपट्टा निकालते हैं और कहते हैं कि जिन्‍होंने मार्क्‍सवादी दर्शन व राजनीतिक अर्थशास्‍त्र आदि का ठीक से अध्‍ययन किया है, यह स्‍टडी सर्किल उनके लिए नहीं है, उनसे तो मैं कुछ सीखूंगा! लेकिन यह बात भी ग़लत है। सवाल यह नहीं है कि यह स्‍टडी सर्किल उनके लिए ठीक है या नहीं जिन्‍होंने मार्क्‍सवादी सिद्धान्‍तों का ठीक से अध्‍ययन किया हुआ है। सवाल यह है कि आखिर यह स्‍टडी सर्किल ठीक किसके लिए है? यदि कोई किसी स्‍टडी सर्किल में मार्क्‍सवाद के बुनियादी सिद्धान्‍त ही बताना चाहता है, तब तो उसे सबसे ज्यादा सावधानी बरतनी चाहिए और बेहद श्रमसाध्‍य अध्‍ययन व शोध के बाद ही यह कार्यभार हाथ में लेना चाहिए। जैसा कि अंग्रेजी में कहावत है कि यदि शुरुआत सही हो जाय, तो मान लीजिये कि आधा काम हो गया। उसी प्रकार मार्क्‍सवाद के बुनियादी सिद्धान्‍तों के बारे में तो ऐसी कोई स्‍टडी सर्किल और भी ज्‍यादा सावधानी की मांग करती है। लेकिन पाण्‍डे जी डिनर करके अपनी खट्टी डकारों के साथ बस ज्ञान देने बैठ गये हैं और अपनी ही 'ट्रिप' पर हैं! नतीजतन, जो वह बक रहे हैं, वह निहायत मूर्खतापूर्ण बकवास है। आइये कुछ मिसालें देखते हैं।
पाण्‍डे जी बताते हैं कि किसी ने उनसे पूछा है कि मार्क्‍सवाद क्‍यों पढ़ें? इसके बाद पाण्‍डे जी इसके जो उत्‍तर देते हैं, वह उनके बौद्धिक स्ट्रिप्‍टीज़ में एक नयी मंजिल के समान है। पहले तो वह कहते हैं कि इसका एक बदतमीज़ जवाब हो सकता है कि 'मत पढि़ये'हमें बरबस ही यह लगता है कि पाण्‍डे जी ने यहां अपना व्‍यक्तिगत अनुभव बयान किया है; ज़रूर उन्‍होंने कभी अपने आप से यह सवाल पूछा था और अपने आपको यही जवाब दिया था: 'मत पढि़ये!' और इस स्‍व-निर्देश पर आज तक उन्‍होंने पूरी निष्‍ठा से अमल किया है क्‍योंकि इतना तो साफ है कि पाण्‍डे जी ने मार्क्‍सवाद का अध्‍ययन नहीं किया है।
फिर पाण्‍डे जी मार्क्‍सवाद को पढ़ने के अपने सकारात्‍मक कारणों पर आते हैं। पहला कारण यह है कि मार्क्‍सवाद वह विचारधारा है जिसने 19वीं और 20वीं सदी को सबसे ज्‍यादा प्रभावित किया था और इस हद तक प्रभावित किया था कि इस पूरी कालावधि में दुनिया को मार्क्‍सवाद-विरोधी और मार्क्‍सवाद-समर्थक में बांट सकते थे। वैसे तो यह अपने आप में मार्क्‍सवाद को पढ़ने की कोई बुनियादी या अहम वजह नहीं है (क्‍योंकि फिर कोई 19वीं सदी में मार्क्‍सवाद को पढ़ने का क्‍या कारण देता?!), लेकिन पाण्‍डे जी की इस बात पर थोड़ा और करीबी से निगाह डालते हैं। दरअसल, पाण्‍डे जी ने बिना क्रेडिट दिये ज्‍यां पॉल सार्त्र का उद्धरण मार लिया है, लेकिन वह भी सटीक तरीके से नहीं। सार्त्र ने कहा था कि समूची 20वीं सदी के दर्शन का अर्थ इन्‍हीं रूपों में है कि या तो वह मार्क्‍सवाद के पक्ष में है या उसके विरुद्ध है, दूसरे शब्‍दों में हमारे समय का दर्शन मार्क्‍सवाद द्वारा उपस्थित सीमान्‍तों के आगे नहीं जा सकता है। जाहिर है सार्त्र ने यह बात आज से करीब 60 वर्ष पहले कही थी। इसका यह अर्थ नहीं है कि यह बात उसके बाद या 21वीं सदी में लागू नहीं होती है। यह बात 21वीं सदी में आये नये विचारधारात्‍मक रुझानों पर भी उतनी ही लागू होती है। यह एक वैज्ञानिक मूल्‍यांकन है जो कि पूंजीवादी विश्‍व में हमेशा लागू होगा ही क्‍योंकि वर्ग संघर्षों की गतिकी ही कुछ ऐसी है कि हर नयी विचार सरणि को मार्क्‍सवाद पर स्‍टैण्‍ड लेना ही पड़ेगा। लेकिन पाण्‍डे जी ने सार्त्र की बात पढ़ी और उसको हूबहू दुहरा दिया, जो कि सार्त्र ने 1960 के दशक में कही थी। नकल और अकल में यही अन्‍तर होता है।
पाण्‍डे जी का तीसरा कारण सुनिये। चूंकि अम्‍बेडकरवादी, समाजवादी, कांग्रेसी, संघी लोग सभी मार्क्‍सवाद को गाली देते हैं इसलिए आप यह जानने के लिए मार्क्‍सवाद पढि़ये कि मार्क्‍सवाद में ऐसी क्‍या बात है, कि सभी उसको गाली देते हैं! पाण्‍डे की भाषा में ''ऐसी क्‍या शै है कि सभी इसको गाली देते हैं, सभी उसके खिलाफ एक हो जाते हैं!'' यह कौन-सी वजह हुई? यानी किसी व्‍यक्ति या विचारधारा को बहुत-से लोग गाली देते हैं, तो यह उसे पढ़ने की वजह हो गयी? क्‍या बेहूदा बात है!
