'वाम को प्रतिक्रियात्मक रक्षावाद से आगे बढना
होगा' - अभिनव सिन्हा
पोलेमिक द्वारा 13 मार्च 2015 को मुम्बई विश्वविद्यालय में ‘वैश्विक आर्थिक संकट और फासीवाद व दक्षिणपंथी राजनीति का प्रतिरोध्य उभार’ विषय पर तीसरा सेमिनार
पोलेमिक ने 13 मार्च 2015 को
मुम्बई विश्वविद्यालय में अपना तीसरा सेमिनार आयोजित किया जिसका विषय था-‘वैश्विक
आर्थिक संकट और फासीवाद व दक्षिणपंथी राजनीति का प्रतिरोध्य उभार’।
अनेक शिक्षकों, छात्रों व राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने सेमिनार
में भाग लिया। राजनीतिक कार्यकर्ता व मजदूर अखबार ‘मज़दूर बिगुल’
के
सम्पादक अभिनव सिन्हा, डॉ राजन पडवल और ट्रेड यूनियन नेता शशिकान्त सोनावने
वक्ता थे। अर्थशास्त्र के शिक्षक डॉ राजन पडवल ने मोदी के सत्ता में आने की गतिकी
व मोदी के वोटरों के सामाजिक-आर्थिक चरित्र पर बात रखी। इसके बाद, आई.सी.टी.यू.
के शशिकान्त सोनावने ने संघ परिवार द्वारा पेश की गयी चुनौतियों व इसकी फासीवादी
राजनीति के विरुद्ध एक दृढ संघर्ष छेड़ने की बात की।
अभिनव सिन्हा ने भारत समेत विश्व के अन्य भागों
में हुई हाल की घटनाओं से, जो स्पष्ट रूप से दक्षिणपंथी राजनीति व
फासीवाद के उभार को दर्शाती हैं, अपनी बात शुरू की। कॉमरेड गोविन्द
पानसरे की हत्या, मुज़फ्फरनगर व देश के अन्य भागों में नियंत्रित
साम्प्रदायिक दंगे, देशभर में साम्प्रदायिक तनावों को हवा देने के
लिए आर.एस.एस. व उसके सहयोगी संगठनों द्वारा चलायी जा रही नफरत भड़काने की मुहिम
जैसी घटनाएँ संघ परिवार की रणनीति की ओर स्पष्ट संकेत कर रही हैं; यह
रणनीति जहाँ एक ओर मोदी को धर्मनिरपेक्षता के बारे में खोखले शब्द इस्तेमाल करने
की छूट देती है, वहीं दूसरी और हिन्दुत्व ब्रिगेड को अपना काम
अनवरुद्ध जारी रखने की छूट देती है।
अभिनव
ने दलील रखी कि फासीवाद समेत दक्षिणपंथी उभार कोई एक पृथक परिघटना नहीं है,
जैसाकि
एक ओर फासीवादी ताकतों के चुनावों में आश्चर्यजनक प्रदर्शन जैसे फ्रांस में नेशनल
फ्रंट, अमेरिकी साम्राज्यवाद की मदद से यूक्रेन में स्वोबोदा का उदय,
यूनान
में गोल्डन डॉन, ऑस्ट्रेलिया में टोनी एबॉट का चुनाव वहीं दूसरी
ओर आईएसआईएस, बोको हरम आदि जैसी धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों के
उभार, से स्पष्ट है। यह एक वैश्विक परिघटना है जो कि एक गहरे जड जमाए हुए
आर्थिक संकट के साथ मौजूद है। वैश्विक आर्थिक संकट राजनीतिक संकटों के विविध रूपों
में खुद को अभिव्यक्त कर रहा है। संकट के दौर में अपनी संचय प्रक्रिया जारी रखने,
मज़दूर
आन्दोलन को प्रभावहीन बनाने और आम जनता को बाँटे रखने के लिए आज पूँजीवाद को
फासीवादी ताकतों की जरूरत है। वो जो पूँजीवाद व उसके संकट पर बात नहीं करते उन्हे
फासीवाद पर भी चुप रहना चाहिए। इतिहास ने एक बार फिर यह दिखाया है कि फासीवाद का
