Friday, 11 May 2012

‘भारतीय वामपंथ का संकट’ विषय पर परिचर्चा


10 मई, लखनऊ । चिन्तन विचार मंच द्वारा आज अनुराग पुस्तकालय निरालानगर में ‘भारतीय वामपंथ का संकट’ विषय पर परिचर्चा का आयोजन किया गया । परिचर्चा का संचालन ‘आह्वान ’ के सम्पादक अभिनव सिन्हा ने किया। शुरुआत में विषय प्रवर्तन करते हुए अभिनव ने कहा कि विश्व पूँजीवाद आज एक संकट का शिकार है। लेकिन उसका कोई कारगर विकल्प मुहैया कराने के लिए कोई क्रान्तिकारी ताक़त आज दिख नहीं रही है। तमाम देशों में यही स्थिति है और भारत में भी यही स्थिति है। पूँजीवाद के विकल्प को पेश करने वाली
विचारधारा मार्क्सवाद के सामने सिद्धान्तिक  तौर पर कोई संकट मौजूद नहीं है लेकिन कम्युनिस्ट आन्दोलन और मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के सामने भारत में एक संकट है। कुछ लोग इस संकट को संसदीय वामपंथ की हालिया चुनावों में हार में देखते हैं तो कुछ लोग इसे माओवादी आन्दोलन के ठहराव में। इसके विषय प्रवर्तन के साथ परिचर्चा की शुरुआत हुई। लखनऊ  के जाने-माने कवि व साहित्यकार चन्द्रेश्वर जी ने अपनी बात रखते हुए कहा कि 1990 में सोवियत संघ के पतन के बाद एक साथ मार्क्सवाद पर कई हमले हुए। एक ओर तो उत्तर-आधुनिकतावाद सिद्धांत ने मार्क्सवाद पर दार्शनिक हमला बोल दिया वहीं हमारे देश में वर्ग आधरित राजनीति पर जातिवादी राजनीति हावी हो गयी। संसदीय वामपंथ क्रान्ति का रास्ता छोड़ मज़दूर वर्ग से दूर चला गया। ऐसे समय में इस बात पर चर्चा की ज़रूरत है कि  मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट आन्दोलन का पुनरुत्थान किस प्रकार हो। हिसार, हरियाणा से आये पत्राकार कामता प्रसाद ने कहा कि आज मज़दूर वर्ग के बीच से ही नयी क्रान्तिकारी पार्टी को खड़ा किया जा सकता है। इसके लिए मज़दूर वर्ग के बीच से   मार्क्सवाद के प्रचार के जरिये भर्ती और बोल्शेविक उसूलों वाली पार्टी खड़ी किये जाने की जरूरत है। संसदीय वामपंथ पर कोई चर्चा करना बेकार है। उनमें और कांग्रेस और भाजपा जैसी लुटेरी पार्टियों में कोई फर्क नहीं रह गया है। इसके बाद कहानीकार प्रताप दीक्षित ने कहा कि   मार्क्सवाद  को जड़सूत्र की तरह बिना देशकाल की परिस्थितियों की परवाह किये लागू करने के कारण ही कम्युनिस्ट आन्दोलन के सामने एक संकट पैदा हो गया है। आज भारत की ठोस परिस्थितियों के मुताबिक  ही कम्युनिस्ट आन्दोलन को एक नयी शुरुआत करनी होगी। इसके बाद मेडिकल काॅलेज से आये सुब्रत ने कहा कि   मार्क्सवाद सर्वप्रथम एक विज्ञान है और अगर उसे किसी धार्मिक  सिद्धांत के तौर पर लागू किया जायेगा तो जाहिरा तौर पर दिक्कतें होंगी। सुब्रत ने कहा कि  मार्क्सवाद को सही तरीके से लागू करने के लिए जनता के बीच जाना होगा और वहीं से एक सही दिशा निकलेगी। इसके बाद नौजवान भारत सभा के आशीष ने कहा कि विभिन्न वामपंथी पार्टियों का मूल्यांकन उनके नेतृत्व और नीतियों के आधार पर किया जाना चाहिए। संसदीय  वामपंथियों के दस्तावेज़ ही बताते हैं कि वे क्रान्ति के रास्ते से पथभ्रष्ट हो चुकी हैं। उसकी कतारों में तमाम ईमानदार लोग हो सकते हैं लेकिन इससे किसी पार्टी के सहीपन को निर्धारित  नहीं किया जा सकता है। जहां तक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन की बात है तो न तो उसके पास भारतीय परिस्थितियों का कोई सही मूल्यांकन मौजूद है और न ही किसान प्रश्न पर कोई सही अवस्थिति उसके पास है। ऐसे में, मज़दूर वर्ग को संशोधनवादियों और फासीवादियों के भरोसे पर छोड़ दिया गया है और किसान अतीत के प्रति यूटोपिया को जगाने का काम  किया जा रहा है, राजनीति में भी साहित्य में भी।

   अन्त में, ‘आह्वान ’ के सम्पादक अभिनव सिन्हा ने कहा कि भारतीय वामपंथी आन्दोलन का बौद्धिक  पक्ष शुरू से ही कमज़ोर रहा है। यही बात भगतसिंह ने भी कही थी। उन्होंने कहा कि 1925 में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के गठन के बाद पार्टी बिना किसी नेतृत्वकारी निकाय और कार्यक्रम के लम्बे समय तक काम करती रही। जब कार्यक्रम बना भी तो वह भारत की ठोस परिस्थितियों के ठोस मूल्यांकन पर नहीं बल्कि अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के नेतृत्व के सुझाव और सोवियत पार्टी के मार्गदर्शन में बना। ऐसे में, पार्टी ने 1925 से 1951 तक कई आन्दोलन लड़े, अकूत कुर्बानियाँ दीं और कई संघर्ष संगठित किये, लेकिन उसके पास इन  संघर्षों को व्यापक राजनीतिक संघर्ष में तब्दील करने की कोई सुस्पष्ट समझदारी मौजूद नहीं
थी। 1951 में गलत लाइन पर लम्बे समय तक काम करने के बाद पार्टी संशोधनवाद और क्रान्ति से गद्दारी के रास्ते पर चली गयी। 1964 में फूट के परिणामस्वरूप माकपा बनी लेकिन उसने भी संशोधनवाद के रास्ते पर ही अमल जारी रखा। 1967 में नक्सलवादी आन्दोलन के साथ संशोधन वाद से एक निर्णायक विच्छेद तो हुआ लेकिन वह आन्दोलन जल्द ही वामपंथी दुस्साहसवादी आतंकवाद के गड्ढे में चला गया। और यह आंदोलन भी भारतीय परिस्थितियों की कोई सही समझदारी रखने की बजाय चीनी क्रान्ति के माॅडल को भारत में हूबहू लागू करने के बारे में सोचता था। आज हमें नये सिरे से  मार्क्सवादी विज्ञान के आलोक में अपने देश की
ठोस परिस्थितियों के विश्लेषण की ज़रूरत है। साथ ही, मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक काम को शुरू करके मज़दूर वर्ग से क्रान्तिकारियों की कतारों को खड़ा करने की ज़रूरत है। भारत में वामपंथ के संकट का समाधान एक सही और नयी शुरुआत से ही हो सकता है। एक नयी क्रान्तिकारी पार्टी भी तभी निर्मित हो सकती है।
सधन्यवाद,
लालचन्द्र,
संयोजक, चिन्तन विचार मंच, लखनऊ 

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