चौथा कारण भी उतना ही मज़ेदार है। पाण्‍डे जी बोलते हैं कि शुद्ध सैद्धान्तिक कारण से भी किसी थियरी को पढ़ना चाहिए, जैसे कि शुद्ध वैचारिक दिलचस्‍पी के कारण पाण्‍डे जी ने उपनिषद, वेद, इस्‍लाम सब पढ़ डाला! (मूर्ख आदमी अपनी मूर्खता में हमेशा ही विनम्रता को भूल जाता है और आत्‍ममहानता के विभ्रमों का बार-बार प्रदर्शन करता है; आगे हम दिखाएंगे कि इस व्‍यक्ति को भारत के प्राचीन दर्शनों की कालावधि के बारे में भी ठीक से नहीं पता है, उन्‍हें पढ़ने की बात तो बहुत दूर की है) पाण्‍डे जी आगे थोड़ा विस्‍तार में जाते हुए कहते हैं, ''ज्ञान के लिए पढि़ये! अगर थोड़ा एक्‍स्‍ट्रा ज्ञान मिल रहा है, तो ले लीजिये! न मन करे तो न लीजिये!'' और इसके बाद पाण्‍डे अपने सड़े हुए ज्ञान का खोमचा सजाकर बैठ जाता है!
जैसा कि आप देख सकते हैं कि तमाम वाहियात वजहें इस मूर्ख आदमी ने बताईं लेकिन मार्क्‍सवाद को पढ़ने की सबसे प्रमुख वजह क्‍या हो, वह वजह ही नहीं बताई। जो भी व्‍यक्ति मौजूदा दुनिया, उसके शोषण-दमन, जनसंहारों, बर्बरताओं, गैर-बराबरी, अन्‍याय से बगावत का जज्‍बा रखता है और जो-कुछ है, उसे बदलना चाहता है, तो मार्क्‍सवाद को पढ़ना उसके लिए अनिवार्य है। आप पूछेंगे क्‍यों? इसलिए कि मार्क्‍सवाद एकमात्र ऐसी विचारधारा है जो कि मौजूदा पूंजीवादी व्‍यवस्‍था में किसी प्रकार की पैबन्‍दसाज़ी, किसी सुधार, उसे 'मानवीय' बनाने इत्‍यादि की बात नहीं करता है (क्‍योंकि यह सम्‍भव ही नहीं है), बल्कि समूची पूंजीवादी व्‍यवस्‍था के विकल्‍प की बात करता है और वह भी किसी यूटोपिया के आधार पर नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक विश्‍लेषण के आधार पर यह दिखलाता है कि मानवता के समक्ष दो ही विकल्‍प हैं: समाजवाद या बर्बरता। यह किसी व्‍यक्ति की मनोगत इच्‍छाओं से स्‍वतन्‍त्र एक ऐतिहासिक सत्‍य है। यही कारण है कि जो भी मौजूदा दुनिया की बर्बरता और अमानवीयता, गैरबराबरी, अन्‍याय आदि से आजिज है, उससे बगावत करता है, उसे बदलकर एक नयी दुनिया बनाना चाहता है, उसे मार्क्‍सवाद को पढ़ना ही होगा, उसे समझना ही होगा। यह क्रान्ति का विज्ञान है और इसे जाने-समझे बगैर क्रान्ति भी सम्‍भव नहीं है।
लेकिन पाण्‍डे फिर से कोई सस्‍ता नशा लेकर अपनी ही 'ट्रिप' पर है!
आगे बढ़ते हैं।
पाण्‍डे जी बताते हैं कि उनसे किसी महिला साथी ने पूछा है कि मैं किससे और कैसे जुडूं, मेरे इलाके में तो कोई संगठन है नहीं! पाण्‍डे मदद करने की भावना से ओत-प्रोत हो जाता है! पाण्‍डे जी बोलते हैं कि पहले मार्क्‍सवाद पढ़ लो, फिर तो इण्‍टरनेट के ज़रिये कहीं भी किसी से भी जुड़ सकती हो। वैसे भी कोरोना के बाद ऐसा ही होने वाला है! मतलब पाण्‍डे जी, लगता है, कोरोना के बाद इण्‍टरनेट पर ही क्रान्ति का निर्देशन और उसे सम्‍पन्‍न कर देने की चमत्‍कारिक योजना बनाए बैठे हैं!