उभार, अक्सर वैश्विक पैमाने पर, लगभग हमेशा ही पूँजीवादी व्यवस्था के
संकट के साथ होता है। अभिनव ने कहा कि जो दूसरी सबसे बडी चीज़ है वह है फ़ासीवाद की
विशिष्टता और दक्षिणपंथी राजनीति के अन्य रूपों से इसके भेद को समझना। उनके अनुसार,
यह
कोई अकादमिक कवायद नहीं बल्कि क्रान्तिकारी वाम की फासीवादी आक्रमण को रोकने की
समूची रणनीति यह भेद कर पाने की क्षमता पर निर्भर करती है।
अभिनव ने इंगित किया कि दक्षिणपंथी उग्रवाद के
अन्य रूपों से अलग, फासीवाद एक जनान्दोलन है जिसका कि एक सामाजिक
जनाधार है जिसमें मुख्यत परिवर्ती वर्ग आते हैं, जैसे पेशेवर और
गैर-पेशेवर निम्न बुर्जुआ वर्ग जिसे जर्मन ‘मितेलस्टैण्ड’
कहते
थे, जिसमें निम्न व्यवसायियों, छोटे व्यापारियों, दलाल,
प्रोपर्टी
डीलरों, दुकानदारों व निम्न मध्यम वर्ग के अन्य हिस्सों का पूरा वर्ग शामिल
है। इसके अतिरिक्त, फासीवाद के सामाजिक आधार में लम्पट सर्वहारा के
एक हिस्से के साथ ही असंगठित मज़दूर वर्ग, खासकर वो जिसमें किसी मजदूर संगठन,
जैसे
ट्रेड यूनियन में कोई राजनीतिक शिक्षा पाने का अभाव होता है, भी
शामिल हैं। पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष में निम्न मध्य वर्ग सर्वहारा वर्ग का एक
सम्भावित सहयोगी है। हालांकि, क्रान्तिकारी ताकतों के एक संगठित
हस्तक्षेप के अभाव में यह अक्सर उनकी राजनीतिक पहुँच से बाहर छूट जाता है जो कि
बदले में इसे फासीवादी राजनीति की ओर ले जाता है, विशेषकर
राजनीतिक व आर्थिक संकट के समय में, क्योंकि इसकी नाजुक सामाजिक स्थिरता
खतरे में पड जाती है और इसे इस बात की कोई समझदारी नहीं होती कि इस सामाजिक व
आर्थिक असुरक्षा व अनिश्चितता के लिए कौन जिम्मेदार है? यह हताशा इस
वर्ग को फासीवादी प्रचार के लिए विशेष रूप से भेद्य बना देती है।
अभिनव ने जोर देते हुए कहा कि हर पूँजीवादी
संकट अपने गर्भ में दोहरी सम्भावनाएँ लिए होता हैः एक क्रान्तिकारी सम्भावना और एक
प्रतिक्रियावादी। कौन सी सम्भावना को मूर्त रूप दिया जा सकता है यह एक ओर
क्रान्तिकारी मजदूर वर्ग के हिरावल और दूसरी ओर प्रतिक्रियावादी ताकतों की
सापेक्षित तैयारी पर निर्भर करता है। आज के समय में, सर्वहारा वर्ग
के क्रान्तिकारी हिरावल को तैयार होने के लिए भूमण्डलीकरण के दौर में पूँजी की
कार्यप्रणाली में आए संरचनागत परिवर्तनों और इसके अनुरूप सामान्य आर्थिक संकट की
प्रकृति व फासीवादी उभार की प्रकृति में आए परिवर्तनों को समझना बेहद जरूरी है।
उन्होंने आगे कहा कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वित्तीय पूँजी की ताकत अभूतपूर्व
रूप से बढी है। पूँजी के संघटन में अनुत्पादक आभासी पूँजी की हिस्सेदारी की
चौंकाने वाली वृद्धि दिखाती है कि यह और अधिक पतनशील व मरणासन्न हो चुकी है। दूसरे