पाण्‍डे जी आगे बताते हैं कि किसी ने उनसे पूछा है कि यदि बराबरी हो जायेगी तो छोटे काम जैसे कि रिक्‍शा चलाना आदि कौन करेगा? फिर पाण्‍डे जी इस सवाल का जो जवाब देते हैं वह भी अद्भुत ही है। वह बताते हैं कि हमारे देश में यदि कोई दलितों को अपने घर में उसी ग्‍लास में पानी पिलाता है जिसमें खुद पीता है, तो इसे जताता है, इसका जिक्र करता है; जब कोई घर में किचन में पत्‍नी का कुछ हाथ बंटा देता है तो इसका जिक्र करता है कि वह तो पत्‍नी की किचन में मदद करता है, इत्‍यादि। यह दिखलाता है कि हमारे समाज में सहज बोध में बराबरी की कोई अवधारणा नहीं है। अगर यह सहज-बोध विकसित होगा, अगर यह समानता का मूल्‍य विकसित होगा, तो हम कामों को छोटा-बड़ा करके नहीं देखेंगे। पाण्‍डे जी के अनुसार, मार्क्‍स ने यही समानता का मूल्‍य स्‍थापित किया। दूसरी बात यह है कि एक सही व्‍यवस्‍था में किसी को रिक्‍शा चलाने की आवश्‍यकता नहीं होगी क्‍योंकि सार्वजनिक परिवहन व्‍यवस्‍था सही होगी। तीसरी बात यह है कि पश्चिमी देशों में घर में डोमेस्टिक हेल्‍प या मेड का काम करने वाले लोगों को भी सम्‍मान मिलता है, लोग उनके साथ रेस्‍तरां में बैठकर कॉफी पीते हैं, इत्‍यादि क्‍योंकि उनका वेतन ज्‍यादा होता है। इसी वजह से उन्‍हें बराबरी मिलती है। रिक्‍शे वाले को भी यदि सरकार की ओर से ज्‍यादा वेतन मिलने लगे तो उसे भी सम्‍मान मिलने लगेगा। लेकिन पाण्‍डे जी के अनुसार सबसे ज़रूरी बात यह है कि यह दृष्टि विकसित हो कि सभी काम बराबर हैं, इसके लिए समान शिक्षा व्‍यवस्‍था होनी चाहिए, तब सभी एक-दूसरे का सम्‍मान करेंगे और एक-दूसरे के पेशे का भी सम्‍मान करेंगे। आगे पाण्‍डे जी कहते हैं कि जब भी व्‍यवस्‍था बदलती है, तो छोटे काम भी बड़े हो जाते हैं जैसे कि 1990 में भूमण्‍डलीकरण के साथ व्‍यवस्‍था बदली (!) तो तमाम काम जो छोटे माने जाते थे, वे बड़े हो गये, जैसे कि नाऊ का काम सम्‍मानित हो गया, हबीब जैसे हेयर-स्‍टाइलिस्‍ट पैदा हो गये, उसी प्रकार महाराज/खानसामे का काम सम्‍मानित हो गया, बड़े-बड़े शेफ पैदा हो गये, इत्‍यादि।
जैसा कि आप देख सकते हैं कि कामों को छोटा और बड़ा मानने की सामाजिक विचारधारा के पीछे क्‍या बुनियादी कारण हैं, इन्‍हें पाण्‍डे जी बिल्‍कुल नहीं समझते। उपरोक्‍त बातें सतही किस्‍म की बातें हैं, जिनमें कोई विश्‍लेषण नहीं है। पाण्‍डे जी यहां तीन प्रमुख बातें करते हैं (यदि बाकी सारी हवाबाज़ी को सम्‍पादित करके देखें तो!): पहला, कामों को छोटा-बड़ा मानने के पीछे हमारे समाज में सहज-बोध से समानता की अवधारणा का अनुपस्थित होना है; यानी, असमानता की विचारधारा के पीछे कामों को असमान मानने की सोच है! दूसरे शब्‍दों में असमानता की विचारधारा के पीछे असमानता की विचारधारा है! ये तो 'तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर' वाला मामला हो गया! हमारे समाज के सामाजिक मनोविज्ञान और विचारधारा में राजनीतिक व सामाजिक समानता के मूल्‍यों की कमी है, तो इसका प्रमुख कारण ऐतिहासिक है: हमारे देश में पूंजीवाद का बिना किसी जनवादी क्रान्ति के आना। नतीजतन, मूल्‍यों-मान्‍यताओं के धरातल पर तमाम प्राक्-पूंजीवादी, गैर-जनवादी व सामन्‍ती मूल्‍यों की मौजूदगी बनी हुई है और उत्‍तर-औपनिवेशिक सापेक्षिक रूप से पिछड़े भारतीय पूंजीवाद और उसके शीर्ष पर काबिज पूंजीपति वर्ग ने इन सभी प्रतिक्रियावादी मूल्‍य-मान्‍यताओं को अपने भीतर तन्‍तुबद्धीकृत कर लिया है। नतीजा वही हुआ जो मार्क्‍स के अनुसार जर्मनी में सामने आया था। मार्क्‍स ने कहा था, ''जर्मनी में हम पूंजीवाद के विकास से उतना पीडित नहीं हैं, जितना उसका विकास न होने के कारण पीडित हैं।'' यह एक ऐतिहासिक विडम्‍बना को दिखलाती व्‍यंग्‍यात्‍मक अभिव्‍यक्ति है, जिसका यह अर्थ नहीं था कि जर्मनी में पूंजीवाद का विकास नहीं हुआ है, बल्कि यह अर्थ था कि पूंजीवाद एक ऐसे रास्‍ते से विकसित हुआ है कि जर्मनी को पूंजीवाद की प्रगतिशीलता के सकारात्‍मक तो प्राप्‍त नहीं हुए, लेकिन पूंजीवादी अर्थव्‍यवस्‍था के सभी नकारात्‍मक प्राप्‍त हुए। भारतीय समाज में भी किसी जनवादी क्रान्ति की अनुपस्थिति में एक बीमार, विकलांग और रुग्‍ण पूंजीवाद विकसित हुआ है, जिसके कारण समाज के तन्‍तुओं में समानता और जनवाद के मूल्‍यों का अभाव है। यानी इसके पीछे एक ठोस ऐतिहासिक कारण है, जिसे समझना ज़रूरी है। दूसरी बात यह है कि भारत में यदि किसी जनवादी क्रान्ति के रास्‍ते भी पूंजीवाद का विकास होता तो वह राजनीतिक व सामाजिक समानता का एक बेहतर संस्‍करण ही देता, लेकिन आर्थिक समानता के अभाव में वह राजनीतिक व सामाजिक समानता भी हमेशा बाधित और अधूरी रहती। इसलिए पाण्‍डे जी से जो सवाल पूछा गया था, उसका उत्‍तर केवल जनवादी क्रान्ति के अभाव से ही नहीं पूरा होता। उसके पीछे एक और व्‍यापक ऐतिहासिक परिघटना छिपी हुई है। यह है समाज में मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच का अन्‍तर। जब तक यह अन्‍तर मौजूद है तब तक कामों को छोटा-बड़ा मानने की सामाजिक विचारधारा और मनोविज्ञान भी किसी न किसी रूप में समाज में मौजूद रहता है। चूंकि यह अन्‍तर समाजवादी समाज में भी होता है, इसलिए उसमें भी एक भिन्‍न रूप में यह सामाजिक विचारधारा मौजूद रहती है, हालांकि समाजवादी व्‍यवस्‍था एकसमान स्‍कूली व्‍यवस्‍था देती है, उत्‍पादक गतिविधियों में प्रशिक्षण आदि मुहैया कराती है, इत्‍यादि। यानी, जैसा कि पाण्‍डे जी समझते हैं, एकसमान स्‍कूल व्‍यवस्‍था के ज़रिये लोग एक-दूसरों का और एक-दूसरे के पेशे का सम्‍मान करने लगेंगे, एक निहायत सुधारवादी, सामाजिक-जनवादी किस्‍म की सोच है। दुनिया के कई उन्‍नत देशों में एकसमान स्कूल व्‍यवस्‍था के दौर भी रहे हैं, लेकिन उनसे कामों को छोटा-बड़ा मानने की प्रवृत्ति दूर नहीं हो गयी। जब तक समाज में अन्‍तरवैयक्तिक असमानताएं, जो कि ऐतिहासिक तौर पर वर्गों की उत्‍पत्ति के साथ पैदा हुईं थीं, वे खत्‍म नहीं होंगी, तब तक परिमाणात्‍मक अन्‍तर के साथ कामों को छोटा-बड़ा मानने की सामाजिक विचारधारा और मनोविज्ञान भी किसी न किसी रूप में मौजूद रहेगा। यानी हमें किसी भी प्रकार की सामाजिक विचारधारा की मौजूदगी के कारणों की पड़ताल ऐतिहासिक भौतिकवादी तरीके से उन ठोस ऐतिहासिक सन्‍दर्भों में करनी होती है, जिनमें वह पैदा और विकसित होती है। हम यह नहीं कह सकते कि कामों को छोटा-बड़ा करके देखने की सोच इसलिए है कि यह हमारे सहज-बोध में है, दूसरे शब्‍दों में ऐसी सोच इसलिए है क्‍योंकि हमारी ऐसी सोच है! ऐसी मूर्खतापूर्ण भाववादी बात करके पाण्‍डे जी ने एक बार फिर से‍दिखलाया है कि उन्‍हें मार्क्‍सवाद का ककहरा भी नहीं आता है।
पाण्‍डे जी द्वारा बताया गया दूसरा कारण भी उतना ही मूर्खतापूर्ण है कि यदि सैलरी/वेतन ज्‍यादा हो जाय तो लोग एक-दूसरे को और एक-दूसरे के पेशे को सम्‍मान से देखने लगेंगे। वेतन से कामों को छोटा-बड़ा मानने का सीधे तौर पर कोई रिश्‍ता नहीं है, हालांकि औपचारिक व कृत्रिम स्‍तर पर यह एक प्रकार की समानता का बोध दे सकता है। मिसाल के तौर पर, एक ऑटोमोबाइल फैक्‍टरी में काम करने वाले कुशल मज़दूर को आज कई कारखानों में 50 से 70 हज़ार रुपये तक का वेतन भी मिलता है। लेकिन उसे एक कॉलेज के लेक्‍चरर जितना सम्‍मान नहीं मिलता है, हालांकि लेक्‍चरर को कई विश्‍वविद्यालयों में इतना वेतन भी नहीं मिलता है। इसलिए कामों को छोटा-बड़ा समझने को केवल वेतन के अन्‍तरों में अपचयित करना एक प्रकार की भोण्‍डी अर्थवादी सोच है, जिसमें ऐतिहासिक और राजनीतिक समझदारी का भारी अभाव है।