विश्व युद्ध के बाद का दौर संचय के प्रधान साधन के रूप में फोर्डिज्म के पतन का
दौर रहा और 1973 के बाद का दौर विनियमन के प्रधान साधन के रूप
में कल्याणकारी राज्य के पतन का दौर रहा। इसके बाद के दौर में पूर्ण पैमाने पर
भूमण्डलीकरण की नव उदारवादी नीतियों की शुरूआत सामने आयी। यह ध्यान देने योग्य है
कि डालर-स्वर्ण मानक के विघटन के बाद, विश्व पूँजीवाद ने एक भी महत्वपूर्ण
वास्तविक तेजी का दौर नहीं देखा है; एक सतत मन्द मन्दी ने इसे जकड लिया है
और यह जाने का नाम नहीं लेती व समय-समय पर, जैसे 1997 का
संकट, 2001 का संकट, 2007 का संकट जोकि अभी भी बना हुआ है,
गम्भीर
संकट का रूप धारण करती रहती है। इस मन्दी से उबरने का हर प्रयास पूँजीवाद को और
गहरे संकट की और ले गया है। अब पूंजीवाद कोई वास्तविक तेजी नहीं पैदा कर सकता और
हमेशा से अधिक पतनशील व मरणासन्न बन चुका है। यह केवल आभासी बुलबुले ही पैदा कर
सकता है जो फटने के लिए अभिशप्त हैं। 1930 के दशक की महामन्दी समेत, मौजूदा
संकट हमेशा से कहीं अधिक ढाँचागत व गहरा है।
1970 के दशक के बाद से पूंजीवादी संकट की प्रकृति
में आये परिवर्तनों के साथ ही साथ फासीवाद की प्रकृति में भी बदलाव आया है।
फासीवाद भी कहीं अधिक ढांचागत व गहरी जड जमायी हुई परिघटना बन चुका है, और
संकट की ही तरह, कम आकस्मिक बन चुका है। सत्ता में न होते हुए
भी, फासीवादी ताकतें बुर्जआ वर्ग की एक अनौपचारिक शक्ति के रूप में कहीं
अधिक अहम भूमिका अदा करती हैं जिसकी कि संकट के कारण बुर्जआ वर्ग को अब लगातार
जरूरत पड़ती है। इन बदलावों के कारण, हममें से कुछ यह तथ्य नहीं पहचान पाये
हैं कि मोदी की चुनावों में जोरदार जीत के साथ फासीवाद सत्ता में आ चुका है। यह
जर्मन नात्सीवाद व इतालवी फासीवाद के साथ समरूपता खोजते रहने की प्रवृति के चलते
भी है। महत्वपूर्ण अन्तर पाने पर कई शिक्षाविद यह नकार देते हैं कि फासीवाद भारत
में सत्ता में है। अभिनव ने तर्क देते हुए कहा कि इतिहास हमेशा 'redemptive activity' करता है व खुद
को दोहराता नहीं है। हूबहू समरूपता अथवा समानता खोजने के बजाय फासीवाद के सारभूत
तत्वों को पहचानना आवश्यक है। फासीवाद के सारभूत तत्व ही उसे बुर्जुआ तानाशाही के
अन्य अपवादात्मक रूपों से - सैन्य तानाशाही व बोनापार्तवादी शासन से, भिन्न
बनाते हैं। इनमें से एक तो यह तथ्य है कि फासीवाद एक सामाजिक आन्दोलन है, निम्न
बुर्जुआ वर्ग का एक रोमानी उभार है। दूसरा तत्व यह तथ्य है कि फासिस्ट तानाशाही
बुर्जुआ तानाशाही के अन्य अपवादात्मक रूपों के बरक्स पूँजीपति वर्ग से कहीं अधिक
सापेक्ष स्वायत्तता रखता है। फासीवाद के विरुद्ध प्रतिरोध की रणनीति बनाने में ये
दो कारक अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
अभिनव
ने तर्क देते हुए कहा कि फासीवाद के विरुद्ध रणनीति के सबसे महत्वपूर्ण तत्वों में