तीसरा कारण जिसका जिक्र पाण्‍डे जी करते हैं, उसकी जहालत पर तो हम आपसे खुद ही सोचने का आग्रह करेंगे। पाण्‍डे जी कहते हैं कि जब व्‍यवस्‍था बदलती है, तो छोटे माने जाने वाले काम बड़े हो जाते हैं। चलो, यहां तक तो ठीक है, हालांकि यह भी सटीक नहीं है। लेकिन इसके बाद पाण्‍डे जी व्‍यवस्‍था बदलने का उदाहरण देते हैं 1990 में भूमण्‍डलीकरण का आना। अब राम जाने कि व्‍यवस्‍था बदलने से उनका क्‍या मतलब है। मार्क्‍सवादी अर्थों में व्‍यवस्‍था बदलने का अर्थ होता है एक उत्‍पादन पद्धति और उत्‍पादन सम्‍बन्‍धों की जगह नयी उत्‍पादन पद्धति और उत्‍पादन सम्‍बन्‍धों का आना। भूमण्‍डलीकरण किस प्रकार व्‍यवस्‍था परिवर्तन का लक्षण या प्रतीक है, यह तो पाण्‍डे जी ही बता सकते हैं। दूसरी बात, भूमण्‍डलीकरण के बाद नाऊ का काम सम्‍मानजनक हो गया, खानसामे का काम सम्‍मानजनक हो गया, यह भी बकवास है। भूमण्‍डलीकरण के पहले भी बाल काटने व स्‍टाइलिंग के पूरे पेशे में एक पदानुक्रम मौजूद था और अब भी है। महाराज/खानसामे या पाक विद्या के पेशे में भी एक वर्ग पदानुक्रम पहले भी मौजूद था और अभी भी मौजूद है। तब भी गांव के नाऊ से लेकर जावेद हबीब जैसे लोग मौजूद थे और अब भी मौजूद हैं, बस पाण्‍डे जी को इसके बारे में पता नहीं है। आज भी संजीव कपूर और जावेद हबीब अलग हैं और आम महाराज/खानसामा या आम नाई अलग हैं। आम मेहनतकश वर्ग से आने वाले महाराज या नाऊ को आज भी वर्गीय शोषण और जातिगत उत्‍पीड़न दोनों ही झेलना पड़ता है। लेकिन पाण्‍डे जी हमेशा की तरह वस्‍तुगत यथार्थ के आधार पर बात करने की बजाय अपना ही एक काल्‍पनिक यथार्थ रचते हैं और फिर लम्‍बी-लम्‍बी छोड़ देते हैं!
इसके बाद पाण्‍डे जी बताते हैं कि बौद्धिक श्रम और मानसिक श्रम में कोई अन्‍तर नहीं होता है, यह सिद्धान्‍त सबसे पहले मार्क्‍स ने दिया और इसे उन्‍होंने अपना दर्शन विकसित करके पेश किया। वैसे तो यह बात भी बचकानी है। शारीरिक और मानसिक श्रम में कोई भेद न हो, ऐसा सिद्धान्‍त मार्क्‍स ने पहली बार नहीं दिया बल्कि मार्क्‍स ने समाज के इतिहास के अपने अध्‍ययन के आधार पर बताया कि यह भेद किस प्रकार विकसित हुआ और कम्‍युनिस्‍ट समाज में यह अन्‍तर किस प्रकार समाप्‍त होगा और यह कि यह अन्‍तर प्रबुद्ध लोगों की सदिच्‍छाओं या महज़ वैचारिक प्रचार से दूर नहीं होगा। शारीरिक और मानसिक श्रम में अन्‍तर समाप्‍त होने से मार्क्‍स का क्‍या अर्थ था? इसका यह अर्थ नहीं है कि शारीरिक श्रम मानसिक श्रम बन जाएगा या मानसिक श्रम शारीरिक श्रम बन जायेगा। कम्‍युनिस्‍ट समाज में भी शारीरिक श्रम शारीरिक श्रम ही रहेगा और मानसिक श्रम मानसिक श्रम ही रहेगा, और निश्चित तौर पर तब भी कुछ लोग एक में ज्‍यादा माहिर होंगे, तो कुछ दूसरे में। इनके बीच अन्‍तर समाप्‍त होने का यह अर्थ है: अनमनीय श्रम विभाजन समाप्‍त हो जायेगा और हर व्‍यक्ति किसी न किसी रूप में उत्‍पादक शारीरिक श्रम करेगा और साथ ही हर व्‍यक्ति को किसी न किसी रूप में मानसिक श्रम करने का अवसर भी मिलेगा। एक पेशे से जीवनपर्यन्‍त बंधे रहने की पूंजीवादी विभीषिका से मनुष्‍य मुक्‍त हो जायेगा और उत्‍पादक शक्तियों के निर्बन्‍ध विकास के बूते हर व्‍यक्ति बहुत प्रकार के उत्‍पादक शारीरिक श्रम व मानसिक श्रम को करने में समर्थ होगा। इसके साथ ही 'काम' और 'खाली समय' का अन्‍तर भी समाप्‍त हो जायेगा, क्‍योंकि लोग अपनी स्‍वाभाविक मानवीय प्रकृति से सामूहिक तौर पर श्रम करेंगे और इसमें आनन्‍द भी होगा। इसके साथ ही श्रम की गरिमा बहाल होगी और श्रम करना कोई ज़ोर-ज़बर्दस्‍ती या बाध्‍यता का मसला नहीं होगा, बल्कि स्‍वतन्‍त्रता और आनन्‍द का मसला होगा। श्रम के किसी भी रूप के साथ कोई मूल्‍य नहीं जुड़ा रह जायेगा क्‍योंकि यह मूल्‍य वर्गीय असमानता के साथ पैदा होते हैं, न कि सहज-बोध में कहीं शून्‍य से आ जाते हैं। लेकिन पाण्‍डे जी बिना इन मसलों पर अध्‍ययन किये दुनिया में ज्ञान बांट देने की जिद पाले हुए हैं, तो हमें मजबूरन तमाम असावधान गम्‍भीर युवाओं को और मार्क्‍सवाद में दिलचस्‍पी रखने वाले लोगों को सावधान करना पड़ रहा है कि ऐसे बहरूपियों और करियरवादी अज्ञानियों से सावधान रहें।
आगे पाण्‍डे जी बोलते हैं कि आपको सबसे पहले भाववाद को, जिसे पाण्‍डे जी के अनुसार अध्‍यात्‍मवाद भी कहा जाता है, और भौतिकवाद को और उनके बीच के संघर्ष को समझना होगा। इसी बीच पाण्‍डे जी का विनम्रता का झीना दुपट्टा थोड़ा सरक जाता है और वह अपने अध्‍ययन चक्र को गलती से 'क्‍लास' बोल जाते हैं लेकिन फिर तुरन्‍त सावधान होते हुए कहते हैं कि यह 'क्‍लास' नहीं है, यह शब्‍द ग़लती से निकल गया और यह भी हमारे सामाजिक प्रशिक्षण के कारण होता है। देखिये इन चार लाइनों में पाण्‍डे जी ने ज्ञान के क्‍या गुल खिला दिये हैं। पहली बात तो यह है कि भाववाद (idealism) को अध्‍यात्‍मवाद (spiritualism) में अपचयित नहीं किया जा सकता है। हर प्रकार का अध्‍यात्‍मवाद भाववाद होता है, लेकिन हर प्रकार का भाववाद अध्‍यात्‍मवाद नहीं होता है। पाण्‍डे की भाववाद की इस सड़कछाप समझदारी पर हम पिछली किश्‍त में विस्‍तार से लिख चुके हैं, आप उसे सन्‍दर्भित कर सकते हैं। दूसरी बात यह है कि 'क्‍लास' बोलने में अपने आप में कोई समस्‍या नहीं है, यदि आप वाकई मार्क्‍सवाद के बारे में सही पढ़ा रहे हों। इसी से एक किस्‍सा याद आता है। एरिक हॉब्‍सबॉम ब्रिटिश कम्‍युनिस्‍ट पार्टी की ओर से मज़दूरों में कक्षाएं लेने जाते थे। एक बार उन्‍होंने अपनी कक्षा में अपनी सज्‍जनता और वास्‍तविक ज्ञान से पैदा होने वाली सच्‍ची विनम्रता के कारण कहा कि मैं आप मज़दूर साथियों को कुछ नहीं पढ़ा सकता, आप तो वह सब अपने जीवन से जानते हैं। इस पर एक मज़दूर ने उठकर कहा कि यह बेकार की बात है और औपचारिकताओं में वक्‍त न ज़ाया करें, आप निश्चित तौर पर हमें पढ़ा सकते हैं और आप हमें पढ़ा सकें, इसके लिए ज्ञान हासिल कर सकें, इसके लिए खाली वक्‍त हमने ही आपको मुहैया किया है, इसलिए बिना समय बरबाद किये हमें बताएं कि मार्क्‍सवाद क्‍या है, सर्वहारा वर्ग का दर्शन क्‍या है, क्रान्ति की समस्‍याएं क्‍या हैं। लेकिन पाण्‍डे के मामले में न तो ज्ञान मौजूद है और न ही सच्‍ची विनम्रता। आप पहली किश्‍त में भी यह देख चुके हैं और आपको आगे भी हम यह दिखलाएंगे।
इसके बाद पाण्‍डे जी भाववाद और भौतिकवाद के अन्‍तर के विषय में अपनी समझदारी बताते हैं। वह कहते हैं कि भाववाद या अध्‍यात्‍मवाद वह है जो मानता है आत्‍मा प्रकृति से ऊपर है और भौतिकवाद वह है जो मानता है कि प्रकृति आत्‍मा से ऊपर है; दूसरे शब्‍दों में, भाववाद यह मानता है कि सबकुछ पहले से तय है जबकि भौतिकवाद मानता है कि सबकुछ पहले से तय नहीं है और यह लौकिक दुनिया की भौतिक परिस्थितियों से तय होता है। पहली बात तो ये परिभाषाएं ही सही नहीं हैं, कम-से-कम सटीक बिल्‍कुल नहीं हैं। भाववाद का हर रूप यह नहीं मानता है कि सबकुछ पहले से तय है। भाववाद को पाण्‍डे जी किस तरह नियतिवाद (fatalism) और नियतत्‍ववाद (determinism) से गड्डमड्ड कर देते हैं, यह पिछली किश्‍त में हम दिखला चुके हैं। यहां उसके उदाहरण के तौर पर पाण्‍डे जी बताते हैं एक वर्तमान उदाहरण यह है कि कोविड-19 के फैलने पर कुछ लोगों ने इसे ईश्‍वर का प्रकोप, अल्‍लाह का कहर वगैरह बताया और कहीं पर गोमूत्र पीने, यज्ञ आदि करने की बात की तो कहीं ताबीज़ बांधने की सलाह दी। लेकिन जब एक धार्मिक गुरू को ही कोरोना संक्रमण हो गया तो अस्‍पताल में भर्ती हो गया। यानी वह विचारों में भाववादी है और व्‍यवहार में भौतिकवादी