मजदूर वर्ग के बीच सामाजिक जनवादी व संसदीय वाम की राजनीति के प्रभाव के विरुद्ध
संघर्ष है। ऐतिहासिक रूप से, सामाजिक जनवाद ने ही मजदूर आन्दोलन को
बुर्जुआ वैधानिक संघर्षों से आगे नहीं जाने दिया और उसे प्रतिक्रियात्मक रक्षावाद
की राजनीति के भीतर ही कैद रखा। संशोधनवादी वाम का अर्थवाद फिर से मजदूर वर्ग की
राजनीति को एक क्रान्तिकारी मोड देने में बाधा बन रहा है, हालांकि यह उतना
प्रभावशाली नहीं है जितना कि जर्मनी व इटली में था। फासीवादी उभार को अप्रतिरोध्य
बनने से रोकने के लिए नयी क्रान्तिकारी वाम रणनीति बनाने में दूसरा सबसे अहम तत्व
है निम्न मध्य वर्ग के साथ भारत में एक मजबूत वर्ग संश्रय बनाना। निम्न मध्यवर्ग
के बीच एक मजबूत सामाजिक आधार विकसित करने के लिए क्रान्तिकारी वाम को एक इलाकाई
आधार पर रणनीति बनानी होगी। उसे यह दिखाना होगा कि किस तरह से पूँजीवाद की
अनियमितताओं ने निम्न मध्यवर्ग के लिए एक खतरनाक असुरक्षा और अनिश्चितता खडी की
है।
यह पूंजीवाद ही है जो कि स्थायी बेरोजगारी को
खतरनाक स्तर पर ले जाने, आर्थिक अराजकता और सामाजिक उथल-पुथल के
लिए जिम्मेदार है। यदि वाम आज यह कर पाने में असफल होता है तो फासीवादी ताकतें
निम्न-मध्य वर्ग के समक्ष एक झूठा शत्रु, मिथकों को कॉमन सेन्स में बदलर धार्मिक
या नृजातीय अल्पसंख्यकों के रूप में एक ‘फेटिश’, खडा करने में
कामयाब होंगी, जो कि जनता को सही शत्रु को पहचानने से रोकेगा।
तीसरी महत्वपूर्ण बात जिसे आज समझने की जरूरत है, यह तथ्य है कि
आज के दौर में पॉपुलर फ्रण्ट की रणनीति जो कोमिण्टर्न में 1935
में दिमित्रेव ने पेश की थी, आज काम नहीं आने वाली है। इसका कारण है
कि आज बुर्जुआ वर्ग का बमुश्किल ही कोई बड़ा हिस्सा प्रगतिशील व जनवादी बचा है।
इसके बजाय वाम को सर्वहारा युनाइटेड फ्रण्ट की रणनीति को अपनाना होगा, जिसकी
कुछ तुलना 1924 से 1929 के बीच
कोमिण्टर्न द्वारा अपनाई गयी रणनीति से की जा सकती है। वास्तव में, ऐसी
रणनीति के लिए आज भारत व अन्य देशों में, निम्नमध्यम वर्ग से अलग, सर्वहारा
व अर्धसर्वहारा वर्ग के आकार में महती वृद्धि के कारण स्थिति कहीं अधिक मुफीद है।
यही वर्ग हैं जो फासीवादी आक्रमण के विरुद्ध एक शक्तिशाली प्रतिरोध खड़ा कर सकते
हैं और इसे पराजित करने की शक्ति रखते हैं। फासीवाद के प्रतिरोध्य उभार से लडने के
लिए रणनीतियों में से ये कुछ प्रमुख हैं। वक्ताओं की बात पूरी होने पर खुली चर्चा
का एक सत्र रखा गया। पोलेमिक का तीसरा सेमिनार सफल रहा। पोलेमिक के सदस्य सत्यनारायण
ने यह प्रतिबद्धता दोहरायी कि पोलेमिक प्रगतिशील आन्दोलन के ज्वलंत मुद्दों पर
संगोष्ठियाँ, परिसंवाद व वार्तालाप कराना जारी रखेगा और
उन्होनें वक्ताओं को धन्यवाद दिया।
No comments:
Post a Comment