है! उसी तरह व्‍यापार में घाटा होने पर व्‍यापारी बोलते हैं कि यह तो ईश्‍वर की लीला है, लेकिन उस घाटे को दूर करने के लिए ठोस कदम भौतिकवादी तरीके से उठाते हैं। वे भी विचारों में तो भाववादी हैं लेकिन व्‍यवहार में भौतिकवादी। यह भाववाद और भौतिकवाद के अन्‍तर को स्‍पष्‍ट करने का ऐसा अनर्थवादी तरीका है, जिसकी आलोचना करना भी थोड़ा कठिन है। यानी कि यदि कोई संक्रमित होने पर अस्‍पताल जाता है, तो वह व्‍यवहार में भौतिकवादी हो गया, और यदि वह गोमूत्र पीता है और ताबीज़ पहनता है, तो वह व्‍यवहार में भाववादी हो गया! अगर ऐसा है कि तब तो कहना पड़ेगा कि दुनिया में ही नहीं बल्कि हमारे देश में भी भौतिकवादी लोग भारी बहुसंख्‍या में हैं! ऐसी बचकानी समझदारी पर क्‍या कहा जाय? पाण्‍डे जी आगे फिर से भाववाद को बार-बार ईश्‍वरवाद, अध्‍यात्‍मवाद, नियतिवाद और नियतत्‍ववाद में अप‍चयित करते हैं। वह दावा करते हैं कि यहां सबकुछ पहले से तय होता है, जबकि भौतिकवाद में ऐसा नहीं होता है। यह भी गलत है क्‍योंकि भौतिकवाद में भी जो वैज्ञानिक नियम अनुभव व व्‍यवहार से स्‍थापित होते हैं, उनके अनुसार होने वाली चीज़ें तय ही होती हैं। मसलन, यह एक सिद्ध वैज्ञानिक तथ्‍य है कि गुरुत्‍वाकर्षण की शक्ति सत्‍य है; इसे तय करने के लिए हर बार किसी को अपने सिर पर सेब गिराने की आवश्‍यकता नहीं है। विज्ञान के लिए ज्ञात और अज्ञात, निर्धारित और अनिर्धारित का द्वन्‍द्व सतत् जारी रहता है। उसके सीमान्‍त अवश्‍य बदलते रहते हैं, विस्‍तारित होते रहते हैं और गहराते रहते हैं। हर ज्ञात हमेशा ज्ञात व अज्ञात के दो में टूटता है और हर अज्ञात भी ज्ञात और अज्ञात के दो में टूटता है। इसी वजह से विज्ञान के क्षेत्र में भी भौतिकवाद और भाववाद के बीच संघर्ष जारी रहता है। द्वन्‍द्वात्‍मक भौतिकवाद एक सार्वभौमिक पहुंच व पद्धति है। विज्ञान के क्षेत्र में चूंकि ज्ञात और अज्ञात का द्वन्‍द्व लगातार जारी रहता है, इसलिए वहां जो ज्ञात के पहलू पर अद्वन्‍द्वात्‍मक रूप से बल देते हैं, वे निय‍तत्‍ववाद के शिकार होते हैं और जो अज्ञात के पहलू को अद्वन्‍द्वात्‍मक रूप से रेखांकित करते हैं, वे अज्ञेयवाद के शिकार होते हैं। इनमें से पहला यांत्रिक भौतिकवाद की श्रेणी में आता है और दूसरा एक प्रकार के भाववाद की श्रेणी में। जो लोग नील्‍स बोर व हाइजेनबर्ग के पक्ष और आइंस्‍टीन व श्रोडिंगर के पक्ष के बीच चली बहस के विषय में जानते होंगे, वे समझ रहे होंगे कि हम यहां क्‍या कह रहे हैं।
लुब्‍बेलुबाब यह कि पाण्‍डे जी पहले भाववाद का एक कैरीकेचर खड़ा करते हैं और फिर उसे भौतिकवाद और विज्ञान के कैरीकेचर द्वारा ध्‍वस्‍त कर देते हैं। जिसने एंगेल्‍स का 'समाजवाद: काल्‍पनिक और वैज्ञानिक' भी पढ़ा होगा उसे पता होगा कि भाववाद क्‍या है और क्‍यों इसे ईश्‍वरवाद, अध्‍यात्‍मवाद, नियतिवाद और नियतत्‍ववाद में अपचयित नहीं किया जा सकता है। उसे यह भी पता होगा कि भौतिकवाद क्‍या है और कोरोना लगने पर अस्‍पताल जाने मात्र से कोई व्‍यवहार में भौतिकवादी नहीं हो जाता है! अब जो ऐसी भयंकर अज्ञानतापूर्ण बातें आत्‍ममहत्‍वोन्‍मादी के समान और आत्‍ममहानता के विभ्रमों के साथ करे, तो उसे हम क्‍या संज्ञा दें? उसे मूर्ख, बौद्धिक पिग्‍मी, आत्‍मग्रस्‍त और अज्ञानी न कहें तो क्‍या कहें? जिन क्रियाओं में पाण्‍डे जी संलग्‍न हैं, उन्‍हें करने वालों के लिए हिन्‍दी भाषा में ये ही विशेषण मौजूद हैं और आलोचना में हम किसी बुर्जुआ जेण्‍टलमैनली औपचारिकताओं को नहीं मानते हैं क्‍योंकि यह मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी आन्‍दोलन, आलोचना शैली व परम्‍परा का हिस्‍सा नहीं हैं। यह परम्‍परा है जैसे को तैसा कहने की, यानी call a spade a spade
दूसरे वीडियो के अन्‍त में पाण्‍डे जी अपने बौद्धिक स्ट्रिप्‍टीज़ को एक और नये स्‍तर पर ले जाते हैं। वह कहते हैं कि किसी ने रोज़ा लक्‍ज़ेमबर्ग के विषय में पूछा है, तो मैं यहां उसकी चर्चा नहीं करूंगा, जब मैं नारीवाद और मार्क्‍सवाद के सम्‍बन्‍ध के विषय में बात करूंगा, तब उसकी चर्चा करूंगा (!) और वैसे भी मेरे पास रोज़ा लक्‍ज़ेमबर्ग के 'कम्‍प्‍लीट वर्क्‍स' (संग्रहीत रचनाएं) केवल अंग्रेजी में ही हैं! आप देख सकते हैं कि पाण्‍डे को हमने झूठा, मक्‍कार, मूर्ख क्‍यों कहा था। पहली बात, तो इस आदमी को यह लगता है कि रोज़ा लक्‍जेमबर्ग किसी किस्‍म की नारीवादी, नारीवादी-मार्क्‍सवादी या मार्क्‍सवादी-नारीवादी थीं! इस मूर्ख ने अन्‍दाज़ा लगाया होगा कि चूंकि वह एक स्‍त्री थीं, इसलिए नारीवादी ही रही होंगी! इस व्‍यक्ति को शायद पता ही नहीं है कि रोज़ा लक्‍जेमबर्ग कोई नारीवादी नहीं थीं, बल्कि स्‍त्री मुक्ति के मार्क्‍सवादी कार्यक्रम में भरोसा रखती थीं, जो कि विभिन्‍न प्रकार के नारीवादी कार्यक्रमों से बिल्‍कुल भिन्‍न है। मार्क्‍सवाद ऐतिहासिक भौतिकवादी विश्‍लेषण के आधार पर स्‍त्री मुक्ति के कार्यक्रम और परियोजना को सर्वहारा मुक्ति की ऐतिहासिक परियोजना के एक नाभिनालबद्ध अंग के रूप में देखता है और किसी भी किस्‍म के अस्मितावाद का विरोध करता है। स्‍त्री मुक्ति की बात करने से कोई नारीवादी नहीं हो जाता है। नारीवाद एक सुनिश्चित राजनीतिक विचारधारा है और यह मार्क्‍सवाद से अलग है। मार्क्‍सवादी नारीवाद एक गलत शब्‍द (oxymoron) है, ठीक उसी प्रकार जैसे अम्‍बेडकरवादी-मार्क्‍सवाद एक गलत शब्‍द है। इसके बारे में आप विस्‍तार में यहां पढ़ सकते हैं कि ऐसा क्‍यों है (https://redpolemique.wordpress.com/2018/06/21/marxism-and-the-question-of-identity/)। रोज़ा लक्‍जेमबर्ग के बारे में ऐसी बात करना यह दिखलाता है कि इस व्‍यक्ति को न तो नारीवाद के बारे में कुछ पता है और न ही रोज़ा लक्‍ज़ेमबर्ग के बारे में। वैसे इस “ज्ञान धुरन्‍धर” को यह भी पता नहीं है कि रोज़ा लग्‍ज़म्‍बर्ग स्‍त्री प्रश्‍न पर लिखित अपने चन्‍द एक निबन्‍धों के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक अर्थशास्‍त्र, मज़दूर आन्‍दोलन व अन्‍य विविध राजनीतिक प्रश्‍नों तथा अपने समय की सामयिक राजनीतिक समस्‍याओं पर चिन्‍तन और लेखन के लिए जानी जाती हैं। पाण्‍डे के झूठ का अब दूसरा प्रमाण देखिये: पाण्‍डे ने कहा कि रोज़ा लक्‍ज़ेमबर्ग की सम्‍पूर्ण रचनाएं उसके पास अंग्रेजी में हैं। यह कितना बड़ा झूठा है, इससे दिख जाता है। रोज़ा लक्‍जेमबर्ग की सम्‍पूर्ण रचनाएं अभी तक अंग्रेजी में प्रकाशित ही नहीं हुई हैं; उनका केवल 25 प्रतिशत ही अभी तक अनूदित हो पाया है। टोलेडो प्रोजेक्‍ट जो कि रोज़ा लक्‍जेमबर्ग स्टिफ्टुंग की सहायता से चल रहा है, इस अनुवाद के काम को अभी भी कर रहा है। इसमें केवल तीन किताबें अभी तक छप कर आई हैं। दो खण्‍ड आर्थिक रचनाओं के हैं और एक खण्‍ड राजनीतिक रचनाओं का। यह एक जारी प्रोजेक्‍ट है, जिसे पूरा होने में अभी कई वर्ष लगेंगे। इसके बारे में आप यहां पढ़ सकते हैं: (https://www.versobooks.com/series_collections/20-the-complete-works-of-rosa-luxemburg) लेकिन पाण्‍डे जी के पास अंग्रेजी में रोज़ा लक्‍जेमबर्ग की सम्‍पूर्ण रचनाएं पहले से ही मौजूद हैं! अब ऐसे आदमी को झूठा, लबार, मक्‍कार न कहा जाए, तो आप ही बताएं कि क्‍या कहा जाय?
मार्क्‍सवाद के इस फ़र्ज़ी और धुन्‍ध-प्रसारक “शिक्षक” की असलियत सामने लाने के लिए यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। अगली किश्‍त में हम पाण्‍डे के तीसरे वीडियो की समालोचना प्रस्‍तुत करेंगे।
(अगली किश्‍त में जारी)

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